रामलीला: घटता आकर्षण
प्रतिवर्ष दशहरे से काफी समय पहले ही देशभर में रामलीला के आयोजन की तैयारियां शुरू हो जाती है। रावण, कुम्भकर्ण व मेघनाद के 90-100 फुट तक ऊंचे पुतले तैयार होने लगते हैं। रामलीला के आयोजन की शुरुआत कब हुई थी, दावे के साथ यह कह पाना तो मुश्किल है क्योंकि इस बारे में अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं किन्तु रामलीला के आयोजन का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट रहा है, कथा मंचन के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों को जन-जन तक पहुंचाना। इस उद्देश्य में रामलीला काफी हद तक सफल भी रही हैं। भक्ति और श्रद्धा के साथ मनाई जाती रही रामलीला ने भारतीय संस्कृति एवं कला को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाई है।
श्रीराम के आदर्श, अनुकरणीय एवं आज्ञापालक चरित्र तथा सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, जटायु, विभीषण, शबरी इत्यादि रामलीला के विभिन्न पात्रों द्वारा जिस प्रकार अपार निष्ठा, भक्ति, प्रेम, त्याग एवं समर्पण के भावों को रामलीला के दौरान प्रकट किया जाता है, वह अपने आप में अनुपम है। नई पीढ़ी को धर्म एवं आदर्शों की प्रेरणा देने के साथ-साथ उसमें जागरुकता का संचार करने के लिए भी पर्याप्त है। यह आयोजन कला को भी एक नया आयाम प्रदान करते हैं। रामलीला की सबसे बड़ी विशेषता यही रही है कि इनके मंचन में हिन्दुओं के साथ-साथ अन्य धर्मों के लोगों का भी विशेष सहयोग मिलता रहा है और रामलीला देखने के लिए भी सभी धर्मों के लोग आते हैं। रामलीला में हमें भक्ति, श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, कला, संस्कृति एवं अभिनय का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है।
बहरहाल, ज्यों-ज्यों भारतीय संस्कृति पर आधुनिकता का रंग चढ़ने लगा है, रामलीला भी आधुनिकता की चकाचौंध से दूर नहीं रह पाई हैं। रामलीला के नाम पर जिस तरह के आयोजन आजकल होने लगे हैं, उन्हें देखकर लगता है कि आधुनिकता की चपेट में आई इस प्राचीन परम्परा का मूल स्वरूप और धार्मिक अर्थ धीरे-धीरे गौण हो रहा है। एक-एक रामलीला के आयोजन में पंडाल और मंच की साज-सज्जा पर ही लाखों-करोड़ों रुपये खर्च होने लगे हैं। पंडालों की आकृतियां लाल किला, इंडिया गेट, ताजमहल जैसी भव्य ऐतिहासिक इमारतों के रूप में बनाई जाने लगी हैं। आधुनिक सूचना तकनीक ने रामलीला में गहरी पैठ बना ली है। संवाद बोलने के लिए मंच पर लंबे-चौड़े माइकों की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि कलाकारों के गले में छोटे-छोटे माइक्रोफोन लटके रहते हैं। इतना ही नहीं, कुछ रामलीला कमेटियां तो पंडालों में लंबी-चौड़ी वीडियो स्क्रीन लगाकर स्पेशल इफैक्ट्स दिखाने का बंदोबस्त भी करने लगी हैं। पंडालों के भीतर हर तरह के स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ उठाने के इंतजाम भी किए जाते हैं।
बात अगर यहीं तक सीमित होती तो इसमें कोई बुराई नहीं थी क्योंकि समय के बदलाव के साथ-साथ यदि रामलीलाओं के आयोजन में भी आधुनिक सूचना तकनीक का इस्तेमाल किया जाए तो इसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन जिस तरह से रामलीला कमेटियों द्वारा आजकल अपने-अपने आयोजनों में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने के लिए नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं और उनमें होड़ लगी रहती है कि किसके मंच पर ज्यादा चमक-दमक हो, किसका रावण सबसे बड़ा हो, कौन कितने बड़े-बड़े राजनेताओं को अपने आयोजन में बुलाने में सफल होता है, इससे रामलीलाओं के मंचन का जो मूल उद्देश्य था, वह गौण होने लगा है। जाहिर है कि बहुत से आयोजकों द्वारा रामलीला के आयोजन को पूर्ण रूप से व्यावसायिक बना दिया गया है और इन आयोजनों के जरिये उनका उद्देश्य राजनेताओं के साथ अपने सम्पर्क दायरे का विस्तार करना, अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना और आर्थिक लाभ कमाना ही हो गया है।
रामलीला के दौरान लोगों को आकर्षित करने और उनका मनोरंजन करने के लिए जादू शो, चैरिटी शो, लक्की ड्रा तथा आकर्षक झांकियों के प्रयोग तक तो बात समझ में आती है लेकिन अगर ऐसे धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में दर्शकों की ज्यादा से ज्यादा भीड़ एकत्रित कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के नाम पर महंगी नृत्य पार्टियों और रास मंडलियों को बुलाकर रामलीला के दौरान उनके कार्यक्रम स्टेज पर आयोजित किए जाने लगें तो इसे क्या कहा जाएगा ? रामलीला के दौरान अब फिल्मी गीत-संगीत पर नाच-गाना एक आम बात हो गई है। हद तो यह है कि कुछ आयोजक रामलीला मंचन के दौरान कैबरे नृत्यों का भी सहारा लेने लगे हैं। ऐसे आयोजनों के प्रति मनचले किस्म के युवा ही ज्यादा आकर्षित होते हैं और आयोजक रामलीला के नाम पर इस तरह के भौंडे आयोजन कर खूब चांदी कूट रहे हैं। हालत यह हो गई है कि फिल्मों व टीवी धारावाहिकों की ही तर्ज पर रामलीला भी अब प्रायोजित की जाने लगी हैं। जाहिर है, ऐसे में मंच पर वही होगा, जो प्रायोजक चाहेंगे। मंच से रामलीला के कलाकारों द्वारा प्रायोजकों व आयोजकों का महिमामंडन भी परम्परा बनती जा रही है।
कुछ वर्ष पहले तक रामलीला कमेटियों का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ कलाकारों के जरिये रामकथा की जीवंत प्रस्तुति कराना होता था और इसके लिए बाकायदा अयोध्या, फैजाबाद, लखनऊ इत्यादि विभिन्न स्थानों से अच्छे-अच्छे कलाकार बुलाए जाते थे लेकिन चूंकि आयोजक इन कलाकारों को पूरा पारिश्रमिक देने में अक्सर आनाकानी करते हैं, इसलिए ये कलाकार भी अब अपनी कला के प्रति इतने निष्ठावान नहीं रहे। एक जमाना था, जब रामलीला में कोई भी किरदार जीवंत करने वाला कलाकार पूर्ण श्रद्धा, भक्ति एवं निष्ठा के साथ उस किरदार में पूरी तरह डूब जाता था।
काशी की चित्रकूट रामलीला का ऐसा ही एक बहुत पुराना किस्सा प्रचलित है। बताया जाता है कि 1868 में मंचित की जा रही उस रामलीला में पं. गंगाधर भट्ट नामक एक कलाकार हनुमान का किरदार निभा रहा था। उस समय दर्शकों में एक अंग्रेज पादरी मैकफर्सन भी शामिल था। सीता की खोज के लिए हनुमान द्वारा समुद्र लांघने का दृश्य चल रहा था, तभी मैकफर्सन ने व्यंग्य कसा कि अगर रामायण में हनुमान 400 कोस का समुद्र लांघ गए थे तो रामलीला का यह हनुमान क्या वरुणा नदी के इस 27 हाथ चौड़े पाट को भी नहीं लांघ सकता ? गंगाधर भट्ट से यह सब सुनकर रहा न गया। उसने अचानक मन में कुछ निश्चय कर 'जय श्रीराम' का उद्घोष करते हुए छलांग लगा दी और 27 हाथ चौड़े पाट को लांघने में तो सफल हुआ किन्तु चोट इतनी लगी कि उसे बचाया नहीं जा सका। बताते हैं कि उस घटना के बाद मैकफर्सन उसकी निष्ठा और भक्ति के आगे नतमस्तक हो गया था।
हालांकि रामलीला के अधिकांश आयोजकों का मानना है कि चूंकि आज मनोरंजन के बहुत सारे साधन हो गए हैं, इसलिए जब तक रामलीला के आयोजन एवं मंचन में कुछ खास और अलग अंदाज न हो, तब तक रामलीला दर्शकों को अपनी ओर खींचने में सफल नहीं हो सकती। माना कि यह बात कुछ हद तक सही भी है और रामलीला मंचन में आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल को भी उचित माना जा सकता है किन्तु इस तरह की दलीलों से लोगों की श्रद्धा एवं भक्ति से जुड़े इस तरह के आयोजनों में भौंडेपन के समावेश को हरगिज उचित नहीं ठहराया जा सकता। आज समाज में जिस तरह का माहौल बन रहा है, उसके मद्देनजर जरूरत इस बात की महसूस की जा रही है कि आयोजक समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पहचानें और रामलीला के जरिये इसकी मूल शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाने में सहभागी बनें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)