भाग-11 / पितृ-पक्ष विशेष : भविष्य के पूर्ण ज्ञाता थे दुर्वासा ऋषि

भाग-11 / पितृ-पक्ष विशेष : भविष्य के पूर्ण ज्ञाता थे दुर्वासा ऋषि
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महिमा तारे

दुर्वासा यानी क्रोध। हम आम बोलचाल में भी कोई अत्यधिक क्रोध करता हो तो उसे दुर्वासा की संज्ञा देते हैं। पर यह हमारे अधूरे ज्ञान का परिचायक है। यह सच है कि आज वे क्रोध का पर्याय बन चुके हैं। उन्होंने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि यानि अष्टांग योग की साधना कर सिद्धियां प्राप्त कर ली थी और सब लौकिक वरदान देने में समर्थ हो गए थे। ऐसे दिव्य ऋ षि का सिर्फ एक पक्षीय अध्ययन दुर्भाग्यपूर्ण है।

यही संभवत: कारण है कि दुर्वासा ऋ षि को जानने के लिए जितने भी संदर्भ ग्रंथ देखें उसमें उनके किए गए कार्यों का कहीं वर्णन नहीं है बस उनके द्वारा दिए श्राप ही की चर्चा की गई है, जबकि इतने सिद्ध पुरुष जिनके लिए ऐसा माना जाता है कि वह सतयुग त्रेता और द्वापर में भी रहे हैं, उन्होंने कुछ समाजोपयोगी कार्य ना किए हों। यह मानना कठिन है, पर कहा जाता है कि क्रोध सारे गुणों को हर लेता हैं। शायद ऐसा ही ऋ षि दुर्वासा के साथ हुआ होगा। यह एक संदेश भी है। दुर्वासा के विषय में यह जानकारी मिलती है कि वे तंत्र शास्त्र के ज्ञाता थे।

हम सब जानते हैं कि वह सती अनुसुइया और ऋषि अत्रि के पुत्र थे जिन्हें शिव के अवतार के रूप में जाना जाता है। उनके क्रोध की अनेक कथाएं प्रचलित हैं जिनमें कृष्ण और रुक्मणी को 12 वर्ष तक अलग रहने का श्राप दुष्यंत द्वारा शकुंतला को भूलने का श्राप। इंद्र को तीनों लोकों में श्रीहीन होने का श्राप। लक्ष्मण को श्राप। राम राजा थे और राज आज्ञा के उल्लंघन के चलते राम लक्ष्मण को दण्डित करते हैं। लक्ष्मण सरयू में सामाधि लेते हैं और राम भी अपने देह को विसर्जित कर वैकुंठ जाते हैं। इसी तरह इक्ष्वाकुवंश के परम विष्णु भक्त राजा अंबरीष को श्राप।

बस इतिहास में कुंती ही ऐसी हैं। जिनके आतिथ्य से प्रसन्न होकर उन्होंने कुंती को अथर्ववेद का पुत्र प्राप्ति मंत्र दिया था। जिससे कर्ण उत्पन्न हुए। और बाद में इसी मंत्र के प्रभाव से पांडु पुत्रों की उत्पत्ति हुई।

बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड मे जब श्री रामचंद्र जी और ब्रह्मा जी का संदेश सुनाने आए काल की बातचीत चल रही थी और लक्ष्मण द्वारपाल के रूप में खड़े थे। तभी दुर्वासा ऋ षि का आना और राम से तुरंत मिलने का आदेश देना और ना जाने देने पर लक्ष्मण को श्राप देने की धमकी देना। इस पर लक्ष्मण जी का नियम भंग करके श्री राम के पास जाना। श्रीराम द्वारा दुर्वासा ऋषि को ससम्मान भोजन कराना और उनके जाने के बाद लक्ष्मण जी को दंडित करने पर दुखी होना।

लक्ष्मण के सरयू नदी तट पर शरीर छोडऩा। लव कुश का राज्याभिषेक कर रामचंद्र जी का भी परलोक जाने का निश्चय करना और हनुमान को भूतल पर ही रहने का आदेश देना। इसके साथ ही राम कथा की समाप्ति होना। त्रेता युग में लक्ष्मण को श्राप और द्वापर में कुंती को वरदान दोनों को एक साथ जोड़ कर देखें तो एक सूत्र और ध्यान में आता है। वह यह कि वह काल या यूं कहें भविष्य के ज्ञाता भी थे। राम का पृथ्वी लोक में कार्य सम्पूर्ण हो गया है तो वह लक्ष्मण को श्राप देकर एक निमित्त बने, वहीं वह जानते थे कि भविष्य में कुंती को ऐसे वर की आवश्यकता होगी और पांडवों के माध्यम से ही धर्मराज की स्थापना हुई। ऐसे दिव्य ऋषि को सादर नमन।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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