यूक्रेन-रूस तनाव कैसे फायदे में है चीन
इन दिनों यूक्रेन में रूस और अमरीका के बीच खींचतान चल रही है। दोनों देशों ने अपने अपने पक्ष वाले हजारों सैनिक सीमा पर तैनात कर दिए हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संभवतः पहली बार यूरोप में युद्ध की स्थिति बन रही है। इसका कारण समझने के लिए हमें पुनः द्वितीय विश्व युद्ध पर वापस जाना पड़ेगा।
1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ। भविष्य में ऐसा कोई युद्ध फिर न हो, इस उद्देश्य के नाम पर संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। विश्व युद्ध की समाप्ति के कुछ ही समय बाद वामपंथी रूस और पूंजीवादी अमरीका के बीच शीत युद्ध की शुरुआत हो गई। यह 1947 से 1991 तक चला। इसी बीच 1949 में अमरीका, कनाडा और यूरोप के 10 अन्य देशों ने मिलकर उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की स्थापना की। अगले कुछ दशकों में इसमें कई और देश भी जुड़े और बढ़ते-बढ़ते अब इसमें 30 देश हो गए हैं।
नाटो एक सैन्य संगठन है और युद्ध में अपने सदस्य देशों की रक्षा करना इसका उद्देश्य है। यदि किसी एक नाटो देश पर सैन्य आक्रमण होता है, तो उसे सभी नाटो देशों के खिलाफ हमला माना जाता है और सारे देश उस युद्ध में अपनी सेनाएं भेजते हैं। 1991 में सोवियत संघ कई टुकड़ों में बिखर गया और उसमें से 15 नए देश बने। इन्हीं में से एक देश यूक्रेन है। यूरोप में रूस के बाद यूक्रेन क्षेत्रफल में दूसरा बड़ा देश है।
जब यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ, तो विश्व में परमाणु हथियारों का तीसरा सबसे बड़ा भण्डार यूक्रेन में था। अमरीका और रूस ने मिलकर परमाणु निरस्त्रीकरण का अभियान चलाया। यूक्रेन ने अपने सैकड़ों परमाणु हथियार रूस को वापस लौटा दिए। बदले में उसे आश्वासन मिला कि रूस यूक्रेन पर हमला नहीं करेगा। लेकिन यूक्रेन फिर भी आशंकित बना रहा और अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए नाटो में शामिल होने का प्रयास भी करता रहा। लेकिन नाटो में कोई देश केवल तभी शामिल हो सकता है, जब नाटो के सभी 30 सदस्य देश इस बात का समर्थन करें। यूक्रेन के मामले में यह बात नहीं बनी और यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं हो सका।
अगले कुछ वर्षों तक सब-कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन 2008 में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने यूक्रेन और जॉर्जिया देशों को नाटो में शामिल करने के विचार का समर्थन कर दिया। इससे रूस भड़क गया। रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन का प्रयास है कि सोवियत संघ के पुराने देशों में से कम से कम कुछ देशों को तो वापस रूस में शामिल किया जाए। दुनिया में अपना प्रभाव जमाने के लिए रूस और अमरीका के बीच संघर्ष भी चलता रहता है। यूरोप के देश इस बात से भयभीत रहते हैं कि रूस धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए यूरोप के देशों को अपने प्रभाव में न ले ले। इसलिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही लगभग सारे यूरोपीय देश अमरीका की गोद में बैठे हुए हैं। अमरीका भी स्वयं को पूरी दुनिया का उद्धारक समझता है, इसलिए वह भी हर कहीं रूस से लड़ने पहुंच जाता है।
यूक्रेन में लगभग 17% जनसंख्या रूसी है। पुतिन का कहना है कि रूस और यूक्रेन एक ही देश है और अमरीका व अन्य पश्चिमी देशों ने ही इनके बीच दीवार खड़ी की है। उधर अन्य देश कहते हैं कि रूस अपनी धौंस जमाने के लिए यूक्रेन जैसे देशों को धमकाता रहता है। 2014 में यूक्रेन में राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के खिलाफ बड़ी संख्या में विरोध प्रदर्शन हुआ और चुनाव में उसकी हार हुई। वह रूस का समर्थक था। उन आंदोलनकारियों का समर्थन करने अमरीका के कुछ राजनयिक भी पहुंच गए। इसे रूस ने अपने विरुद्ध अमरीका का हमला माना। इससे रूस भड़क गया। उसी दौरान यूक्रेन के क्रीमिया इलाके में रूस के समर्थकों ने विद्रोह कर दिया था और उसके बहाने 2014 में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। उसके बाद से रूस और यूक्रेन में अत्यधिक तनाव बना हुआ है।
अब यूक्रेन बड़ी बुरी हालत में फंसा हुआ है। वह नाटो में जाना चाहता है लेकिन रूस के डर से नाटो के देश उसे शामिल नहीं करना चाहते। उधर रूस को चिंता है कि अगर यूक्रेन नाटो में शामिल हो गया, तो नाटो की सेनाएँ रूस की सीमा तक पहुंच जाएंगी क्योंकि यूक्रेन और रूस पड़ोसी देश हैं। इसलिए रूस नाटो से दूर रहने के लिए यूक्रेन को धमकाता रहता है और यूक्रेन रूस के डर से नाटो, यूरोपियन यूनियन आदि की तरफ मदद के लिए भागता है।
2019 के चुनाव में यूक्रेन में एक और अनपेक्षित घटना हुई। वोलोदिमिर जेलेंस्की वहां का एक हास्य कलाकार है। एक कॉमेडी शो में उसने राष्ट्रपति का रोल किया था। आगे 2019 के चुनाव में वह कॉमेडियन ही चुनाव जीतकर वाकई में यूक्रेन का राष्ट्रपति बन गया! अपने चुनाव प्रचार के दौरान उसने कहा था कि राष्ट्रपति बनने पर वह रूस के साथ संबंध सुधारने का प्रयास करेगा। इसलिए चुनाव में उसकी जीत के बाद रूस ने 2014 और 15 के समझौतों को लागू करने के लिए उस पर दबाव डालना शुरू किया।
उन समझौतों में कुछ ऐसी शर्तें हैं, जो यूक्रेन को स्वीकार नहीं हैं। इसलिए बातचीत से कोई हल नहीं निकला और तनाव बढ़ता गया। यूक्रेन में जनमत भी रूस के खिलाफ ही बढ़ता रहा और नाटो व यूरोपियन यूनियन में जुड़ने के प्रयास और तेज हुए। इससे पुतिन को भी जल्दी ही कुछ न कुछ करने की आवश्यकता महसूस हुई।
2020 में अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप की हार हुई और बाइडेन ने पदभार संभाला। ट्रंप के राज में अमरीका ने अपने कई मित्र देशों को नाराज कर दिया था। बाइडेन को अब उन देशों का भरोसा फिर से जीतने के लिए मेहनत करनी पड़ रही थी। उसमें भी बाइडेन ने भारी गलतियां की। अफगानिस्तान को भी तालिबान के हवाले करके अमरीका अचानक वहां से भाग खड़ा हुआ। इससे भी अमरीका की छवि को बहुत नुकसान पहुंचा है।
इधर यूरोप में ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन से अलग हुआ है और अभी भी उससे जुड़े कई मुद्दों पर उनके बीच अस्पष्टता बनी हुई है। जर्मनी में भी सोलह साल बाद एक नया नेता आया है और उसे गठबंधन सरकार चलानी पड़ रही है। फ्रांस में भी अप्रैल में चुनाव है, इसलिए फ्रांसीसी राष्ट्रपति अभी उसमें व्यस्त है। जर्मनी और यूरोप के कई देशों में प्राकृतिक गैस की आपूर्ति रूस से ही होती है, इसलिए वे रूस पर बहुत अधिक निर्भर भी हैं।
ऐसे में पुतिन को शायद लगा हो कि यूक्रेन को अपने अधीन लाने का यही सबसे अच्छा समय है। इसलिए रूस ने बड़ी संख्या में अपनी सेना सीमा पर तैनात करना शुरू कर दिया और पूरी दुनिया को यह संदेश पहुंचा दिया कि वह युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार है। उसने साइबर हमलों जैसे अन्य हथियारों का उपयोग भी किया। इससे भी अमरीका आदि देश सन्न रह गए।उधर रूस को जवाब देने के लिए अमरीका के नेतृत्व में नाटो की सेनाएं भी यूक्रेन की सीमा पर पहुंच गई हैं और अब मामला यहां आकर रुका हुआ है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को धमका रहे हैं और अपनी-अपनी मांगें मानने का दबाव डाल रहे हैं।इतनी अकड़ दिखाने के बाद अब अगर पुतिन बिना कुछ पाए अपनी सेनाएं वापस लौटा ले, तो पूरी दुनिया में बेइज्जती होगी कि रूस अमरीका से डर गया। लेकिन अगर युद्ध छिड़ जाए, तो उसमें भी भारी विनाश होगा और सबका नुकसान ही होगा।इन सबके बीच वास्तव में सबसे ज्यादा लाभ चीन को हुआ है। अमरीका सहित दुनिया के कई देश चीन के विरुद्ध एकजुट हो रहे थे और सबका ध्यान चीन को कमजोर करने पर लग गया था। लेकिन अचानक यूक्रेन में हलचल हुई और पूरी दुनिया का ध्यान अब चीन से हटकर यूक्रेन पर पहुंच गया है। चीन भी इस संघर्ष में रूस की मदद को खड़ा हो गया है। संभव है कि यूक्रेन के मामले में रूस की सहायता के बदले उसे भी आवश्यकता होने पर ताइवान या हांगकांग के मामले में रूस की मदद मिले।आगे क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा। लेकिन भारत के अधिकांश मीडिया चैनल इस पर लगभग कुछ भी नहीं बता रहे हैं, इसलिए मैंने सोचा कि मैं ही कुछ लिखूं।
(लेखक कनाडा निवासरत स्तंभकार हैं)