मानवता के उपासक और सामाजिक समरसता के शाश्वत संदेश के वाहक थे परम संत रैदास
वेबडेस्क। महापुरुष अपना सर्वस्व समाज के लिए सौंप देने तथा सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए संघर्षरत रहने के कारण ही एक व्यक्ति से उठकर सामाजिक संस्था के रूप में स्थापित हो जाते हैं,व्यक्तिवादी स्वरूप से निकलकर विराट व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाते हैं। भक्ति काल में जन्मे संत रैदास मानवता के उपासक ही नहीं अपितु मानवतावादी मूल्यों की बुनियाद को मजबूत करने वाले समाज सुधारक थे।वे सामाजिक भेदभाव की समाप्ति तथा सामाजिक एकता के शाश्वत संदेश के वाहक थे।वे समतामूलक समाज के प्रबल समर्थक थे।उनके त्यागपूर्ण,आडम्बर रहित जीवन,उदारता व विनम्रता के कारण उन्हें हरिभक्त, गुरु, उपदेशक, समाज सुधारक, संत शिरोमणि के रूप में जाना जाता है। महापुरुषों के जीवन में जन्म के स्थान,जन्म की जाति, व्यवसाय आदि महत्व नहीं रखता वरन वे तो अपने त्याग- तपस्या और समाज को दिए गए योगदान के कारण ही महान बनते हैं।
संत रविदास को भारत के भिन्न-भिन्न राज्यों में भाषाई व्यवहार के कारण अलग अलग नाम से संबोधित किया जाना प्रतीत होता है परंतु एक वह एक ही है। पंजाब में रविदास ,उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में रैदास, गुजरात और महाराष्ट्र में रोहिदास, बंगाल में रूईदास तथा पुरानी पांडुलिपियों में रायदास, रेदास, रेमदास और रोदास नामों का उल्लेख भी पाया जाना भी जाता है। मान्यता है कि माघ पूर्णिमा को रविवार के दिन जन्म होने से उन्हें रविदास नाम मिला। माता-पिता ने उनकी परोपकारी गुणों के चलते परिवार से अलग कर दिया था। पत्नी लोना देवी के साथ गरीबी में जीवन बिताया। व्यवसाय जूता बनाना था जिसे वे बड़ी निष्ठा और तन्मयता से करते थे ।साधु संतों के लिए जूते तैयार करते रहते थे बिना किसी प्रतिदान अपेक्षा के उनकी सेवा में सौंप देते थे संत कबीर साहेब की प्रेरणा से उन्होंने वैष्णव भक्ति धारा के महान संत स्वामी रामदास के शिष्य बन कर उनसे ज्ञान प्राप्त किया। संत पीपा धन्ना जी कबीर दास जी भी स्वामी रामानंद के बताए जाते हैं। मीराबाई तथा चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी द्वारा उनका शिष्य ग्रहण करना उनके महान संत होने का परिचायक है।
मुगलों के शासन था अत्याचार अनाचार भ्रष्टाचार गरीबी अशिक्षा का अंधकार चारों ओर फैला हुआ था मुस्लिम शासकों का उद्देश्य हिंदुओं को मुस्लिम बनाना था संत रविदास की प्रसिद्धि सुनकर 'सदना' पीर उन्हें मुसलमान बनाने के लिए आए। उनका लोभ था कि यदि संत रविदास मुसलमान बन जाते हैं तो लाखों लोग उनके कारण एक साथ मुस्लिम बन जाएंगे, लेकिन वे हिंदू- मुस्लिम की भेद दृष्टि से परे केवल मानवता से मतलब रखते थे। उनकी दृष्टि में सामाजिक भेदभाव के जितने भी उपक्रम हैं, वह विनाशक हैं। इसलिए उन्होने ''अयं निज:परोवेति गणना लघुचेतसाम्।उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।'' को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व का आधार बनाया। जाति व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया उनका कहना था कि जन्म से कोई छोटा बड़ा ऊंच-नीच नहीं होता है ।व्यक्ति अपने कर्मों, आचरण और व्यवहार से महान बनता है। रविदास जन्म के कारणें होत न कोई नीच।
नर को नीचे करि डारिहें ओछे कर्म की कीच।।
उनके उपदेश रैदास ग्रंथावली में संग्रहित हैं।डॉ.रामकुमार वर्मा के खंडकाव्य "परम संत रैदास"में जाति व्यवस्था की विकृति के रूप में उपजी छुआछूत की विसंगति को व्यक्त करती पंक्तियां उल्लेखनीय हैं जिनके माध्यम से संत शिरोमणि के समतामूलक समाज की स्थापना की तड़प प्रकट होती है-
"काट कर क्यों रख दिया यह अंग अपना।
देखते इसके बिना तुम कौन सपना ।।
क्यों उन्हें तुम दूर से ही दूरदुराते।
दूर हटते हो कि जब भी पास आते।।"
वे समष्टि के उद्घोषक थे- "प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी। प्रभु जी तुम दीपक हम बाती जाकी ज्योति जरै दिन-राती।।" परम संत रैदास के उपदेश, संदेश और सिद्धांत लोक कल्याण के लिए सार्वभौम व सर्वकालिक हैं,सर्वत्र,सदा -सर्वदा प्रासंगिक हैं और रहेंगे।