समाजवादी स्तम्भ का न रहना !
मुलायम सिंह यादव के निधन से लोहियावादी समतामूलक संघर्ष का एक बलिष्ट स्तम्भ नहीं रहा। इतिहास में चला गया। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में रिक्तता आ गयी। अलंकारिक अभिव्यक्ति में कहा जाये तो मुलायम सिंह यादव संघर्ष के पर्याय थे। व्यक्ति तो नाम मात्र का होता है। जब वे 1977 में इटावा से यूपी विधानसभा पहुंचे थे तो रामनरेश यादव मुख्यमंत्री थे। इन दोनों यादवों में गहरा अंतर था। एक जनपद-स्तरीय वकील था। मगर चौधरी चरण सिंह और राजनारायण के आंकलन में बड़ा था क्योंकि वे आगे चलकर नेतृत्व को चुनौती नहीं बन सकते थे। अतः रामनरेश यादव सुगमता से मुख्यमंत्री बन गये। ''पहलवान'' मुलायम सिंह यादव को प्रतीक्षा करनी पड़ी।
करीब ग्यारह वर्ष लगे मुलायम सिंह यादव को। अवसर आया 1989 में जब कांग्रेस परास्त हो गयी। पंडित नारायणदत्त तिवारी के नेतृत्ववाली कांग्रेस अपदस्थ हो गयी। मगर यह शीर्ष पद मुलायम सिंह को सरलता से नहीं मिला। तब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने चहेते चौधरी अजित सिंह को चाहते थे। विधायक दल द्वारा नेता के चयन का कार्यक्रम बना। सीधी टक्कर थी मुलायम सिंह बनाम अजित सिंह के बीच। तब जनता दल के केन्द्रीय पर्यटक थे चिमनभाई पटेल जो गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे। जब मैं अहमदाबाद में ''टाइम्स आफ इंडिया'' का संवाददाता था तो चिमनभाई से आत्मीयता हो गयी थी। मुलायम सिंह जी को यह बात ज्ञात थी। अपने मन की बात मुझे बता दी। कार्य सौंपा।
चिमनभाई लखनऊ मेल से चारबाग स्टेशन पहुंचे। प्लेटफार्म पर ही उन्हें लेकर स्टेशन अधीक्षक के कक्ष में ले गया। सैकड़ो पार्टीजन भी मुझ अनजाने व्यक्ति को घूर रहे थे कि यह अदना शख्स है कौन ? वहां मैंने चिमनभाई से केवल एक ही बात कही: ''आप खेडूत (किसान) पुत्र हैं। मुलायम सिंह भी आप के सदृश हैं। यह सत्पुरूष अजित सिंह अमेरिका से सीधे पधारे हैं, हवाई मार्ग से। अजित और घनश्याम ओझा में साम्य है। इंदिरा गांधी के चेले ओझा को हराकर चिमनभाई गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। यह तुलना कारगर हुयी। चुनाव सीधा हुआ। हालांकि प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पूरा दमखम चौधरी अजित सिंह के लिये लगा दिया था। यह सारा माजरा मुलायम सिंह समझ गये थे। वे लोहिया के कट्टर समर्थक थे और लोहिया हमारे प्रणेता रहे। फिलहाल केन्द्रीय नेतृत्व का दबाव पर्यवेक्षक चिमनभाई पर कतई नहीं पड़ा। आगे का इतिहास जानामाना है।
तभी मुख्यमंत्री बन कर मुलायम सिंह ने एक उपकार किया। वरिष्ठ आईएएस अधिकार नृपेन्द्र मिश्र उनके सचिव थे। मेरा आग्रह था कि लोहिया की जयंती यादगार ढंग से मनायी जाये। उसी वक्त मुलायम सिंह यादव ने कई जनोन्मुखी योजनायें लागू की। जयंती की तारीख थी 23 मार्च, जो डा. लोहिया कभी नहीं मनाते थे। कारण ? उसी तारीख को भगत सिंह को उनके साथियों के साथ फांसी दी गयी थी।
लेकिन राम मंदिर आंदोलन के जनसमर्थन का मुलायम सिंह सही आंकलन नहीं कर पाये। फिर उठापटक हुयी। भाजपा सत्ता पर आ गयी। मगर वाह रे मुलायम सिंह जी ! कुश्ती में माहिर, वे नया दांव चले और शीघ्र सत्ता पर फिर आ गये। पर मायावती और कांशीराम का कुटिल दांव नहीं भाप पाये। तबसे सारे समीकरण बदल गये।
मुलायम सिंह यादव को याद किया जायेगा यूपी शासन में हिन्दी प्रसार और अलाभकारी जोतों पर कर में छूट हेतु। हिन्दी पर उनकी जिद का तो मेरा निजी अनुभव है। अंग्रेजी दैनिक का संवाददाता होने के कारण मैं सरकारी आवास आवंटन की दरख्वास्त अंग्रेजी में टाइप करके ले गया। पहले तो मुलायम सिंह यादव ने लेने से इंकार कर दिया। किन्तु मेरी बेबसी समझ गये। बोले: ''आखिरीबार यह अंग्रेजी में पत्र ले रहा हूं। याद रखिये।'' मैंने भी प्रण कर लिया। आखिर 1957 में हम सब लखनऊ विश्वविद्यालय के ''अंग्रेजी हटाओ'' आंदोलन की उपज रहे थे। सीमांत किसानों पर थोपे गये अवांछनीय कर का तो खुद लोहिया ने 1953 विरोध किया था और जेल भी गये थे। सोशलिस्टो का नारा था: ''जिन जोतो पर लाभ नहीं, उनपर लगे लगान नहीं।'' अर्थात अपने ही जनांदोलन को मुलायम सिंह कैसे अपमानित करते ?
मुलायम सिंह यादव के प्रति भारत राष्ट्र तथा हर लोकतंत्रप्रेमी सदैव आभारी रहेगा क्योंकि उनकी वजह से एक यूरेशियन महिला (सोनिया गांधी) भारत की प्रधानमंत्री नहीं बन पायी। तब सोनिया ने राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के समक्ष दावा पेश (21 अप्रैल 1999) किया था। नारायणन तो जवाहरलाल द्वारा मनोनीत विदेश सेवा अफसर थे। कुटुंब के झंडाबरदार रहे। शपथ ग्रहण की राष्ट्रपति भवन में तब तैयारी भी हो गयी थी। सोनिया गांधी की मां और अन्य संबंधी भी रोम से नयी दिल्ली पहुंच गये थे। मगर उसी वक्त मुलायम सिंह यादव जॉर्ज फर्नांडिस के घर पहुंचे तथा बताया कि समाजवादी सांसद सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने वाले प्रस्ताव का विरोध करेंगे। राष्ट्रपति नारायणन को विवश होकर सोनिया को बताना पड़ा कि उनके द्वारा दी गयी सांसदों की सूची में समाजवादी सदस्यों की संख्या काटने के बाद उनका बहुमत खत्म हो गया। अर्थात मुलायम सिंह यादव ने मशहूर चरखा दांव चला और सोनिया चारो खाने पस्त हो गयीं। उसी दौर में विक्रमादित्य मार्ग पर स्थित समाजवादी पार्टी कार्यालय में एक जनसभा थी। मैं भी वक्ताओं में था। एक ही वाक्य में सारांश कहा मैंने: ''मुलायम सिंह जी, आपने भारत को दूसरी बार यूरोपियन गुलामी से बचा लिया।'' श्रोता प्रमुदित थे।
मुलायम सिंह यादव मुझे सदैव प्रिय रहेंगे क्योंकि वे हमारे हमदर्द रहे। वे याद करते रहे कि उनके नेता जॉर्ज फर्नांडिस और मैं फांसी की सजा निश्चित पाते यदि इंदिरा गांधी मार्च 1977 में राय बरेली सीट फिर जीत जाती। हम दोनों बड़ौदा डाइनामाइट केस में अभियुक्त प्रथम व द्वितीय थे। अर्थात मुलायम हमारी भयावह नियति के प्रति संवेदनशील रहे। आखिर तक।