हिन्दुस्थान का सेक्यूलरिज़्म अब मुसलमानों के ही भरोसे है
वेबडेस्क। हिन्दुस्थान के संबंध में देशी-विदेशी बुद्धिवादियों के चयनात्मक नैरेटिव अब स्पष्ट रूप-रेखांकन के साथ अभिव्यक्त होने लगे हैं। यह बात और है कि अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य पर मंडराते अदृश्य खतरों (?) का ढिंढोरा भी अनवरत पीटा जाता है। हिन्दुस्थान में भयंकर स्वतंत्रता है कि डरे-सताये-भटके हुये तथाकथित अल्पसंख्यकों में ख़ास-ओ-आम मनोवांछित लिख सकता है। जबकि हिन्दुस्थान के पड़ोसी कामरेड देश में सबकी घिग्घी न जाने क्यों बंध जाती है?
वहीं, हिन्दुस्थान में अल्पसंख्यकों के विस्फोटक व कपोलकल्पित मंतव्यों पर कटाक्ष करनेवालों को प्रतिक्रियावादी, हिन्दुत्ववादी, फासिस्ट, गोडसे की नाजायज़ औलादें इत्यादि कहा जाता है। गोया अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य केवल विशेष वर्ग के लिए ही आरक्षित है। किन्हीं परिस्थितियों में मामला अतिगंभीर हो जाए, तो बचावात्मक दृष्टि से 'तुरुप का पत्ता' - 'मुझे निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि अल्पसंख्यक हूँ' (विक्टिमहूड) उपयोगी सिद्ध होता है। देशी-विदेशी सेक्युलर मीडिया ऐसे मामले को युद्ध स्तर पर अतिचर्चित बना देता है।
भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी द्वारा 'दैनिक भास्कर' को दिये गये साक्षात्कार में कई अंतर्विरोध हैं। उनकी पुस्तक 'दि पापुलेशन मिथ : इस्लाम, फैमिली प्लानिंग एण्ड पॉलिटिक्स इन इंडिया' चयनात्मक नैरेटिव सेट करने में सफल रही है। साक्षात्कार भी अंतर्विरोधात्मक व विवादास्पद है। प्रस्तावना में लिखा है, "सोचा था मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो गई, तो मैं देश का प्रधानमंत्री बनूँगा, लेकिन जब जनसंख्या के जानकारों से पूछा तो वे बोले कि अगले 1000 साल तक तो यह नहीं हो सकता।"
कुरैशी जैसे बुद्धिवादी व्यंग्योक्तियों के सहारे प्रहार करते हैं। उपरोक्त कथन को व्यंग्यात्मक मान भी लिया जाए, तब भी यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि स्वाभाविक दृष्टि से सेक्युलर हिन्दुस्थान में व्यंग्य ही व्यंग्य में आबादी की ओट लिए प्रधानमंत्रीत्व का स्वप्न क्योंकर देखा-परोसा जा रहा है? क्या मुसलमानों का प्रधानमंत्री न बन पाना, अब खलने लगा है? उल्लेखनीय है कि पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने एक सांप्रदायिक मुस्लिम नेता की तरह बात कर अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती कपोलकल्पित असहिष्णुता का ढिंढोरा पीटा था। समय-समय पर ऐसे रागालाप भीषण विखंडन की ओर संकेत करते हैं। जबकि मजहबी अल्पसंख्यकों की अराजकता पर चयनात्मक मौन धारण कर लेते हैं। उदाहरणतः कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार पर सभी मौन हैं अथवा निर्धारित राग अलाप रहे हैं।
कुरैशी मुसलमानों की एकाधिक शादियाँ और अधिकाधिक बच्चे पैदा करने को 'प्रोपगेंड़ा' बताते हैं और यह भी मानते हैं कि "मुसलमानों में फैमिली प्लानिंग सबसे कम है।" (?) यदि 'फैमिली प्लानिंग सबसे कम' है, तो अधिकाधिक बच्चे पैदा करनेवाला मामला किस प्रकार 'प्रोपगेंडा' हो सकता है? मुसलमानों के बहुविवाह पर तर्क दिया है कि मुसलमानों का एकाधिक शादियाँ करना "जनसंख्या के लिए अच्छा है।" (?) क्योंकि "दो औरतों की दो मर्दों से शादी होती, तो ज्यादा बच्चे होते। एक मर्द से दो औरतों ने शादी की, तो कम बच्चे पैदा करेंगे।" इस प्रकार इस्लाम में बहुपत्नीत्व को प्रमाणित करते हैं और एक विवाह कर ज्यादा बच्चे पैदा करने का नुस्खा देते हैं। संभवतः स्त्रीवादी विमर्शकार इस कथन व वैचारिक दिवालियापन का बेहतर विश्लेषण कर सकेंगे।
मुसलमानों के वैक्सीनेशन विरोध के संबंध में मज़ेदार तर्क दिया है, "इन्होंने कहा कि ये टीके लगवाने से बच्चे नहीं पैदा कर पाएँगे और फिर वैक्सीन नहीं लगवाई।" अर्थात् सारा मामला घूम-फिरकर बच्चे पैदा करने पर ही आकर जाता है। ऐसा प्रतीत होता है, बच्चे पैदा करना ही इनका चरम लक्ष्य है। गोया स्त्री बच्चे पैदा करने की मशीन हो।
'तीन तलाक' पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि "तीन तलाक का मुसलमान औरतों को नुकसान ही हुआ है। शौहर को जेल हुई, तो बच्चे भूखे मर जायेंगे।" विचित्र तर्क है! बीवी को तलाक देनेवाले शौहर को जेल होने से भला बच्चे भूखे कैसे मरेंगे? वह तलाक देकर तख़लिया कहते हुए अन्य के साथ अनन्य होकर देहलीला रचने चला ही जाता है। बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए वह होता ही कहाँ है? जबकि तीन तलाक क़ानून मुस्लिम महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करता है। संभवतः कुरैशी को मुस्लिम महिलाओं को दुर्दशाग्रस्त देखने में सुकून मिलता है।
'लव जिहाद' के संबंध में कहा कि "पढ़े-लिखे मुसलमान लड़कों को हिंदू पढ़ी-लिखी लड़कियाँ उड़ाकर ले जाती हैं।" अंतर्विरोध देखिए, ऐसे अधिकतर मामलों में लड़का जाहिल, अल्पशिक्षित या अशिक्षित ही पाया जाता है। उल्लेखनीय है कि पढ़े-लिखे मुस्लिम लड़कों को उड़ाकर ले जानीवाली पढ़ी-लिखी हिंदू लड़कियाँ अंततः इस्लाम कुबूल लेती हैं। कुरैशी का कहना है कि अधिकतर मामलों में लड़की 'अपने मुसलमान पति के साथ' ही जाना चाहती है। जबकि कई मामलों में यह उजागर हो चुका है कि मुसलमान पति हिंदू पत्नी के परिवार को हलाल करने की धमकी देकर उसे काबिल-ए-क़बूल बना देता है।
'द कश्मीर फाइल्स' के संदर्भ में कुरैशी ने कहा कि "जो काम आतंकवादी करना चाहते थे, वो काम अब ये फिल्म कर रही है।" उनकी दृष्टि में फ़िल्म और आतंकवादियों में कोई अंतर नहीं है। तब, विवेक अग्निहोत्री को आतंकवाद की ब्रैंड फैक्ट्री ही कहा जा सकता है, नहीं? कश्मीरी हिन्दुओं का दर्द कुरैशी की दृष्टि में गौण है, क्योंकि "पंडितों को मारा, तो मुसलमानों को भी मारा।" हर बात में उनका स्वाभाविक झुकाव मुसलमानों की ओर ही दिखायी देता है।
योगी आदित्यानाथ की जीत को कुरैशी ने 'सांप्रदायिकता की जीत' कहा है। इसे पोलराइजेशन का तीसरा फेज़ बताते हैं। उनके अनुसार पोलराइजेशन का पहला फेज देश विभाजन के समय हुआ। अर्थात् हिन्दू पोलराइज़ हुए। दूसरा, बाबरी के समय और तीसरा, इस चुनाव में। बताते हैं कि "देश की जनता को तेजी से सांप्रदायिक करवाया जा रहा है।" दूसरी ओर स्वीकारते भी हैं कि "भारत सेक्युलर है, क्योंकि हिंदू सेक्युलर हैं।" (?) जिस देश की जाति सेक्युलर हो, वह भला सांप्रदायिक कैसे होगी? कहा कि "बंटवारा हुआ तो पाकिस्तान मुसलमान देश बना, लेकिन भारत हिंदू देश नहीं, सेक्युलर देश बना।" यदि यह मान लिया जाए कि हिंदू सांप्रदायिक हो रहा है, तो प्रश्न उत्पन्न होता है कि भला क्योंकर हो रहा है? क्या एक कारण यह भी है कि कुरैशी, हामिद अंसारी जैसे ओहदेदार मुस्लिमपरस्त हैं?
'हिजाब विवाद' पर वे अपनी मुस्लिमपरस्ती की कलई स्वयं ही खोलते हैं - "हिजाब जरूरी है या नहीं ये जज साहब थोड़े ही बताएंगे, ये मौलाना बताएंगे। मौलाना आईपीसी के फैसले देने लगें, तो क्या ये सही होगा?" यह घनघोर विरोधाभास है। जबकि हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में न्यायालय सीधे दखल देता है। सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर मामले में निर्णय दिया। राम मंदिर का मामला भी न्यायालय से होकर ही निकला। ऐसे में, क्या मुस्लिम आईपीसी, संविधान और क़ानूनों को चयनात्मक रूप में ही स्वीकारना चाहते हैं? सेक्युलर हिन्दुओं के सांप्रदायिक होने में कहीं तथाकथित अल्पसंख्यकों को मिली विशेष 'लक्जरी' भी एक कारण तो नहीं?
स्पष्ट है, जब-जब कुरैशी व अंसारी जैसे कृतघ्न बुद्धिवादी चयनात्मक नैरेटिव रचेंगे, हिंदू सांप्रदायिक बनने को बाध्य होगा। इतने झंझावातों को झेलने के बाद हिन्दुओं में ऐसा परिवर्तन भला कैसे अस्वाभाविक हो सकता है? यदि समान नागरिक संहिता लागू नहीं होगी, हिंदू के दिन-ब-दिन सांप्रदायिक होने की संभावना बलवती हो सकती है। आखिरकार, एक ही देश के बाशिंदों के लिए अलग-अलग मापदंड क्योंकर होने चाहिए? अब कुरैशी जैसे बुद्धिवादियों को समान नागरिक संहिता का समर्थन करना चाहिए। यदि हिन्दुस्थान का मुसलमान प्रगतिशील होकर विचार एवं व्यवहार करेगा, हिन्दुस्थान सेक्युलर ही बना रहेगा। धीरे-धीरे सबकुछ मुसलमानों के चिंतन एवं व्यवहार पर निर्भर होता जा रहा है। मान्यवर कुरैशी जी, सोच बदलिए, देश बदलेगा!