'द काश्मीर फाइल्स' ने फिल्म निर्माण के नए मानक स्थापित कर दिये हैं

द काश्मीर फाइल्स ने फिल्म निर्माण के नए मानक स्थापित कर दिये हैं
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वेबडेस्क। यह बात मैं किसी तरह की पक्षधरता के चलते नहीं कह रहा हूँ लेकिन 'द काश्मीर फाइल्स' हिंदी सिनेमा का एक बड़ा प्रस्थान बिंदु है। अभी तक सिनेमा सिल्क स्मिता के शब्दों में 'एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट' के लिये होता आया है। यह फ़िल्म,इसके निर्माता-निर्देशक के नाम से ही संकेत ग्रहण करूँ तो कह सकता हूँ, विवेक है,(मनो)रंजन नहीं है। पूरी फ़िल्म एक तरह का अग्निहोत्र ही है।

सिनेमा एक तरह का पलायनवादी माध्यम माना जाता रहा है। लेकिन यहाँ वास्तव में आप एक पलायन का साक्षात्कार करते हैं और पाते हैं कि सिनेमा अब पलायनवादी नहीं रह गया। वह अपने समय की सच्चाइयों से साक्षात्कार करने का साहस भी दिखा रहा है। और यह काम फ़िल्म होने के निकष से किसी तरह की रियायत लिये बिना कर रहा है। यह एक ऐसे विषय पर फ़िल्म है जिसकी कोई आईकोनिक इमेज हमारे पास कभी न रही जबकि भोपाल गैस ट्रेजेडी पर है, असम के नरसंहार पर है, आर्मीनियाई नरसंहार पर है, रवांडा के नरसंहार पर है। लेकिन यह फ़िल्म उस घटना पर है जब इंसान ही नहीं, छवियों का भी संहार हुआ था।

ईमानदारी से कहूँ तो मैं ये सोच के गया था कि फ़िल्म का विषय तो अच्छा होगा लेकिन उसका सिनेमेटिक ट्रीटमेंट लचर और एकायामी होगा। अक्सर ऐसी फ़िल्में मुद्दे के तौर पर जितनी अच्छी होती हैं, कथागत तनाव के मामले में उतनी ढीली हो जाती हैं और अपना समर्थन और सहानुभूति विषय की मार्मिकता के आधार पर कमाने में व्यस्त हो जातीं हैं। यह फ़िल्म इसलिए दूर तक जायेगी कि इसमें कथावस्तु की प्रत्यंचा पूरी तरह से तनी और कसी हुई है। एकदम ग्रिपिंग।

इसकी एकायामिता को ख़त्म करने के लिए यहाँ नायक को यथार्थ के तट तक ले जाने वाले जो चार पाँच लोग दिखाये गये हैं, वे यह बताते हैं कि उस नरसंहार की भी एक अंतरानुशासनिकता( interdisciplinarity) थी। एक चीज जो प्रशासन के स्तर पर घट रही थी, वही मीडिया के स्तर पर भी घट रही थी, वह चिकित्सा के स्तर पर भी थी और कानून-व्यवस्था के स्तर पर भी। इससे एक तरह की बहुकोणीय ( ecumenical) समझ विकसित होती है और उससे अत्याचार का ठीकरा एक जगह पर नहीं फूटता। एक सरलीकृत उत्तर की जगह एक बड़ा, जटिल और समावेशी परिदृश्य सामने आता है।

इसे निर्देशन की ही सावधानी कहा जा सकता है कि कथा किसी एक परिवार की त्रासदी बनकर न रह जाये, इसलिए उस नायक के पारिवारिक प्रसंग को कहानी के क्लाईमेक्स के बाद प्रस्तुत किया गया है। जिस कथा के सहारे दर्शक का इन्वाल्वमेंट अंत तक बनाये रखा गया है- उसकी कारुणिकता कई बार दर्शक को सिर्फ़ इसलिए अपने अवधान को शिथिल कर लेने के लिए बाध्य कर सकती थी कि वह दर्शक की भी निरुपायता को हाइलाइट करने वाली है। सिर्फ़ नायक ही अंत में अनलहक़ की बात कहते हुए असहाय नहीं महसूस करता, बल्कि अंत के दृश्य से वह पैथोस सब पर तारी हो जाता है।

मुंबइया फ़िल्म तो प्राय: वहाँ से शुरू होती जहां यह फ़िल्म ख़त्म हुई। यानी नायक के सामने अपने माँ बाप और भाई के हत्यारे का चेहरा साफ़ हो गया है और वह बदला लेने के लिए एक 'यादों की बारात' जैसी फ़िल्मी प्रतिक्रिया कर देता। वैसे अभी भी देर नहीं हुई और इसका कोई स्वतंत्र निर्माता यहीं से, इसी आख़िरी बिंदु से एक सीक्वेल उठा सकता है। लेकिन इस फ़िल्म में वैसी नाटकीयता इसलिए भी नहीं है कि नायक लौटता वहीं है जहां से ऐसे तत्त्वों को बौद्धिक खुराक उपलब्ध कराई जाती है, जहां मॉस मर्डरर को आज़ादी का लड़ाका बताया जाता है।

इसलिए यह हिंदी की पहली इंटेलेक्चुअल फ़िल्म है। आप ही बताइए कि कब आपने आख़िरी बार किसी हिंदी फ़िल्म में कश्यप ऋषि, भरत मुनि, विष्णु शर्मा, अभिनव गुप्त आदि के नाम सुने थे। हमारी फ़िल्में न जेनोसाइड की बात करतीं हैं न exodus की। हत्यारों के पैसों से कभी कभी बॉलीवुड में शांतिवादी फ़िल्में बनती हैं। शांति की चाशनी में यहाँ इतिहास की क्रूरताएँ, विद्रूपताएँ और विक्षिप्तताएँ डूब जाती हैं।

पहली बार कोई फ़िल्म ब्रेन-वाशिंग की मैकेनिक्स को इतने डिटेल्स में पकड़ती है। राधिका मेनन के चरित्र में मेनन शब्द मुझे परिचित-सा लगा। आख़िरकार हम 'द हिंदू' के पाठक रहे हैं। उससे पाठकों का सामान्य ज्ञान यानी जनरल नॉलेज अच्छा होता है। यूपीएससी की तैयारी करने वाला कोई भी बंदा इसकी पुष्टि करेगा।

जेनोसाइड के सच को जानकर नायक वहाँ लौटता है, जहां मेंटीसाइड करने वालों की भरमार है। उन mind-annihilating methods को इस तरह से दिखाने का कथा-चातुर्य बॉलीवुड के नामी गिरामी जौहरियों के पास कभी न आया न आ सकेगा। ऑरवेल राज्य-नियंत्रित ब्रेनवाशिंग की बात करता था। यहाँ non-state players के द्वारा किये जा रहे माइंड कंट्रोल को समझिये। नायक की लड़ाई अपने ही मस्तिष्क से है। हालाँकि नायक को लड़ना तो कुछ दूसरे दिमागों से चाहिए था। जैसे न्यू इंडियन एक्सप्रेस के शिलाजीत मित्र जी इसे ब्रेजन प्रोपेगंडा फ़िल्म कहते हैं। इंडियन एक्सप्रेस की शुभ्रा गुप्ता भी इसे प्रोपेगंडिस्ट फ़िल्म कहती हैं। इसका मतलब है कि मिर्ची सही जगह लगी है।पहली बार ही बात की और वह प्रोपेगंडा हो गया। और मेनन मैडम की बात तो शिक्षा हुई। और नरसंहार व पलायन करोलकल्पना। है न? फ़िल्म बनी ही इसलिए है। लेकिन नायक का तीन मिनट का मंच भी उन्हें नागवार गुजरता है जिन्होंने अपने एकतरफ़ा नैरेटिव के लिए तीन दशक ले लिये और जिन्हें फ़िल्म के क्लाईमेक्स में अमिताभ के उपदेशात्मक प्रवचन बड़े अच्छे लगते हैं।

विवेक अग्निहोत्री को यह श्रेय दिया ही जाना चाहिए कि ऐसे विषय को ट्रीट करते हुए उन्होंने इसकी अनुतान शोक की रखी है, आतंक की नहीं।थोड़ी सी असावधानी से यह एक 'हॉरर फ़िल्म' बन सकती थी। 'सारांश' से शुरूआत करने वाले अनुपम खेर फिर उन्हीं ऊंचाइयों पर पहुँचे हैं। खासकर जब स्वयं उनका पोता उनके अनुभव पर अविश्वास करता है, उस वक्त उनकी शिवरिंग। ऐसे समय कोई प्रोपेगंडिस्ट फ़िल्म होती तो वह पोलेमिक्स में उलझ सकती थी। लेकिन यह कॉंपना उसे गंभीर फ़िल्म बनाता है। वह डर से काँपना नहीं है, वह जैसे अपनी यंत्रणा के निरर्थक हो जाने से कॉंपना है। शरणार्थियों के सेटलमेंट शिविर में मंत्री के सामने उनका होना भी ऐसा ही एक मन को कँपाने वाला क्षण है। मुझे तब पता नहीं क्यों उस मंत्री में उन एक संत का चेहरा दिखा जिन्होंने भारत विभाजन के समय दिल्ली की मस्जिदों में ठहरे शरणार्थियों को भरी ठंड में मस्जिदों से बाहर निकलवा दिया था।

मुझे यह भी याद आया कि होलोकॉस्ट पर बनती जा रहीं फ़िल्मों पर रोक लगाने की अपील करने वाले एली वेसेल ने 1989 में कहा था : No one can now retell Auschwitz after Auschwitz. कश्मीरी पंडितों के दर्द की कहानी भी ऐसी ही है। फिर भी इसे कहने की कोशिश की गई, जितनी भी की गई, उतनी भी कुछ कम नहीं है। इस निर्देशक ने ताशकंद फाइल्स के बाद कश्मीर फाइल्स बनाकर भारतीय सिनेमा में एक नई शुरुआत की है। अवदमित का उद् घाटन करने की शुरुआत। मीडिया में ही नहीं, सिनेमा में भी डॉमिनेन्स का पता इससे चलता था कि किसका कितना ज़्यादा उल्लेख या वर्णन या निरूपण है। जो अनुपस्थित है, वह कमजोर है। ऐसी फ़िल्में उसी कमजोरी का निराकरण करतीं हैं। अब ऑंख खोलने वाली फ़िल्मों का समय आ गया है, सपनों की सौदागरी से कहीं आगे का समय। एक न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या के बावजूद इस नरसंहार को न्याय के सबसे उत्तुंग अधिष्ठान ने दोबारा खोलने से मना कर दिया था। क्या समय के प्रवाह मात्र में कोई ऐसी शक्ति होती है जो किसी जघन्यतम अपराध को कुछ दशकों बाद अपराध नहीं रहने देता?

वह जिसे दुबारा खोलने से सबसे ज़िम्मेदार लोगों ने मना कर दिया, उसके बारे में आँख खोलने वाली यह मास्टरक्लास फ़िल्म अब ऐसी ही फ़िल्मों के दरवाज़े भी खोलेगी। अब एक नये जॉनर, जिसे trauma cinema कह सकते हैं, की मूवीज़ भी बनने लगेंगी। ऐसी फ़िल्में आम दर्शक को मूव करतीं हैं। किसी प्रभावोत्पादकता के अर्थ में नहीं बल्कि उस घटना का साक्षी बनने के लिए जिसके नुकूश मिटा दिये गये हैं। इसी अर्थ में इनका मूवी नाम होना सार्थक होता है। कि जहाँ दर्शक यातनाओं का उपभोक्ता( consumer) नहीं है और अत्याचार झेलने वाले वे काश्मीरी पंडित भी आब्जेक्टिफाइड नहीं हुए हैं। पुष्करनाथ जी ( अनुपम खेर) को डिमेंशिया हो जाता है, पर यह फ़िल्म दर्शकों को एक ज़रूरी स्मृति लौटा देती है।

धारा 370 हटती है किन्तु पुष्करनाथ जी जैसे उन सबके पार जा चुके हैं। डिमेंशिया के कारण। मुझे 'अ क्राई इन द डार्क' फ़िल्म की याद आई जिसमें नायिका मेरिल स्ट्रिप को रिलीफ़ तो मिलती है मगर तब तक वो पत्थर हो चुकी होती है और अपने निर्दोष पाये जाने की ख़बर का उस पर कोई असर नहीं होता।सोचता हूँ ऐसे कितने संघात हैं जिनकी याददाश्त चली गई है। क्या कभी चितपावन ब्राह्मण याद आयेंगे जैसे अभी काश्मीरी पंडित याद आये। लाँग टर्म मेमोरी लॉस के कितने ही प्रकरण, कितने ही प्रसंग।

(लेखक मध्य प्रदेश के सेवनानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं और भोपाल से प्रकाशित हिंदी मासिक अक्षरा के संपादक हैं)

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