साम्प्रदायिकता के लाञ्छन और वास्तविकता

साम्प्रदायिकता के लाञ्छन और वास्तविकता
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वामपन्थी विचारकों द्वारा हिन्दुत्व को लेकर भारत के प्रति विचार किसी से छिपे नहीं, परन्तु इसमें दो राय नहीं कि ऐसा करते समय वे तथ्यों से अधिक अपने पूर्वाग्रहों को प्राथमिकता देना नहीं भूलते। वैसे तो इस तरह की कोशिश पहले भी होती रही हैं परन्तु पिछले सात सालों के दौरान इस तरह के प्रयासों में तेजी देखने को मिल रही है। तमाम तरह के दुष्प्रचारों के बीच देश की स्थिति बताती है कि यहां पिछले पांच सालों में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति में सुधार हुआ है। केवल दंगे ही कम नहीं हुए बल्कि दंगाइयों, फसादियों को सजा दिए जाने की दर में भी सुधार हुआ है। देश के कई उन हिस्सों में भी साम्प्रदायिक टकराव लगभग समाप्त हो गया जो कभी संवेदनशील माने जाते रहे हैं। परन्तु इसके बावजूद भारत के खिलाफ दुष्प्रचार जारी है।

दुनिया के जाने-माने वामपन्थी चिन्तक नॉम चोमस्की ने भारत में कथित इस्लामोफोबिया बढऩे को लेकर चिन्ता जताते हुए मोदी सरकार पर धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को खत्म करने का आरोप लगाया है। चोम्सकी ने 'भारत में नफरत भरे भाषण और हिंसा को लेकर खराब होती स्थिति' पर एक विशेष चर्चा के दौरान ये बातें कहीं। भारत में साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर अमेरिका के प्रवासी संगठनों ने एक महीने में ये तीसरी बार चर्चा आयोजित की। इसमें चोमस्की ने कहा, ''इस्लामोफोबिया का प्रभाव पूरे पश्चिम में बढ़ रहा है और भारत में अपना सबसे घातक रूप ले रहा है, जहां नरेन्द्र मोदी की सरकार भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को व्यवस्थित रूप से खत्म कर रही है और वे हिन्दू राष्ट्र बना रहे हैं।'' उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की भी बात की। इसी चर्चा में सामाजिक कार्यकर्ता वामपन्थी विचारक हर्ष मन्दर ने अपने वीडियो सन्देश में कहा, ''भारत आज खुद को भय और घृणा के एक भयावह अन्धेरे और हिंसा में पाता है।'' चर्चा का आयोजन 17 संगठनों ने किया था। दूसरी तरफ देश की जानी-मानी वामपन्थी लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरुन्धति रॉय ने 'द वायर' के लिए करण थापर को दिए साक्षात्कार में मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा है। अरुन्धति ने कहा है कि हिन्दू राष्ट्रवाद की सोच विभाजनकारी है और देश की जनता इसे कामयाब नहीं होने देगी। उन्होंने देश में हिंसा बढऩे के भी आरोप लगाए। उक्त वामपन्थी विषवमन ने अन्तार्राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी हैं जिससे दुनिया भर में भारत की छवि को आघात लगा है और विदेश मन्त्रालय को वक्तव्य जारी कर इसका खण्डन करना पड़ा है।

इस वामपन्थी दुष्प्रचार के विपरीत तथ्य कुछ और ही दृश्य प्रस्तुत करते हैं। राज्यसभा में गृह मन्त्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ सालों में देश में न केवल साम्प्रदायिक दंगों में कमी आई है, बल्कि पहले की तुलना में ज्यादा संख्या में दंगाईयों को सजा भी मिली है। आज से करीब तीन से चार साल पहले केवल 2 से 3 प्रतिशत लोगों को ही अदालत से सजा मिल पाती थी। वहीं, अब यह संख्या बढक़र 10 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गई है। इन आंकड़ों के अनुसार, देश में पिछले 5 साल में 3,399 दंगे हुए। साल 2020 में देश में दंगों के कुल 857 मामले दर्ज हुई, जिसमें सिर्फ दिल्ली में ही 520 (61 प्रतिशत) मामले दर्ज किए गए। यदि दिल्ली में इतने बड़े पैमाने पर दंगे नहीं होते तो 5 साल में देश में सबसे कम दंगों का रिकार्ड होता। वहीं, 2020 से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, गोवा, हिमाचल प्रदेश, केरल, मणीपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम, त्रिपुरा समेत कुछ केन्द्र शासित प्रदेशों में एक भी दंगों के मामले सामने नहीं आए। पिछले 5 साल में दंगों के सबसे अधिक मामले बिहार से आए। वहां 721 मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा दिल्ली में 521, हरियाणा में 421 और महाराष्ट्र में दंगों के 295 मामले दर्ज हुए। इनमें गिरफ्तार हुए आरोपियों की संख्या भी बढ़ी है। 2016 में दंगों के मामले में 1.42 प्रतिशत लोगों की गिरफ्तारी हुई। वहीं, 2017 में 2.44 प्रतिशत, 2018 में 4.08 प्रतिशत, 2019 में 13.80 प्रतिशत और 2020 में गिरफ्तार किए गए आरोपियों में से 11.10 प्रतिशत दोषियों को न्यायालय से सजा मिल चुकी है।

देश पर धरातल की सच्चाई प्रदर्शित करते यह आंकड़े वास्तव में उत्सावद्र्धक हैं और नई उम्मीद भी पैदा करते हैं। हिंसा और साम्प्रदायिक तनाव का असर केवल सामाजिक तौर पर नहीं ंपड़ता बल्कि इससे देश की अर्थव्यवस्था व विकास भी प्रभावित होता है। कोई निवेशक चाहे वो अपने देश का हो या विदेशी हिंसाग्रस्त क्षेत्र में पूंजीनिवेश करने का खतरा मोल नहीं रहता। इसका सीधा असर देश के विकास व रोजगार पर पड़ता है। साम्प्रदायिकता की दृष्टि से किसी समय उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में इस तरह के टकराव कम होने का ही असर है कि अतीत में बिमारू राज्यों में शामिल किए जाने वाले इन राज्यों की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती दिख रही है। इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था में सुधार का पैमाना यह भी है कि देश के सम्पन्न कहे जाने वाले राज्यों जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा इत्यादि में इन्हीं प्रदेशों के श्रमिकों की संख्या अधिक रहती है परन्तु पिछले कुछ समय से यहां से मजदूरों की आवक में कमी देखने को मिली है। पंजाब में कृषि से लेकर उद्योग चलाने के लिए उत्तर प्रदेश व बिहार की श्रम शक्ति की जरूरत पड़ती है परन्तु अब इसकी कमी महसूस की जाने लगी है। स्वभाविक है कि जब हिंसा, अपराध कम होंगे व साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित होगा तो देश का विकास होगा ही।

देश की जमीन से उखड़े वामपन्थी विचारकों को सोचना चाहिए कि उनका दुष्प्रचार किस तरह न केवल भारत की छवि धुमिल करने का काम करता है बल्कि विकास में भी बाधा पैदा करता है। विकास में आई रुकावट उसी गरीब को भारी पड़ती है जिसके कल्याण की झण्डाबरदारी वामपन्थी करते आए हैं। देश में कहीं साम्प्रदायिकता की आग फैलती है तो उसके खिलाफ आवाज उठाना, समस्या का समाधान करना हर नागरिक का दायित्व है। इसके लिए व्यवस्था की कमी को भी आगे लाया जाना ही चाहिए परन्तु ऐसा करते समय न केवल दुराग्रहों से बचना चाहिए बल्कि तथ्यों की भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

- राकेश सैन, जालन्धर, पंजाब

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