तिरंगे का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान
राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा
तिरंगा इस देश की आन-बान और शान का प्रतीक है। तिरंगे का अपमान यह देश बर्दाश्त नहीं कर सकता। देश है तो राजनीति है, किसानी है, व्यापार है, संगठन है। देश नहीं तो कुछ भी नहीं। देश के धैर्य को चुनौती देने वालों पर परम सख्त होने का समय आ गया है। देश का किसान भोला है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इतना भी भोला नहीं कि वह अपना अच्छा और बुरा न समझे। आंदोलनकारी भी जानते हैं कि देश का 95 प्रतिशत किसान अपने खेतों और घरों में हैं। कुछ मु_ी भर बड़े किसान, आढ़तिए और उन्हें समर्थन दे रहे राजनीतिक दल इस आंदोलन को खाद-पानी दे रहे थे। जिनने किसानों का कभी लाभ नहीं किया, वे भी उनकी रहनुमाई में पीछे नहीं रहे।
किसी भी संप्रदाय का ध्वज, तिरंगे की जगह नहीं ले सकता। देश बड़ा है, न कि संप्रदाय। लाल किले पर जिस तरह खालसा पंथ का झंडा फहराया गया, गणतंत्र दिवस के अवसर पर किसानों की ट्रैक्टर परेड में शामिल उन्मादियों ने जिस तरह का उपद्रव किया, उसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है। इस बात के खुफिया इनपुट पहले से ही मिल रहे थे कि किसानों के आंदोलन में खालिस्तानी आतंकी घुस आए हैं। इसके बाद भी उपद्रव को लेकर सजग न रहना दिल्ली पुलिस की सबसे बड़ी विफलता है।
पहली बात तो यह कि किसानों को गणतंत्र दिवस पर रैली निकालने की इजाजत ही नहीं देनी चाहिए थी। अगर इजाजत दी गई तो फिर सुरक्षा प्रबंधों के व्यापक बंदोबस्त भी किए जाने चाहिए थे। दिल्ली में जो कुछ भी हुआ, उसकी जिम्मेदारी से पुलिस भी बच नहीं सकती। किसान आंदोलन के बहाने राजनीतिक दल जिस तरह देश को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, मोदी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं, वह भी किसी से छिपा नहीं है। लाल किले में किसानों के वेश में उपद्रवियों ने जिस तरह लाठी-डंडों, फरसों, भालों और तलवारों का प्रयोग कर दिल्ली पुलिस के 300 से अधिक जवानों और अधिकारियों को घायल किया, उससे किसान आंदोलन तो कमजोर हुआ ही, देश भी शर्मसार हुआ है। पाकिस्तानी मीडिया में भारतीय लोकतंत्र की जिस तरह आलोचना हुई, उसके लिए इस देश की राजनीति ही बहुत हद तक जिम्मेदार है।
उन्मादी ताकतें लाल किला के अंदर तक कैसे पहुंची और उन्होंने राष्ट्रीय गरिमा को किस-तरह तार-तार किया, वहां तैनात सुरक्षा बल क्या कर रहा था, इन सारे संदर्भों की जांच की जानी चाहिए। जब सरकार ने केवल 25 हजार किसानों और पांच हजार ट्रैक्टरों को ही परेड में शामिल होने की अनुमति दी थी तो ट्रैक्टर ट्रॉलियां लेकर लाखों लोग दिल्ली में कैसे पहुंच गए? उनके पास असलहे कहां से आए? दिल्ली में हुई इस शर्मनाक घटना ने किसान आंदोलन के नेताओं की मंशा पर ही सवाल खड़े कर दिए गए हैं।
किसानों के बीच 26 जनवरी पर देश को नीचा दिखाने की क्या योजना बन रही है, ऐसा नहीं कि उन्हें पता नहीं था। उन नेताओं को तो इस उन्मादी हरकत के लिए जवाबदेह होना ही पड़ेगा जिन्होंने कहा था कि डंडा लेकर ट्रैक्टर परेड में जाओ और अब वे दिल्ली पुलिस से किसानों के ट्रैक्टरों को हुए नुकसान की भरपाई की मांग कर रहे हैं। किसानों को भोला बता रहे हैं। दिल्ली पुलिस पर उन्हें गुमराह करने की बात कर रहे हैं। ऐसे किसान नेताओं पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। उन्हें बताया जाना चाहिए कि देश का किसान वाकई भोला है, वर्ना उसका नेतृत्व करने वाले लोग चंद सालों में ही अरबपति कैसे हो जाते और किसान की आय दोगुनी करने की सरकार को मशक्कत क्यों करनी पड़ती?
जिन नेताओं ने दिल्ली पुलिस को आश्वस्त किया था कि वे किसानों का शांतिपूर्वक मार्च निकालेंगे। कायदतन तो उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया जाना चाहिए। दिल्ली पुलिस ने वहां हुई हिंसक घटना के लिए 22 प्राथमिकियां दर्ज की हैं। इनमें कुछ किसान नेता भी शामिल हैं। सरकार को इस बात का पता लगाना चाहिए कि किसानों को आंदोलन और हिंसक वारदात के लिए उकसाने वाले कौन हैं? उन सूत्रधारों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
वैसे कांग्रेस इस घटना के बाद भी अपनी शातिराना हरकतों से बाज नहीं आ रही है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री को विनम्र बने रहने की नसीहत दे रहे हैं। साथ ही यह भी कह रहे हैं कि उन्हें तीनों कृषि कानून वापस ले ले लेने चाहिए। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह को दिल्ली में हुई हिंसा में सरकारी कर्मचारियों और आरएसएस का हाथ नजर आ रहा है। एक खबर यह भी आ रही है कि खालिस्तानी नेता ने लालकिला पर खालसा ध्वज फहराने वाले को सवा दो लाख यूएस डॉलर और उसके मामले को विदेशी अदालतों में ट्रांसफर कराने तथा उन्हें विदेशी नागरिकता देने की घोषणा कर रखी थी।
किसान संगठनों ने एक-एक कर जिस तरह आंदोलन खत्म करना शुरू किया है, उसका मतलब साफ है कि इस घटना के बाद सरकार अब चुप रहने वाली नहीं है। दिल्ली हिंसा के दोषी बख्शे नहीं जाएंगे, इसके संकेत मिलने लगे हैं। जिस तरह केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की मैराथन बैठक हुई, उससे भी इस बात के संदेश तो जनता के बीच गए ही हैं।
विपक्ष से आवाज आ रही है कि लाल किले पर खालसा पंथ का झंडा लगा रहे उपद्रवी तत्वों को पुलिस ने गोली क्यों नहीं मारी? विपक्ष तो यही चाह रहा था कि सरकार उत्तेजित हो। दिल्ली में गोलियां चले और वे अपनी रोटियां सेकें। मोदी सरकार ने परम धैर्य के साथ काम लिया। पुलिस ने किसानों पर जवाबी कार्रवाई नहीं की। जो लोग किसानों के आंदोलन को बदनाम करने का आरोप लगा रहे हैं, वे तो तब भी यही आरोप लगा रहे थे कि किसानों को खालिस्तानी बताया जा रहा है। किसानों का आंदोलन अगर वाकई अहिंसक था तो उसमें हिंसक तत्व कैसे घुस आए, इसका जवाब न तो किसान नेताओं के पास है और न ही उनकी तरफदारी कर रहे राजनीतिक दलों के पास।
इस मुद्दे पर सरकार को आर-पार का निर्णय करना ही होगा वर्ना जब भी कोई संगठन नाराज होगा, वह लाल किले, प्रधानमंत्री आवास और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लेगा। जो कुछ हुआ, उसकी पुनरावृत्ति न हो, इसका मुकम्मल बंदोबस्त किया जाना ही युगधर्म है। कोई भी धर्म देश से बड़ा नहीं हो सकता। अपने-अपने धर्म की रक्षा की जानी चाहिए लेकिन राष्ट्रधर्म और संविधान की अवहेलना करके नहीं, उसका समुचित सम्मान करते हुए।
(लेखक राष्ट्रीय चिंतक एवं विचारक हैं)