"अकस्मात बंद हो गयी मस्ती की मधुशाला"
हे ईश्वर, समय पर काल सवार हो गया है या काल पर समय ? सचमुच लगता है कि समय तो मानो हाथों में नश्तर ही लेकर आया है । खुशियों पर नश्तर, सेहत पर नश्तर, साँसों पर नश्तर, ज़िन्दगी पर भी नश्तर । कुदरत अपनी सारी हुनरमंदी किसी नश्तर के जरिये ही दिखाने पर उतारू हो रही है । इष्टों से लेकर विशिष्टों तक कोई उसके निशाने से बच नहीं पा रहा है । कुदरत की इसी क्रूरता के शिकार हो गए हमारे राजकुमारजी। याने डॉ राजकुमारजी जैन । एक बेलौस, बेफिक्र और जिंदादिल प्रचारक। जहाँ भी जाते या जहाँ भी रहते मानो वहाँ ज़िन्दगी ही खिलखिलाने लगती अपनी पूरी ठुमक, ताल और लय के साथ। उम्र के छठे दशक के अंतिम वर्ष में भी उनके भीतर एक मासूम सा बचपन साँसें भरता रहता था। वर्ष 1980-81 में वे भोपाल आये प्रचारक बनकर । उन दिनों हम लोग विद्यार्थी कार्यकर्ता थे। उस उम्र की तासीर के तक़ाज़ों के चलते हम अपनी मस्ती में रहते थे । ये मस्ती ही एक कॉमन फैक्टर बन गयी और तब राजकुमारजी से नेह का जो नाता जुड़ा वो बदस्तूर क़ायम रहा, उनकी आख़िरी साँस तक। वे भोपाल आये और तमाम नौजवानों की पूरी मण्डली ही उनके इर्दगिर्द हो गयी।
संघ का डटकर काम करना, अच्छी भरीपूरी तंदुरुस्त सायं शाखा चलाना, रात में मालीपुरे की दुकान में कड़ाह में खौलते दूध के गिलासों के साथ बेमतलब बातों की महफ़िल जमाना और फिर आधी रात घर लौटना। ये उन दिनों हमारा आये दिन का शेड्यूल था। भोपाल के आठों नगरों में हमारे हमउम्रों की बड़ी टोली थी। राजकुमारजी उस वर्तुल की धुरी थे। शाखाओं की संख्या, शाखाओं में स्वयंसेवकों की संख्या तथा कार्यक्रमों और उत्सवों की गुणवत्ता को लेकर वे हममें एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव भरते रहते थे । मुझे याद है , एक बार जुलाई के महीने में गुरुपूर्णिमा का उत्सव सदर मंज़िल में तय हुआ। लक्ष्य था उस हॉल को पूरा भरना । अस्सी के दशक के उन शुरुवाती वर्ष में समाज में कोई आज जैसी उत्स्फूर्त संघानुकूलता नहीं थी। खूब प्रयासों के चलते हमारे टोपे नगर याने तात्या टोपे नगर से तीन सौ से ऊपर युवा स्वयंसेवक उस उत्सव में पहुंचे । हम लोग बड़े खुश थे। महानगर में सबसे ज़्यादा संख्या हमारी थी। तब राजकुमारजी हमारे बीच आये और सैकड़ों स्वयंसेवकों के साथ उन्होंने खुद उदघोष किये ' एक सौ ना डेढ़ सौ, टोपे नगरी तीन सौ", और फिर डफली और नृत्य।
साहसिक कार्यक्रम, ट्रैकिंग और साईकल यात्राएं उन दिनों संघ का अटूट हिस्सा थीं। शायद 1985 में तत्कालीन सरसंघचालक पूज्य बालासाहेब देवरस जी का प्रान्त में प्रवास हुआ था । देवास में कार्यकर्ता सम्मेलन था । राजकुमारजी ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न हम महाविद्यालयीन कार्यकर्ता सायकिल से वहाँ चलें । फिर क्या था। माहौल बनना शुरू हुआ और हम 49 कार्यकर्ता साईकल से वहाँ गए। साथ में एक स्कूटर पर राजकुमारजी और महानगर के सायं कार्यवाह विभीषण सिंह जी । कल विभीषणजी से फ़ोन पर चर्चा हुई तो वे भी भीगे हुए शब्दों में इस यात्रा की चर्चा कर रहे थे । भोपाल से निकली हम 51 मस्तानों की ये अनुशासित टोली रास्ते भर लोगों के कौतुहल का विषय बनी रही। राजकुमारजी ने पूरी व्यवस्था जमायी थी । कोठरी में सरपंच जगदीश पटेल (अब स्वर्गीय) के यहाँ नाश्ता, मेहतवाड़ा में स्व. तखतसिंह जी के खेत में दाल बाफले, आष्टा की नदी में एक साथ सबका स्नान । दूसरे दिन बैठकें, शाम को पथसंचलन और फिर वापसी । तीन सौ किलोमीटर की वो यात्रा एक ऐसे आल्हादकारी अनुभव से साक्षात्कार करा गयी कि आज भी यादों में वो ऐसी ज़िंदा है मानो कल की ही बात हो ।
उनसे जुड़ीं न जाने कितनी यादें हैं । एक बार होली पर हम समिधा पहुँचे। होली के दिन कई संभ्रांत कार्यकर्ता हमें मानो बदनाम बस्ती के बाशिंदे ही मानने लगते थे। पता नहीं उस दिन क्या बात थी। हमें देखते ही राजकुमारजी भाग कर एक बाथरूम में छिप गए। ढूंढने पर भी न मिले तो तत्कालीन प्रांत प्रचारक स्व शरतजी मेहरोत्रा ने बाथरूम की ओर इशारा किया और बोले शिवाजी ने किले के किले ज़मींदोज़ कर दिये थे और तुमसे बाथरूम का दरवाजा नहीं टूट सकता ? ये इशारा काफी था। फिर तो दरवाज़ा टूटा और जो धमाल हुई वो हमारी यादों का बड़ा ही उजला हिस्सा है।
राजकुमारजी बेहद संवेदनशील व्यक्ति थे। मस्तमौला लेकिन कोमल हृदय। वे कहते थे कि संघदिल बनो संगदिल नहीं। संघ, दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं । लेकिन हँसी मज़ाक, चुटकुले, मस्ती उनका सहज स्वभाव था। उनके नज़दीक कोई उदास तो रह ही नहीं सकता था। जब तक वे भोपाल में रहे, अपनी निराशा और उदासी के पलों में मैं उनके पास पहुंच जाता और मन हरिया उठता । वे तो मस्ती की मधुशाला ही थे। मस्ती की पाठशाला भी। हर हाल में खुश कैसे रहा जाता है ये सिखाने वाले गुरुकुल के मानो वे कुलाधिपति ही थे। पूरा जीवन वे आनंद से जिये, गाते बजाते हँसते खिलखिलाते। अभी कुछ ही दिन पहले ग्वालियर में हारमोनियम पर गा रहे थे "मौत आनी है आएगी इक दिन, जान जानी है जाएगी इक दिन, ऐसी बातों से क्या घबराना"। लगता है कि यमराज ने इसे अपने खिलाफ चुनौती समझ लिया और मौत के लिफ़ाफ़े पर उनका पता लिख कर कोविड के वायरस को थमा दिया। एक निर्मल, निश्छल, निराकांक्ष और निस्पृह नंदादीप महाज्योति में विलीन हो गया। सादर श्रद्धांजलि।