बेरोजगारी.. मैकाले, गांधी और नव उदारवाद
स्वदेश वेबडेस्क। म ध्य-प्रदेश की विभिन्न जिला एव उच्च न्यायालयों में चपरासी एवं सफाई कर्मियों की भर्ती प्रक्रिया चल रही है। एक से लेकर एक दर्जन रित चपरासी एवं सफाई कर्मियों के पदों के लिए शिक्षित होने की पात्रता तो आठवीं एवं दसवीं है, लेकिन देखने में आ रहा है कि इन पदों को पाने के लिए इंटर, स्टेनो, स्नातक, स्नातकोार, एमबीए एवं इंजीनियर कतार में लग रहे हैं। महिलाओं की भी लंबी कतारें देखने में आ रही हैं। यह तस्वीर केवल मध्य-प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि इस आईने में समूचे देश की बेरोजगारी का अश देखा जा सकता है। देश में बेरोजगारी के आंकड़ों पर नजर रखने वाली सांस्था 'सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी ने बताया है कि दिसंबर 2021 में बेरोजगारी की दर बढ़कर 9.3 हो गई है। जबकि यही दर इसी साल अगस्त माह में 8.32 फीसदी थी। साफ है, बेरोजगारी सुरसामुख की तरह बढ़ रही है।
हरियाणा में बेरोजगारी की दर 35.7, राजस्थान में 26.7 और मध्य-प्रदेश में 3.5 फीसदी आई है। साफ है, कौशल प्रशीक्षण जैसे टोटकों और रोजगार मेलों से बेरोजगारी दूर होने वाली नहीं है। इसके लिए न केवल ठोस उपाय करने होंगे, बल्कि युवाओं को ज्ञान परंपरा से जोड़कर स्थानीय स्तर पर रोजगार सुलभ कराने होंगे। शिक्षा अथवा शिक्षित व्यित को एक साथ तीन काम करने होते हैं। राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना पैदा करना, सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना और समाज को युगीन परिस्थितियों के अनुरूप समाज परिवर्तन के लिए तैयार करना। समाज में व्याप्त शाश्वत मूल्यों को जीवंत बनाए बिना हम समाज और शिक्षा की मूलभूत अवधारणाओं की रक्षा नहीं कर सकते। बीते 75 सालों में हमने अपने पारंपरिक मूल्यों और ज्ञान परंपरा को नजर-अंदाज किया। महात्मा गांधी के आगाह के बावजूद शिक्षा को श्रमसाध्य बनाने का काम नहीं किया।
अतएव पढ़े-लिखे डिग्रीधारियों की निरक्षरता का खतरा बढ़ता जा रहा है। दरअसल उन डिग्रीधारियों को निरक्षर ही कहा जाएगा, जिनमें न तो पारंपरिक रोजगार से जुडऩे का साहस है, न अपनी भाषा का ज्ञान है और न ही अपने समाज की संरचना की समझ। जिनके पास यह ज्ञान और समझ है वे अंग्रेजी प्रभाव के चलते कुंठित, एकांगी और बेगाने से होकर निठल्ले हो गए हैं। ऐसे लोगों में राष्ट्रीय स्वाभिमान की ठसक का भी सर्वथा अभाव है। लिहाजा साक्षरता और शिक्षा के तमाम अभियानों के बावजूद डिग्रीधारी निरक्षरों का खतरा भयावह राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है।
भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों और विशाल जन समुदाय की मानसिकता के आधार पर यदि सार्थक शिक्षा के बारे में किसी ने सोचा था तो वे महात्मा गांधी थे। उनका कहना था, 'बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, आंख, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अयास और शिक्षण से ही हो सकती है। अर्थात् इंद्रियों के बुद्धिपरक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उच्चतम और लघुत्तम मार्ग खुलता है। परंतु जब मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जागृति न होती रहे, तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा।गांधी के सिद्धांत नैतिकता और अनुभवों को सर्वथा ताक पर रखकर हम आजादी के बाद पूरी शिक्षा पद्धतियों को बालक के एकांगी विकास में लगा दिया। जबकि ऐसी शिक्षा पद्धतियों को विकसित करना था, जिनसे बालक का संपूर्ण विकास संभव होता।
एकांगी शिक्षा को अपने आर्थिक हितों को साध्य बनाने की दृष्टि से पस्कूलों की अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ने बेवजह महत्व दिया। नतीजतन आज सुविधाजनक और आर्थिक सुरक्षा के लिए सरकारी अथवा लिमिटेड कंपनियों में नौकरी पाने वाले डिग्रीधारियों की लंबी कतारें लगी हैं। मोटी फीस वसूलने वाले प्राइवेट स्कूलों ने शासन की मंशा पालने वाले और साधारण दर्जे के विद्यालयों ने लिपिक व शिक्षक बनने की इच्छा रखने वाले डिग्रीधारियों की एक पूरी फौज तैयार कर दी है। उन लोगों के लिए न तो हमारे पास कागजी घोड़े दौड़ाने वाले रोजगारमूलक ऐसे सरकारी, गैर सरकारी उपक्रम हैं जिनमें इन्हें रोजगार दिया जा सके? इन डिग्रीधारियों की न ऐसी स्वेच्छा है जिससे ये स्थानीय अथवा क्षेत्रीय संसाधनों से लघु या कुटीर उद्योग स्थापित कर अपनी रोजी-रोटी के लिए साधन तैयार कर सकें।
हमारा यह शिक्षित वर्ग हल की मूठ पकड़कर की जाने वाली खेती को भी तैयार नहीं है। यदि गांधी के कहे अनुसार स्वतंत्रता के साथ ही शिक्षा को श्रम से जोड़ दिया जाता और शिक्षा को बालक के संपूर्ण विकास की अनिवार्य शर्त मान ली जाती, तो शिक्षा और रोजगार के बीच आज की तरह ये विडंबनापूर्ण स्थितियां निर्मित ही नहीं होती। गांधी का स्पष्ट मत था कि शालाओं में छह घंटे दी जाने वाली शिक्षा में से केवल दो घंटे किताबी ज्ञानार्जन के लिए निश्चित हों, शेष समय में छात्रगण श्रम आधारित कार्यों द्वारा सीखें। लेकिन हमने उनके कहे का अनुकरण करने की बजाय, उस मैकाले की शिक्षा पद्धति का अनुकरण किया जो हमारे दिमागों को गुलाम बनाने के लिए बेहद सोची-समझी साजिश के साथ लागू की गई थी। मैकाले ग्रेट ब्रिटेन का कोई ऐसा शिक्षाविद नहीं था, जिसने शिक्षा में वहां नए और मौलिक आयाम दिए हों? बल्कि वह आदतन आवारा और चालाक प्रवृत्ति का अधिकारी था। उसे बतौर सजा भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू करने के लिए भेजा गया था। 1854 में वुड का मशहूर डिस्पैच और मैकाले के मिनट ने भारत की धरती पर विदेशी शिक्षा का एक ऐसा बीज रोपा जिसने भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रसंगहीन पश्चिमी उत्कृष्टता और दीर्घकाल से चली आ रही भारतीय सभ्यता व संस्कृति के विरुद्ध हीनता की भावना पैदा करने की शुरूआत की। इस शिक्षा पद्धति से फिरंगी हुक्मरानो ने एक साथ दो लक्ष्यों की पूर्ति की।
एक ओर तो उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की कायमी की बरकरारी के लिए प्रशासक गढ़े, दूसरी ओर जनता में एक ऐसा वर्ग तैयार किया जो शासकों की भाषा अंग्रेजी समझता हो और उनके सांस्कृतिक मूल्यों का हिमायती बन जाए। जब यह वर्ग पाश्चात्य मूल्यों का पोषक हो गया तो मैकाले ने अंग्रेजी को बढ़ावा देने और औपनिवेशक सेवा के पदों के लिए उच्च शिक्षा पर जोर देने की सरकारी नीति अमल में लाना शुरू कर दी। इसके बाद हमारी पाठशालाएं पश्चिमी शिक्षा पद्धति का अनुसरण करने लगीं। फलस्वरूप पश्चिमी रौब-रूतबे में ढल चुका विद्यार्थी पारंपरिक शारीरिक श्रम और अनपढ़ जन समुदाय से कटता चला गया।
गांधी ने खुले शब्दों में कहा था, 'मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद रखी थी, उसने हमें गुलाम बना दिया। मेरा यह दृढ़ मत है कि अंग्रेजी शिक्षा जिस ढंग से दी गई है, उसने अंग्रेजी पढ़ेलि खे भारतीयों को स्वत्वहीन बना दिया है। भारतीय विद्यार्थियों के दिमाग पर बहुत जोर डाला है और हमें नकलची बना दिया है। गांधी ने 75 साल पहले ही शिक्षा को श्रम से जोडऩे के साथ उत्पादन से भी जोडऩे की बात भी कही थी। लेकिन मैकाले की शिक्षा प्रणाली के जरिये हुकमरान बने प्रशासकों के दिमाग कुंद, पूर्वाग्रही और राष्ट्रीय स्वाभिमान से अछूते रहे। इसलिए शिक्षा को उत्पादन से जोडऩे के पहलुओं को भी श्रम की तरह सर्वथा नजर-अंदाज कर दिया गया। वैसे शिक्षा को आरंभ में ही श्रम से जोड़ दिया जाता तो वह उत्पादन से स्वमेव जुड़ जाती। योंकि गांधी जी का श्रम से आशय केवल स्वास्थ्य सुधार संबंधी कसरतों से नहीं था। विद्यार्थियों के श्रम का उपयोग खेती, कताई और शालाओं के भवन व खेल मैदानों के निर्माणों से जुड़ा था। महाराष्ट्र में प्रसिद्ध समाजकर्मी श्री अन्ना हजारे के रालेगांव में आलीशान विद्यालय भवन और छात्रावास का निर्माण छात्रों के ही श्रमदान से हुआ है।
वर्तमान में भारतीय शिक्षा व्यवसायिक, प्रौद्योगिकी और औद्योगिक शिक्षा के बहाने संकट के दौर से गुजर रही है। जिसका भूमंडलीकरण के बाद बेइंतहा स्वागत हुआ। लेकिन अब इसके दुष्परिणाम बढ़ती बेरोजगारी के रूप में भोग रहे हैं। क्योकि शिक्षा संचालन के सूत्रधार विश्व बैंक, निजी स्कूल, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और गैर सरकारी संगठन बन बैठे हैं। पूरे देश में साक्षरता अभियान विश्व बैंक के ही आर्थिक योगदान से चलाया गया था। एकाएक हम इनकी मंशा पर शंका करना तो मुश्किल था, लेकिन अब साफ हो गया है कि इनका मकसद भारत को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए बाजार में बदलना था।
युगीन परिस्थितियों के अनुरूप भी शिक्षा में बदलाव लाना जरूरी है। मौजूदा आवश्यकताओं की पूर्ति को ध्यान में रखते हुए यह तय है कि अब शिक्षा केवल ज्ञान और वैचारिक उन्नयन तक सीमित नहीं रह सकती? इसलिए आज शिक्षा का माहौल उन लोगों के बीच भी बनना शुरू हो गया है जिनकी कई पीढिय़ां शिक्षा से कटी रहीं या सामंती मूल्यों के पोषण के चलते जानबूझकर उपेक्षा की गई। आज गरीब मजदूर भी अंग्रेजी एवं कह्रश्वयूटर शिक्षा अपने बच्चे को देने की बात करने लगा है। लेकिन इनके बालकों के शिक्षार्जन के लिए गरीबी सबसे बड़ी बाधा है। इस शिक्षा के दुष्परिणाम है कि यह शिक्षा वैकल्पिक रोजगार की पृष्ठभूमि विद्यार्थी के मन में तैयार नहीं कर पाती। दूसरी ओर यह शिक्षा विद्याार्थियों को परिवार के पारंपरिक पेशे से काट देती है। ऐसे में डिग्रीधारी शिक्षित बेरोजगारों की स्थिति दया के त्रिशंकु की तरह है। नई शिक्षा नीति में इन समस्याओं के हल खोजने के प्रयास किए हैं, लेकिन सफलता कितनी मिलती है, यह कुछ समय के पश्चात की पता चलेगा ?