1857 के गदर का गुमनाम नायक : सतासी नरेश राजा उदित नारायण सिंह
वेबडेस्क। जीते जी हम इंसान किसी का कदर नहीं करते। मृत्यु के बाद सभी श्रद्धांजलि चढ़ाने को तैयार हो जाते हैं। सतासी नरेश राजा उदित नारायण सिंह की कीमत तो हम उनके जीते जी भी जानते थे, मगर उनके जाने के बाद अब पता चलता है कि शायद उनके जीवन काल में हमने उनकी पूरी कीमती नहीं समझी थी। देश के इस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का ठीक से मूल्यांकन नहीं हो सका। देश को स्वतंत्र हुए आज 75 वर्ष बीते चले, किन्तु स्वतंत्रता के इस मूक और अमर सेनानी के उपयुक्त हमने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित नहीं की। न तो उनका कोई गौरवपूर्ण स्मारक ही खड़ा किया गया, न उनकी जन्म अथवा निर्वाण तिथियों पर हम गोष्ठियों अथवा पत्र-पत्रिकाओं द्वारा उनके प्रति श्रद्धा के दो शब्द ही व्यक्त करते है और न उनकी जीवनी और कृतित्व पर प्रामाणिक और विस्तृत रूप से प्रकाश डालते हुए कोई ग्रंथ ही प्रकाशित किया गया है जिससे आगे आने वाली पीढ़ी सेवा और विवेक की इस मूर्ति के बारे में कुछ विशेष रूप से जान सुन सकें। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस देश को आजादी की मंजिल तक पहुंचाने में उदित नारायण सिंह जैसे क्रान्ति के पुजारियों का बड़ा योगदान है।
त्याग और आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा का मानव कल्याण हेतु अहर्निश साधना का, देश भक्ति के उत्कृष्टतम आदर्श का, स्वाधीनता प्राप्ति हेतु अविरल संघर्ष का और मनसा वाचा कर्मणा सम्पूर्ण भोग विलास को तिलांजलि देकर जीवन पर्यन्त निष्काम सेवा के अप्रतिम व्रत का नाम था, राजा उदित नारायण सिंह। राजा उदित नारायण सिंह का नाम जुबान पर आते ही भारतीय जनमानस के सामने एक ऐसे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है जिसमें अदम्य साहस, सफलता के प्रति अटूट आस्था, स्वतंत्रता के महायज्ञ के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने का संकल्प था। राजा उदित नारायण का जन्म-गोरखपुर जनपद में पहले स्थित सतासी राज (रुद्रपुर) परिवार में सन् 1818 ई. में हुआ था। सन् 1838 ई. में रानी हनवन्त कुंवरि के मरने पर भौवापार नरेश महाराज कवनवान सिंह के पौत्र राजा उदित नारायण सिंह सतासी राज्य की गद्दी पर बैठे।
इनके ही शासनकाल में सन् 1857 ई. में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम हुआ। देशभक्ति इनमें कू-कूट भरी थी। सन् 1857 के महान विद्रोह से लेकर सन 1947 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा स्वतंत्र भारत की घोषणा इस नब्बे वर्ष की अवधि में भारतवासियों ने ब्रिटिश सरकार के कौन-कौन से जुर्म नहीं बर्दाश्त किये। नब्बे वर्ष की यातना कम नहीं होती। बर्दाश्त की सीमा जब हद लांघ गयी तो, स्वाभाविक था, इन क्रांतिवीरों का हिंसात्मक रवैया अख्तियार करना। अंग्रेजों के विरूद्ध असंतोष एवं क्रोध की जो आग सारे देश में सुलग रही थी, उसका पहला विस्फोट मंगल पाण्डेय द्वारा कलकत्ते के पास बैरकपुर के एक पलटन में हुआ। इस क्रांति की आग सबसे पहले सेना में फैली, उसके बाद यह आग सारे देश में भड़क उठी। उस क्रांति में प्रमुख रूप से भाग लेने वाले अंग्रेजों से क्रुद्ध मराठे, दिल्ली और लखनऊ के मुसलमान तथा अवध के पूर्वीये हिन्दू थे। इसलिए इस क्रांति की लपटें गोरखपुर में भी पहुंची। सबसे पहले सेना में विद्रोह हुआ, राजाओं और जमींदारों ने बगावत का झंडा ऊंचा किया, उसके बाद जनता भी उनके साथ मरने-मीटने को तैयार हो गयी।
गोरखपुर के ताल्लुकेदार से बराबर संघर्ष, उत्तर से बंजारों के आक्रमण और बुटवल की ओर से चौहानों का दबाव इन सभी कठिनाइयों का सामना करने से सतासी राज्य की काफी शक्ति क्षीण होने लगी थी। यह राज्य औघड़दानी भी था, और राज्य का एक बहुत बड़ा भाग जागीर और वृत्तियों में बंट चुका था। इसलिए राज्य की आर्थिक दशा भी काफी बिगड़ने लगी थी, इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने इस राज्य के कई जमींदारों और वृत्तिवालोंं को भी फोड़ लिया था, जिससे यह राज्य और कमजोर हो गया था, किन्तु इतना सब कुछ होने के बावजूद सतासी राज्य में अभी आत्मसम्मान की भावना जागृत थी। जब क्रांतिकारी नेता मोहम्मद हसन फैजाबाद से तत्कालीन सतासी नरेश राजा उदित नारायण सिंह के पास अपना साथ देने के लिए दूत भेजा तो उस समय उस देश भक्त राजा ने जो उत्तर दिया वह अविस्मरणीय है। राजा ने दूत से कहा-आज न कोई हिन्दू है न कोई मुसलमान ,आज हम सभी हिन्दुस्तानी है, आज हमारा लक्ष्य है किसी तरह इन आततायी अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना और इस पुनित कार्य के लिए मैं बड़ा से बड़ा बलिदान देने को तैयार हुूं। जाकर मोहम्मद हसन से कहना कि राप्ती नदी के किनारे हमारे आदमी उनका स्वागत करेंगे।
सचमुच जब मोहम्मद हसन की क्रांतिकारी सेना गोरखपुर के पास राप्ती नदी के किनारे 21 सितम्बर 1857 को पहुंची तो सतासी राज्य के सैनिक उनका साथ देने के लिए तैयार मिले। गोरखपुर के तत्कालीन ज्वाइंट मजिस्ट्रेट एम.एफ. वर्ड ने बहुत प्रयत्न कि विद्रोहियों की नाव राप्ती नदी में डुबा दी जाये ताकि मीर मोहम्मद हसन की क्रांतिकारी सेना राप्ती पार कर गोरखपुर शहर में न पहुंच सके, लेकिन उसे उस कार्य में सफलता न मिल सकी। उन नावों पर बैठे हुए नाविक साधारण मल्लाह नहीं, बल्कि सतासी राज्य के प्रशिक्षित सैनिक थे, जिनका उद्देश्य था नावों के द्वारा मोहम्मद हसन की सेना का गोरखपुर में उतारना। मोहम्मद हसन ने सतासी राज्य की सहायता से गोरखपुर पर अधिकार कर लिया।
कुसम्ही जंगल के दक्षिणी वर्तमान में झंगहा के पास महाराजा उदित नारायण सिंह की अध्यक्षता में नरहरपुर, बढयापार, शाहपुर नगर (बस्ती) आदि राजाओं की सभा हुई। इसमें डुमरी, पाण्डेयपार और तिघरा आदि के श्रीनेत बबुआन भी काफी संख्या में सम्मिलित हुए। उस सभा में सर्वसम्मति से एकजुट होकर अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की गयी और क्रांति के श्रीगणेश स्वरूप बंदी बनाये गये कई अंग्रेज कठेन नदी के किनारे कत्ल कर दिये गये। उनके अंग्रेजों के रूधिर से 'कठेन' नाला का पानी लाल हो उठा। कहा जाता है कि तभी से उस नाला का नाम गोर्रा पड़ गया, क्योंकि उस समय लोग अंग्रेजों को गोरा कहते थे।
मिस्टर वर्ड ने राजा उदित नारायण सिंह को अपनी ओर मिलाने का बड़ा प्रयास किया, बहुत प्रलोभन दिया किन्तु उस देशभक्त नरेश ने अंग्रेजों के समस्त उपहारों को ठुकराकर आजादी के लिए युद्ध छेड़ दिया। पैना के ठाकुरों ने बरहज के पास अंग्रेजों की सहायता के लिए सामानों से लदी नावों को लूट लिया और पूरब से अंग्रेजी सहायता का जलमार्ग रोक दिया। नरहरपुर के राजा ने बड़हलगंज पर अधिकार करके बनारस और आजमगढ़ से गोरखपुर का संबंध विच्छेद कर दिया। गोरखपुर से भागते हुए अंग्रेजों को कौड़ीराम के पास आमी नदी के किनारे पाण्डेयपार के श्रीनेतो ने मार डाला। आगे बढ़ने पर गगहा के ठाकुरों ने भी अंग्रेजों का वध किया। डुमरी के बाबू बंधू सिंह ने गोरखपुर के पूर्वोत्तर भाग पर अपना अधिकार जमा लिया। तिघरा के बाबू मुन्ना सिंह आदि तथा खजुरगांवा के श्रीनेतों की संयुक्त शक्ति ने गोरखपुर के उत्तरी भाग से अंग्रेजों को साफ कर दिया। इस प्रकार गोरखपुर जनपद पर क्रांतिकारियों को अधिकार हुआ। काफी समय तक क्रांतिकारियों का गोरखपुर पर शासन रहा।
नेपाल के राजा जंगबहादुर के नेतृत्व में एक बड़ी गोरखा सेना ने बेतिया में रहने वाले अंग्रेज ब्रिगेडियर फ्रैंक ग्रेजर के साथ गोरखपुर पर आक्रमण कर दिया। पश्चिम से सिखों तथा दक्षिण से अंग्रेजों ने भी हमला कर दिया। गोरखपुर के क्रांतिकारियों के पास सैनिक साधन की कमी थी। वे एक बड़ृी संगठित सेना का मुकाबला नहीं कर सकते थे। राजा उदित नारायण सिंह 8 मई 1857 को गोरखपुर से नाव के जरिये आजमगढ़ जा रहे खजाने को लूटकर गोरों के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर दिया तथा अपने अनुयायियों के साथ घाघरा नदी के तट पर डेरा डाल दिया। इससे गुस्साये तत्कालीन जिलाधिकारी डब्लू पेटर्सन ने राजा को गिरफ्तार करने के लिए एक बड़ी सेना भेजी। घाघरा नदी के तट पर पहुंचने के पूर्व ही राजा को इसकी सूचना मिल गयी, लिहाजा वह स्थान बदलकर आगे बढ़ गये और अंग्रेजों से संघर्ष करने लगे।
राजा उदित नारायण सिंह के नेतृत्व में संघर्ष करने के लिए बड़ी संख्या में सहयोगियों के जुट जाने से थोड़ी देर के संघर्ष के बाद ही गोरो की सेना को पीछे हटना पड़ा। इसके बाद उत्साहित राष्ट्र भक्त ब्रिटिश नौकाओं द्वारा भेजे जाने वाले रसद पर निगाह रखने लगे और मौका मिलते ही उसे लूटने लगे। सतासी राजा को सबक सिखाने के लिए बिहार व नेपाल से सैन्य दस्ते मंगाये गये, बावजूद इसके राजा का स्वांतंत्रय वीरों के हौसलों में कोई कमी नहीं आयी और वे तब तक फिरंगियों से मोर्चा लेते जब तक देश पर लगा गुलामी का कलंक मिट न जाये। क्रांतिकारियों के पास सैनिक साधन की कमी थी, फलस्वरूप क्रांतिकारियों की हार हुई और गोरखपुर पर पुन: अंग्रेजों का अधिकार हुआ। सतासी नरेश राजा उदित नारायण सिंह ने यद्यपि बड़ी वीरता से अंग्रेजों का सामना किया। किन्तु मातृ भूमि की पराधीनता की बेड़ी काटने के लिए कृत संकल्प भारत माता के इस सपूत को चारों ओर से घिर जाने के कारण अंतत: हार जाना पड़ा। अंग्रेजों ने सतासी राज्य जब्त कर लिया और इन्हें आजन्म कारावास की सजा देकर अंडमान टापू भेज दिया।
इस प्रकार सतासी राज्य के इस देश भक्त नरेश ने आजादी के यज्ञ कुण्ड में अपना सर्वस्व होम कर दिया। सतासी राज्य का इतिहास अपनी स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष करने वाले राज्य का इतिहास है। यहां के राजाओं ने अपने आत्मसम्मान एवं गौरवपूर्ण परंपरा की रक्षा के लिए बड़ा से बड़ा बलिदान और त्याग किया है। विदेशी शासकों ने इस पर आक्रमण किये और इसे अपने बस में करने का भरपूर प्रयास किया, किन्तु इस राज्य के किसी भी शासक ने विदेशी सत्ता के सामने कभी भी अपना माथा नहीं झुकाया। राजस्थान के इतिहास में जो स्थान मेवाड़ा का है उत्तर भारत के इतिहास में वहीं स्थान सतासी राजा का है। भारतीय संस्कृति की महान परंपराओं को व्यावहारिक रूप से चरितार्थ करने वाले सतासी के श्रीनेत अति प्राचीन और समृद्धशाली इतिहास तथा संस्कृति के उत्तराधिकारी है। स्वतंत्रता संग्राम में सतासी राज्य का योगदान अविस्मरणीय है।
अपने स्वाभिमान एवं अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए तुर्कों, मुगलों, अवध के नवाब एवं अंग्रेज, सभी से संघर्ष करना और इस संघर्ष में अपना सर्वस्व मातृभूमि को समर्पित कर देने की एक गौरवशाली परंपरा जो सतासी राज्य ने स्थापित किया वह देश के इतिहास में अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की वेदी में अपना सर्वस्व अर्पित कर देना इस महान राज्य की महान परंपरा ही थी। जिस प्रकार विश्व की सभ्यताओं का इतिहास नदी घाटी की सभ्यताओं का इतिहास है, जिस प्रकार भारत का इतिहास आर्यों का इतिहास है, उसी प्रकार मध्य काल में गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास सतासी राज्य का इतिहास है। किन्तु इससे बढ़कर हमारी कृतघ्नता और क्या होगी कि स्वार्थ और समृद्धि के पीछे दीवाने देश ने स्वतंत्रता संग्राम के अपने सहस्र-सहस्र सैनिकों की तरह राजा उदित नारायण सिंह जैसे गौरवशाली व्यक्तित्व को भी भुला दिया है। धन्य था वह वीर! धन्य है उसकी याद।
(लेखक, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं।)