अपराधियों के खिलाफ सख्ती के साथ केंद्र की फ्लैगशिप योजनाओं का दिख रहा धरातल पर असर
वेबडेस्क। पहले चरण में गैर यादव पिछड़ों और सवर्णों के बल पर भाजपा अपने पुराने प्रदर्शन के आसपास रहने वाली है। सबसे मुश्किल वाला दूसरा चरण भी भाजपा ने साठ-चालीस के अनुपात से पार पा लिया है। इन दोनों चरणों में बेहतर कानून व्यवस्था और महिलाओं ने किसान आंदोलन के धार को कुंद किया था। उसमें भी जाट वोटों का कई सीटों पर बंट जाना और कुछ सीटों पर दलितों का जुड़ जाना भाजपा के लिये बेहतर रहा है।
सपा के तमाम प्रयास के बावजूद आम जनता उस पर भरोसा करती नजर नहीं आ रही है। खराब कानून व्यवस्था, गलत टिकट वितरण एवं मुसलमान-यादवों के आतंक से संभावित डर की वजह से पिछड़ी और दलित जातियां भाजपा से छिंटक नहीं पाईं। पहले दो चरण में मुसलमानों के अलावा सपा के साथ केवल यादव ही एकजुट नजर आया। पहले चरण में तो यादव वोट बैंक नहीं है, लेकिन छिटपुट जाटों ने उस कमी को पूरा किया, परंतु मायावती के सपा के हराने के आह्वान का असर ये हुआ कि जाटव वोटर भी कई सीटों पर भाजपा की तरफ आ गया। तीसरे चरण में 16 जिलों की 59 सीटों पर मतदान होना है।
बुंदेलखंड एवं यादव बेल्ट में भाजपा ने पिछली बार 49 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार यह आंकड़ा बहुत बदलता नहीं दिख रहा है, क्योंकि भाजपा को मजबूती देने वाले गैर यादव पिछड़े एवं गैर जाटव दलित अब भी उसके साथ जुड़ा हुआ है। इस समीकरण ने ही 2019 में सपा-बसपा के मजबूतर गठबंधन को भी धराशायी कर दिया था। यादव-मुस्लिम-दलित गठजोड़ बड़ा रिजल्ट नहीं दे पाया तो केवल यादव और मुस्लिमों के सहारे सपा कोई बड़ा चमत्कार करने नहीं जा रही है, क्योंकि यह बेस वोट तो बना सकते हैं, लेकिन दूसरी जातियों को जोड़े बगैर जीत वाला चमत्कार संभव नहीं है।
पिछली बार तीन चरणों में भाजपा ने 172 सीटों में 140 पर जीत हासिल की थी। इस बार यह आंकड़ा 105 से 115 के बीच हो सकता है, क्योंकि कुछ सीटों पर नजदीकी लड़ाई है। जाट वोटर पिछली बार पूरी तरह भाजपा के साथ था, इस बार बंटा है इसलिये उसे बस कुछ सीटों का नुकसान होता दिख रहा है। इसके बाद चौथा, पांचवां और छठा चरण भाजपा के लिहाज से सबसे मुफीद है, क्योंकि इसमें भाजपा को समर्थन देने वाली ताकतवर कुशवाहा, मौर्य, पटेल, सैंथवार, चौहान जातियों की प्रमुखता है। यह वर्ग भाजपा के साथ पूरी ताकत से 2014 के बाद से अब तक जुड़ा हुआ है। यह वर्ग यादव वोटरों के मुकाबले का वर्चस्व रखता है। सवर्ण वोटरों में ब्राह्मणों में नाराजगी जरूर है, खासकर बस्ती- गोरखपुर मंडल में, लेकिन उनके सामने विकल्प का अभाव है।
बसपा कमजोर है और कांग्रेस बदहाल, इसलिये ब्राह्मण अपनी जातीय उमीदवार के अलावा वापस भापजा की तरफ ही आता दिख रहा है। इसलिये यहां भी बहुत नुकसान होता नजर नहीं आ रहा है। सपा इन चरणों में गलत टिकट वितरण से भी फंस गई है। हार का डर इतना है कि स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे बड़बोले नेता तक को अपनी सीट बदलनी पड़ी। कई जब दिग्गज सपाई बागी बन गये हैं या फिर दूसरे दलों से मैदान में हैं। ऐसे प्रत्याशी भाजपा से नाराजगी वाले वोटों का बंटवारा करेंगे, जो भगवा की सेहत के लिये बेहतर होगा। सातवें चरण में आजमगढ़ और गाजीपुर के अलावा अन्य जिलों में भाजपा की मस्ती है। इस चरण में सपा भी कुछ जिलों में एक एक सीट जीतती नजर आयेगी, लेकिन यह वह आंकड़ा नहीं है जो उसे सरकार बनाने की ताकत दे। भाजपा छठे चरण के बाद ही इतनी सीट जीत जायेगी कि सरकार बना सके। इसका सबसे बड़ा कारण केवल और केवल यादव जाति के समानांतर भाजपा के साथ खड़ी होने वाली गैरयादव पिछड़ी जातियां हैं।
विपक्ष पिछले तीन चुनावों 2014, 2017 और 2019 में इसी ताकत की बदौलत भाजपा से मात खा चुका है। अब गैरयादव पिछड़े एवं गैरजाटव दलित भाजपा की ताकत हैं, जिससे जुड़कर सवर्ण जातियां जीत का मजबूत समीकरण बनाती हैं। जमीन पर यही समीकरण साफ नजर आता है, लेकिन दिल्ली से राजनीति कवर करने वालों को यह नहीं दिख पाता है। इसलिये संभव है कि जल्द ही ईवीएम को लेकर रुदाली और विधवा विलाप शुरू होगा, जो साबित करेगा कि भाजपा अब जीत रही है। वरना ईवीएम तो बंगाल, राजस्थान, पंजाब, छततीसगढ़ में भी बेवफा हो सकती थी, लेकिन जहां दूसरे दल की जीत वहां ईवीएम ठीक रहती है, केवल भाजपा की जीत वाले राज्यों में ईवीएम बेईमान होती है।
(लेखक, उत्तरप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)