भारत के सांस्कृतिक दिग्विजय का जयघोष...
राम मंदिर आंदोलन भारत के स्वत्व और सांस्कृतिक अधिष्ठान का 500 साल तक सतत रूप में चला संघर्ष है।यह भारत भूमि की पहचान यानी "राम" की घट घट में व्याप्ति को नकारती रहीं आसुरी शक्तियों के विरुद्ध हमारी आस्था और अस्मिता की विजय का पड़ाव है।राम इस पुण्य भूमि में ऐसे घुले हैं जैसे छाछ में नवनीत।इस पहचान को पुष्ट करने वाला हर कार्य "स्तुत्य"है।
मंदिर आंदोलन भी भारत के हर उस नागरिक के लिए एक स्तुति जैसा ही रहा है जिसकी चेतना में राम मौजूद है।
कबीर जी कहते हैं -
"सबमें रमै रमावै जोई, ताकर नाम राम अस होई ।"
घाट - घाट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई।
आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई।
कस्तूरी कुण्डल बसै , मृग ढूंढ़े वन माहि।
ऐसे घट - घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहिं।
दुर्भाग्य से आतताईयों ने सबसे पहले हमारी चेतना के आधार तत्व प्रभु राम को ही अपने निशाने पर लिया। पिछले 500 साल तक अयोध्या ने देशी विदेशी आतताइयों के इस दंश को भोगा ही है।सवाल केवल अयोध्या की पहचान और उस जमीन की लड़ाई भर का नही था अपितु इससे कहीं महत्वपूर्ण था भारत की लोक चेतना से राम के तत्व को तिरोहित करने के संगठित प्रयास।ये प्रयास सत्ता और ताकत के बल पर भी चले और बौद्धिक रूप से भारत को रामविमुख करने के लिए भी।राम कभी मुस्लिम तुष्टिकरण के उपकरण बनाये गए तो कभी भारत की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक अखण्डता को निर्मूल साबित करने के लिए विमर्श का हथियार।खास बात यह कि राम नानक के दौर में भी चैतन्य थे और रहीम के छंद में भी।राम सुप्रीम कोर्ट में पराशरन औऱ रविशंकर प्रसाद की दलीलों में भी उन 22 वकीलों पर भारी पड़ते रहे जो उनके अस्तित्व को नकारने के लिए कांग्रेस ने खड़े किए थे।
राम तुलसी के काव्य का प्राण रहे तो रैदास को फाककसी में भी सवर्ण महल के लालच को ठुकराने का सामर्थ्य देते रहे।वे मीरा के राम रतन धन में धन की महिमा बताते रहे।इसीलिए राम को घट घट वासी इस धरती पर माना गया।राम मंदिर के भौगोलिक अस्तित्व में राम के जन्म को नकारने वाली वामी-कांग्रेसी राजनीति आखिर खुद भी तो एक ही चेतना के पिंड से निकली थी।और फिर राम तो मानव जाति का सबसे सुंदर स्वप्न हैं।वे कृपानिधान है वे अजय है,वे दया के आगर है।वे अभिव्यक्ति की आजादी के प्रथम अधिष्ठाता हैं।वे आज के शब्दों में वनवासी, अनुसूचित जाति,पिछड़ों,नर नारी,गन्धर्व,किन्नर सबके हैं।भला कब तक राम को नकारते वामपंथी ओर कांगेसी।
आज राम भारत की चेतना के प्रतीक बनकर उन भारतीयों को भी भूल सुधार का अवसर दे रहे हैं जो चुनावी राजनीति और विदेशी धन से राम के विरुद्ध खड़े थे।
-सच्चाई तो यह है कि राम से कोई लड़ ही नही रहा था।राममंदिर आंदोलन तो अविधा के मारे कुछ लोगों का भटकाव भर था।यह सही है कि इन भटके हुए लोगों ने रामद्रोहियों सा आचरण किया।उनके आचरण से राम भक्तों को अनगिनत बलिदान 500 साल में देनें पड़े।पर राम क्या जमीन के मोहताज है?क्या राम की महत्ता किसी मंदिर से निर्धारित होगी।बेशक नही।लेकिन बात भारत भूमि के स्वत्व की है।यह मंदिर भारत के स्व का जागरण है।इंडोनेशिया या ,सूरीनाम,बाली में यह मंदिर विवाद होता तो हम लोगों को किंचित आपत्ति न होती लेकिन विधर्मियों और अविधा के मारे वामपंथी-कांग्रेसियों ने मुगलों की लाइन पकड़ कर भारत की समग्र सांस्कृतिक चेतना को पद दलित करने की कुत्सित कोशिश की है।यह भारत के घट घट को अस्वीकार है।इसलिए आज हम मर्यादा पुरुषोत्तम के मंदिर निर्माण पर आल्हादित हैं,आनन्दित हैं।हर्षित हैं।इस संघर्ष यात्रा में अनगिनत कारसेवकों के पराक्रम,पुरुषार्थ औऱ स्व के प्रति बलिदान को आज नमन करने का पुण्य अवसर है।
आइए!
नए भारत में मिलकर जयघोष करें
"सियावर रामचन्द्र की जय"