विनाश पर्व भाग 3 : अंग्रेजों ने नष्ट की भारत की उन्नत चिकित्सा व्यवस्था

विनाश पर्व भाग 3 : अंग्रेजों ने नष्ट की भारत की उन्नत चिकित्सा व्यवस्था
- प्रशांत पोळ

पिछले एक वर्ष से पूरा विश्व 'कोरोना' की महामारी से जूझ रहा हैं. इस महामारी पर वैक्सिन बनाना कितना कठीन हैं, यह हम सब देख रहे हैं. पश्चिमी जगत ने तो अभी २०० वर्ष पहले ही महामारी परवैक्सिन का इलाज खोजा हैं. किन्तु हमारी भारतीय चिकित्सा पध्दति में यह सैकड़ों वर्षों से हैं. अंग्रेज़ यहां आने से पहले, हम ऐसी अनेक महामारियों का सफलता पूर्वक सामना कर चुके हैं.

भारतीय पुराणों में 'शीतला माता' का अलग महत्व हैं. स्कंद पुराण में शीतला माता का उल्लेख हैं. माता के अर्चना का का स्तोत्र,'शीतलाष्टक' के रूप में दिया गया हैं. इस में का एक मंत्र हैं –

वन्देऽहंशीतलांदेवींरासभस्थांदिगम्बराम्.

मार्जनीकलशोपेतांसूर्पालंकृतमस्तकाम्..

इसमे कहा गया हैं, की देवी का वाहन गदर्भ हैं और ये दोनों हाथों में कलश,सूप,मार्जन (झाड़ू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं. अर्थात इस वंदना मंत्र से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता हैं की ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं. हजारों वर्षों से भारतीय जनमानस की धारणा हैं, की यह महामारी को नष्ट करने वाली देवी हैं. प्राचीन काल से, हमारे समाज के पुरोधाओं ने इस देवी के व्रत को, महामारी से निपटने के लिए टीकाकरण के रुप में प्रस्थापित किया था.संसर्गजन्य रोग, महामारी आदि से बचने का एक पूरा पारतंत्र (इकोसिस्टम) 'शीतला माता व्रत' के रुप में निर्माण की गई थी. गांव – गांव शीतला माता के मंदिर स्थापित किए गए और महामारियों से बचने के लिए इस देवी के व्रत से जोड़कर,जिसमे नीम के पत्ते से स्नान करने से लेकर सब कुछ हैं, एक पूरी व्यवस्था बनाई गई.

दसवे शताब्दी के आयुर्वेद के 'साक्तीयग्रंथम' में इस टीकाकरण विधि का उल्लेख हैं.खुद अंग्रेजों ने ही इस संपूर्ण पारतंत्र की खूबियों का वर्णन किया हैं. प्रख्यात गांधीवादी चिंतक,धरमपाल जी ने अपने '१८ वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तंत्रज्ञान' इस पुस्तक में अंग्रेजों के दो उद्धरण दिये हैं. इन में से पहला हैं,'आर.कोल्ट का ओलिवरकोल्ट को, १० फरवरी १७३१ को लिखा पत्र'. इस पत्र में कोल्ट महाशय ने बंगाल में चेचक के टीकाकरण का विवरण दिया हैं.

दूसरा उल्लेख एक विस्तृत भाषण का हैं. यह भाषण डॉ.जॉनझेड.हालवेल ने,लंदन के कॉलेज ऑफ फिजीशियन के पदाधिकारी और सदस्यों के सम्मुख, वर्ष १७६७ में दिया हैं. भाषण का विषय हैं,'भारत में चेचक की परंपरागत टीकाकरणपध्दति'.

(संयोग से डॉ.जॉनहॉलवेल यह १७५६ की कुप्रसिध्द'ब्लैक होल घटना'में जीवित अत्यंत कम भाग्यशाली लोगों में से एक थे.प्लासी के युध्द के एक वर्ष पहले, अर्थात १७५६ में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौल्ला ने कलकत्ता में अंग्रेजों के किला नुमा गढ़ी पर धावा बोल दिया था और १४६ अंग्रेज़ बंदियों को,जिनमे स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे, एक १८ फीटX १४ फीट के कमरे में बंद कर दिया. २० जून, १७५६ की रात को उन्हे बंद किया और २३ जून की प्रातः जब कोठरी को खोला गया, तब उस में मात्र २३ व्यक्ति ही जीवित बचे थे. इन में से जॉनहॉलवेल भी एक थे. हालांकि जे.एच.लिटल जैसे आधुनिक इतिहासकारों ने इस घटना को झूठ और मनगढ़ंत बताया हैं. उनके अनुसार, अगले वर्ष, १७५७ में अंग्रेजों ने, बंगाल के नवाब के विरोध में आक्रामक युध्दछेडने के लिए इस झूठी घटना का कारण दिया.)

इसके अलावा भी इस परंपरागत, और इसीलिए प्रभावी,टीकाकरणपध्दति पर अनेकों ने पुस्तके लिखी हैं.इनमेडेविडअर्नोल्ड की 'कोलोनाइजिंग द बॉडी' यह पुस्तक प्रमुख हैं. अर्थात यह स्पष्ट हैं की विश्व में टीकाकरण की कल्पना और पध्दति, हम भारतियों ने ही हजारों वर्ष पहले खोज निकाली. उस पध्दति को पौराणिक श्रध्दा से जोड़ा, जिसके करण वह सहज स्वीकार्य और प्रभावी बन गई.

किन्तु दुर्भाग्य से टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का श्रेय दिया जाता हैं एडवर्डजेनर को,जिन्होने बहुत बाद, अर्थात वर्ष १७९६ में टीके (वैक्सीन) की खोज की !

श्रीमति लीनामेहंदले यह वरिष्ठ आई एस एस अफसर रह चुकी हैं. महाराष्ट्र सरकार में 'अतिरिक्त प्रमुख सचिव' इस पद से उन्होने सेवा निवृत्ति ली थी. बाद में वे गोवा में सूचना आयुक्त रही और सेंट्रल ट्रिब्यूनल में सदस्य भी रही हैं.उन्होने एक सुंदर लेख लिखा हैं,जिसमे चेचक जैसी महामारी से लड़ने की हमारी व्यवस्था क्या थी और अंग्रेजों ने उसे कैसे ध्वस्त किया, यह विस्तार से बताया गया हैं.

उन्ही की लेखनी से -

सन्‌ १८०२ में इंग्लंडके श्री एडवर्डजेनर (EdwardJenner) ने चेचकके लिए वैक्सीनेशन खोजा. यह गायपर आए चेचकके दानोंसे बनाया जाता था. लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहले भी भारतमें बच्चोंपर आए चेचकके दानोंसे वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चोंका बचाव करनेकीविधी थी.इस संदर्भ में ब्रिटन के ही प्रोफे. ओर्नोल्ड ने काफी काम किया हैं.

कुछ वर्षों पहले मुझे पुणेसे डॉ देवधर जी का फोन आया, यह बतानेके लिए कि वे American Journal for Health Sciences के लिए एक पुस्तककी समीक्षा कर रहे हैं. पुस्तक थी लंदनयूनिवर्सिटीकेप्रोफेसरआरनॉल्ड लिखित Colonizing Body. पुस्तकका विषय है,प्लासीकी लड़ाई अर्थात्‌ १७५६ से लेकर भारत की स्वतन्त्रता, अर्थात १९४७ तक, अपने शासन कालमें अंग्रेजी शासकों नेभारतमें प्रचलित कतिपय महामारियोंको रोकनेके लिए क्या-क्या किया. इसे लिखनेके लिए ओर्नोल्ड ने अंग्रेजी अफसरोंके द्वारा दो सौ वर्षोंके दौरान लिखे गये कई सौ डिस्ट्रिक्ट गझेटियर और सरकारी फाइलोंकी पढ़ाई की और जो जो पढ़ा उसे ईमानदारीसे इस पुस्तकमें लिखा.पुस्तकके तीन अध्यायोंमें चेचक, प्लेग और कॉलरा जैसी तीन महामारियोंकेविषयमेंविस्तारसे लिखा गया है. अन्य अध्याय विश्लेषणात्मक हैं.

सत्रहवीं, अठारवीं और उन्नीसवीं सदीमें, या शायद उससे कुछ सदियों पहले भी, चेचककी महामारीसेबचनेके लिए हमारे समाजमें एक खास व्यवस्था थी. उसका विवरण देते हुए ओर्नोल्ड ने काशी और बंगालकी सामाजिक व्यवस्थाओंकेविषयमें अधिक जानकारी दी है. चेचकको शीतला माता के नामसे जाना जाता था और यह माना जाता था कि शीतला माताका प्रकोप होनेसे बीमारी होती है. लेकिन इससे जूझनेके लिए जो समाज व्यवस्था बनाई गई थी उसमें धार्मिक भावनाओंका अच्छा खासा उपयोग किया गया था. शीतला माताको प्रेम और सम्मानसे आमंत्रित किया जाता था, उसकी पूजाका विधि विधान भी किया गया था. चैत्रके महीनेमें शीतला उत्सव भी मनाया जाता था. यही महीना है जब नई कोंपलें और फूल खिलते हैं, और यही महीना है जब शीतला बीमारी अर्थात्‌ चेचकका प्रकोप शुरू होने लगता है. शीतला माताकोबंगालमेंबसन्ती-चण्डीके नामसे भी जाना जाता है.

इन्हीं दिनों काशीकेगुरूकुलोंसेगुरूका आशीर्वाद लेकर शिष्य निकलते थे और अपने-अपने सौंपे गये गाँवोंमें इस पूजा विधानके लिये जाते थे. चार-पांच शिष्योंकी टोली बनाकर उन्हें तीस-चालीस गांव सौंपे जाते थे.गुरूकेआशीर्वादके साथ-साथ वे अन्य कुछ वस्तुएं भी ले जाते थे - चाँदी या लोहेके धारदार ब्लेड और सुईयाँ, और रुईकेफाहोंमें लिपटी हुई 'कोई वस्तु'.

इन शिष्योंकागांवमें अच्छा सम्मान होता था और उनकी बातें ध्यानसे सुनी व मानी जाती थीं. वे तीनसे पन्द्रह वर्षकीआयुके उन सभी बच्चों और बच्चियोंको इकट्ठा करते थे, जिन्हें तब तक शीतला माता का आशीर्वाद न मिला हो (यानि चेचककी बीमारी न हुई हो). उनके हाथमें अपने ब्लेडसे धीमे धीमे कुरेदकर रक्तकी मात्र एकाध बूंद निकलने जितनी एक छोटीसी जख्म करते थे. फिर रूईकाफाहा खोलकर उसमें लिपटी वस्तुको जख्म पर रगड़ते थे. थोड़ी ही देरमें दर्द खतम होनेपर बच्चा खेलने कूदनेको तैयार हो जाता. फिर उन बच्चोंपर निगरानी रख्खी जाती. उनके माँ-बापके साथ अलग मीटिंग करके उन्हें समझाया जाता कि बच्चेकेशरीरमें शीतला माता आने वाली है, उनकी आवभगतके लिये बच्चेको क्या क्या खिलाया जाय. यह वास्तवमें पथ्य विचारके आधार पर तय किया जाता होगा.

एक दो दिनोंमेंबच्चोंको चेचकके दाने निकलते थे और थोड़ा बुखार भी चढ़ता था. इस समय बच्चेकोप्यारसेरख्खा जाता और इच्छाएं पूरी की जाती.ब्राम्हणशिष्योंकी जिम्मेदारी होती थी कि वह पूजा पाठ करता रहे ताकि जो देवी आशीर्वादकेरूपमें पधारी हैं, वह प्रकोपमें न बदल पाये. दाने बड़े होकर पकते थे और फिर सूख जाते थे - यह सारा चक्र आठ-दस दिनोंमें सम्पन्न होता था. फिर हर बच्चेकोनीमके पत्तोंसे नहलाकर उसकी पूजा की जाती और उसे मिष्ठान दिये जाते. इस प्रकार दसेकदिनोंकेनिवासके बाद शीतला माता उस बच्चेके शरीसे विदा होती थीं और बच्चेको 'आशीर्वाद' मिल जाता कि जीवन पर्यंत उसपर शीतलाका प्रकोप कभी नहीं होगा.

उन्हीं आठ-दस दिनोंमेंब्राम्हण शिष्य चेचकके दानोंकी परीक्षा करके उनमेंसे कुछ मोटे-मोटे, पके दाने चुनता था. उन्हें सुई चुभाकर फोड़ता था और निकलने वाले मवादको साफ रुईके छोटे-छोटे फाहोंमें भरकर रख लेता था.बादमें काशी जाने पर ऐसे सारे फाहेगुरूके पास जमा करवाये जाते. वे अगले वर्ष काममें लाये जाते थे.

यह सारा वर्णन पढ़कर मैं दंग रह गई. थोड़े शब्दोंमें कहा जाय तो यह सारा 'पल्सइम्युनाइजेशन प्रोग्राम' था जो बगैर अस्पतालोंके एक सामाजिक व्यवस्थाकेरूपमें चलाया जा रहा था.ब्राह्मणोंके द्वारा किये जाने वाले विधि विधान या पथ्य एक तरहसेकण्ट्रोलके ही साधन थे. हालांकि पुस्तकमें सारा ब्यौरा बंगाल व काशी का है, लेकिन मंश जानती हूं कि महाराष्ट्र में, और देशके अन्य कई भागोंमें 'शीतला सप्तमी'का व्रत मनाया जाता है और हर गांवके छोर पर कहीं एक शीतला माताका मंदिर भी होता है.

इससे अधिक चौंकाने वाली दो बातें इस अध्यायमें लेखक अर्नोल्ड ने आगे लिखी हैं.

अंग्रेज जब यहाँ आये तो अंग्रेज अफसरों और सोल्जरोंको देसी बीमारियोंसे बचाये रखनेके लिए अलगसेकैण्टोनमेंट बने जो शहरसे थोड़ी दूर हटकर थे. लेकिन यदि महामारी फैली तो अलग कैण्टोंमेंटमें रहने वाले सोल्जरोंको भी खतरा होगा. अतः महामारीके साथ सख्तीसेनिपटनेकी नीति थी.महामारीकेमरीजोंकोबस्तियोंसे अलग अस्पतालोंमें रखना पड़ता था. उन्हें वह दवाईयाँ देनी पड़ती थीं जो अंग्रेजी फार्मोकोपियामें लिखी हैं, क्योंकि देसी लोगोंकीदवाईयोंका ज्ञान तो अंग्रेजों को था नहीं, और उनपर विश्र्वास भी नहीं था.अंग्रेजोंके लिये यह भी जरूरी था कि कैन्टोंके चारों ओर भी एक बफर जोन हो - अर्थात्‌ वहाँ रहनेवाले भारतीय (प्रायः नौकर चाकर, धोबी, कर्मचारी इत्यादि) विदेशी टीके द्वारा संरक्षित हों.

वैसे देखा जाय तो ब्रिटानिकाइनसाइक्लोपीडियामें जिक्र है कि अठारवींसदीके आरंभमें चेचकसेबचनेके लिए टीका लगवानेकी एक प्रथा भारतसे आरंभ कर अफगानिस्तान व तुर्किस्तानके रास्ते यूरोप में - खासकर इंग्लैंडमें पहुँची थी. जिसे Variolation का नाम दिया गया था.अक्सर डॉक्टर लोग इसे ढकोसला मानते थे फिर भी ऐसे कई गणमान्य लोग इसके प्रचारमें जुटे थे जिन्हें इंग्लैंडकेसमाजमें अच्छा सम्मान प्राप्त था. सन्‌ १७६७ में हॉलवेलने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्डकीजनताकोVariolation के संबंधमें आश्वस्त करानेका प्रयास किया. स्मरण रहे कि तबतक 'जेनरविधी' जैसी कोई बात नही थी.

सन्‌ १७९६ में डाँ. एडवर्डजेनर (१७४९ – १८२३) ने गायके चेचकके दानोंसे चेचकका वॅक्सिन बनानेकी खोज की. चूंकि यह एक अंग्रेज डॉक्टरका खोजा हुआ तरीका था, अतः इसपर तत्काल विश्वास किया गया और भारतमें उसे तत्काल लागू कियेजानेकी सिफारिश की गई ताकि अंग्रेज सिपाहियोंकी स्वास्थ्य रक्षा हो सके. इन वॅक्सिनोंको बर्फके बक्सोंमें रखकर भारत लाया जाता था. फिर उससे भारतीयोंको चेचकके टीके लगवाये जाते थे. टीका लगानेका तरीका ठीक वही था जो हमारे लोग इस्तेमाल करते थे. लेकिन इस पद्धतिका नाम पडावॅक्सिनेशन. इसके लिये बड़ी सख्ती करनी पड़ती थी क्योंकि यदि किसी भारतीयने अंग्रेजी टीका नहीं लगवाया तो अंग्रेज डॉक्टरोंका डर था कि आगे उसे चेचक निकलेंगे और वह महामारी फैलानेका एक माध्यम बनेगा. आरंभकालमें अंग्रेजी टीका लगानेके तरीके काफी दुखद होते थे. उनकी जख्में बड़ी होती थीं और बच्चे या बूढ़े उन्हें लगवानेसे डरते और रोते पीटते थे.'जेनर विधि'के अर्न्तगतवैक्सिनेशनका टीका लगवाने पर उस जगह घाव हो जाता था और बुखार भी निकलता था, लेकिन चेचकके दाने नहीं उभरते थे, जैसा कि देसी वेरीओलेशनकीप्रणालीमें निकलते थे. कई बार टीकेका बुखार तीव्र होकर मृत्यु भी हो जाती जिस कारण भारतीयोंका विरोध अधिक था.

अंग्रेजोंको यह लग रहा था कि जबतक काशीकेब्राह्मणोंके शिष्य अपना वेरिओलेशन (टीकाकरण) का कार्यक्रम कर रहे हैं, तबतक उनके लिये चुनौती कायम रहेगी. उसे रोकनेके लिए देशी तरीकेको अशास्त्रीय करार दिया गया और शीतला माता'का टीका लगाने वाले ब्राह्मणोंको जेल भिजवाया जाने लगा. तब ब्राह्मणोंने अपनी विद्या गांव-गांवके, सुनार और नाइयोंको सिखाई. इस प्रकार उनके माध्यमसे भी यह देसी पद्धतिसे टीके लगानेका काम कुछ वर्षोंतक चलता रहा. जिन सुनार या नाइयोंको यह विद्या सिखाई गई उनका नाम पडा'टीकाकार' और आज भी बंगाल व ओरिसामें 'टीकाकार'नामसे कई परिवार पाये जाते हैं, जो मूलतः सुनार या नाई, दोनों जातियोंसे हो सकते हैं. शायद उनके वंशज नहीं जानते थे कि यह नाम उनके हिस्सेमेंकहाँसे आया.

हमारे पुराने सारे कर्मकाण्डोंमें यह पाया जाता है कि एक छोटीसी शास्त्रीय घटनाकोकेन्द्रमें रखकर ऊपरसेउत्सवोंका और कर्मकाण्डोंका भारी भरकम चोला पहनाया जाता था. वह चोला दिखाई पड़ता था, उसमें चमक-दमक होती थी. लोग उसे देखते, उन कर्मकाण्डोंको करते और सदियोंतक याद रखते.आज भी रखते हैं. लेकिन प्रायः उनकी आत्मा, अर्थात्‌ वह छोटासा शास्त्रीय काम जिसके लिए यह सारा ताम झाम किया गया, कालकेबहावमें लुप्त हो जाता,क्योंकि उसके जानकार लोग कम रह जाते थे. आज भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्रमें रिवाज हे कि चैत्र मासमें छोटे-छोटे बच्चे, सिरपर तांबेका कलश लेकर नदीमें नहाने जाते हैं. कलशको नीमके पत्तोंसे सजाया जाता है. गीले बदन नदीसेदेवीकेमंदिरतक आकर कलशका पानी कुछ शीतला देवीपर चढ़ाते हैं और कुछ अपने सिरपर उंडेलते हैं. इसी प्रकार शीतला सप्तमीका व्रत भी प्रसिद्ध है जो श्रावण मासमें किया जाता है.

आरंभसेआयुर्वेदके प्रचार -प्रसारमेंविकेन्द्रीकरणका बड़ा महत्व रखा गया था जो आधुनिक केन्द्रीकरण और अस्पताल व्यवस्थाके बिल्कुल भिन्न है.आयुर्वेदके विभिन्न सिद्धान्तोंको अत्यन्त छोटे छोटेकर्मकाण्डों और रीति रिवाजोंमें बाँटकर घर - घरतक पहुँचाया गया था. उन सिद्धान्तोंके अनुपालन में परिवारकी महिला सदस्योंका विशेष स्थान था.इसलिएआयुर्वेदका ज्ञान महिलाओंके पास सुरक्षित रहता था और प्रायः उन्हींके द्वारा उपयोगमें लाया जाता. औरतोंको परिवारमेंसम्मानका स्थान मिलनेके जो कई कारण थे उसमें स्वास्थ्य रक्षा भी एक महत्वपूर्ण कारण था. यह आयुर्वेदका ज्ञान औरतों द्वारा परिवारके पास पडोसकीसेवाके लिये लगाया जाता. यदि कोई परिवार आर्थिक अडचनमें आए तभी यह ज्ञान परिवारकेपुरुषोंकेमाध्यमसे आर्थिक आय जुटानेकेकाममें प्रयुक्त किया जाता.परिवारमेंऔरतोंका सम्मान घटनेका एक कारण यह भी रहा है कि आयुर्वेदकेमाध्यमसे स्वास्थ्य रक्षाका जो ज्ञान उनके पास था वह अब छिन चुका है.

चेचक या मसूरिकारोगों केविषयमें चरक या सुश्रुतसंहितामें अत्यन्त कम वर्णन पाया जाता है जिससे प्रतीत होता है कि पॉचवींसदीमें इस रोगकीभयावहता अधिक नहीं थी. किन्तु आठवीं सदीके प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ 'माधवनिदान'में इसका विस्तृत वर्णन है. एक बार रोग हो जाये तो इसकी कोई दवा नहीं थी, केवल परहेज पर ही ज़ोर दिया जाता था. माँस-मछली, दूध, तेल, घी और मसाले कुपथ्य माने जाते थे. केला, गन्ना, पके हुए चावल, भंग, तरबूजे आदि पथ्यकर थे.बीमारीकीपहचानके बाद वैद्य, ब्राम्हणों या कविराजकी कोई जरूरत नहीं रहती क्योंकि दवाई तो कोई होती नहीं थी. शीतला माताकेमंदिरोंके पुजारी प्रायः माली समाजसे या बंगालमेंमालाकारसमाजसे होते थे.बीमारोंकीपरिचर्याके लिए उन्हींको बुलाया जाता था 'माली'आनेके बाद वह घरमें सारे माँसाहारी खाने बंद करवाता था.घी, तेल व मसाले भी बंद करवाये जाते.मरीजकीकलाईमें कुछ कौडियाँ, कुछ हल्दीकेटुकडे और सोनेका कोई गहना बांधा जाता था. उसे केलेकेपत्तेपर सुलाया जाता और केवल दूधका आहार दिया जाता. उसे नीमकेपत्तोंसे हवा की जाती. उसके कमरेमें प्रवेश करने वालेको नहा धोकर आना पड़ता. शीतला माताकी पंचधातुकीमूर्तिका अभिषेक कर वही चरणोदकबीमारको पिलाया जाता.

रातभर शीतला माताके गीत गाये जाते. लेखकओर्नोल्ड ने एक पूरे गीतका अंग्रेजी अनुवाद भी किया है, जो माताकी प्रार्थना के लिये गाया जाता था.दानोंकी जलन कम करनेके लिए शरीर पर पिसी हुई हल्दी, मसूर दालका आटा या शंखभस्मका लेप किया जाता. सात दिनोंतक कलश पूजा भी होती जिसमें चावलकी खीर, नारियल, नीमके पत्ते इत्यादिका भोग लगता. चेचकके दाने पक चुकनेके बाद, जलनको कम करनेकी आवश्यकता होने पर किसी तेज कांटेसे उन्हें फोड़कर मवाद निकाल दिया जाता. इसके बादके एक सप्ताहतक बीमार व्यक्तिकी हर इच्छाकोमाताकी इच्छा मानकर पूरा किया जाता और माताको ससम्मान विदा किया जाता.''

लेखकके अनुसार शीतला माताका एक बड़ा मंदिर गुडगाँवा (आज का गुरुग्राम) में था जिसमें बड़ी यात्रा लगती थी. लेकिन पूरे उत्तरी भारत, राजस्थान, बिहार, बंगाल व ओडिसामें छोटे-छोटे मंदिर थे, जहाँ चैत्र मास में शीतला माताके पर्वके लिये यात्राएं और मेले लगते थे. बंगाल औरपंजाबके कई मुस्लिम परिवारोंमें भी शीतला माताकी पूजाका रिवाज था जिसे समाप्त करनेके लिए फराइजी मुस्लिम संगठनके कार्यकर्ता कोशिश किया करते.

लेखकके अनुसार बीमारी न होनेका उपाय करना ब्राह्मणोंके जिम्मे था जो कि गांवगांव जाकर टीके लगवाते थे. बंगाल व ओरिसामें आज भी टीकाकार नामके कई परिवार हैं. इस विधिकाभारतमें काफी प्रचार था. लेकिन बीमारी हो जाने पर रोगी की व्यवस्था देखनेका काम मालियोंके जिम्मे था.

इस प्रकार हम देखते हैं कि इम्युनाझेशनके लिये बीमार व्यक्तिको ही साधन बनानेकासिद्धान्त और चेचक जैसी बीमारीमें टीका लगानेका विधान भारतमें उपजा था.तेरहवींसेअठारवींसदीतक यह उत्तरी भारतके सभी हिस्सोंमें प्रचलित था. १७६७ में डॉ हॉलवेलने भारतीय टीकेकीपद्धतिका विस्तृत ब्यौरा लंडनकेकॉलेजऑफ फिजिक्समें प्रस्तुत किया था और इसकी भारी प्रशंसाकी थी. यह पद्धति इंग्लैंडमें नई-नई आई थी और हॉलवेल उन्हें इसके विषयमें आश्वस्त कराना चाहता था.हॉलवेलने बताया कि टीका लगानेके लिये भारतीय टीकाकार पिछले वर्षके मवादका उपयोग करते थे,नयेका नहीं. साथ ही यह मवाद उसी बच्चेसे लिया जाता, जिसे टीकेके द्वारा शीतलाके दाने दिलवाये गये हों अर्थात जिसका कण्ट्रोल्डएनवायर्नमेंट रहा हो. टीका लगानेसे पहले रुईमें स्थित दवाईको गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया जाता था.बच्चोंके घर और पास पड़ोसकेपर्यावरणका विशेष ध्यान रखा जाता था. बूढ़े व्यक्ति या गर्भवती महिलाओंको अलग घरोंमेंरख्खा जाता ताकि उनतक बीमारीका संसर्ग न फैले.हॉलवेलके मुताबिक इस पूरे कार्यक्रममें न तो किसी बच्चेको तीव्र बीमारी होती और न ही उसका संसर्ग अन्य व्यक्तियोंतक पहुँचता - यह पूर्णतया सुरक्षित कार्यक्रम था.

सन्‌ १८३९ में राधाकान्त देव (१७८३ – १८६७) ने भी इस टीके की पद्धति का विस्तृत ब्यौरा देने वाली पुस्तक लिखी है.आरनॉल्ड कहता है - ''हालॉकिहॉलवेल या डॉ देव यह नहीं लिख पाये कि टीका देनेकी यह पद्धति समाजमें कितनी गहराई तक उतरी थी, लेकिन १८४८ से १८६७ के दौरान बंगालके सभी जेलोंके आँकड़े बताते हैं कि करीब अस्सी प्रतिशत कैदी भारतीय विधानसे टीका लगवा चुके थे. असम, बंगाल, बिहार और ओरिसामें कम से कम साठ प्रतिशत लोक टीके लगवाते थे.आरनॉल्डने वर्णन किया है कि बंगाल प्रेसिडेन्सीमें १८७० के दशकमेंचेचकसे संबंधित कई जनगणनाएँ कराई गईं. ऐसी ही एक गणना १८७२-७३ में हुई. उसमें १७६९७ लोगोंकीगणनामें पाया गया कि करीब ६६ प्रतिशत लोग देसी विधानके टीके लगवा चुके थे, ५ प्रतिशतकाVaccination कराया गया था, १८ प्रतिशतको चेचक निकल चुका था और अन्य ११ प्रतिशतको अभी तक कोई सुरक्षा बहाल नहीं की गई थी.

बंगाल प्रेसिडेन्सी के बाहर काशी, कुमाँऊ, पंजाब, रावलपिण्डी, राजस्थान, सिंध, कच्छ, गुजरात और महाराष्ट्रकेकोंकणप्रान्तमें भी यह विधान प्रचलित था. लेकिन दिल्ली, अवध, नेपाल, हैदराबाद और मेसूरमें इसके चलनका कोई संकेत लेखकको नहीं मिल पाया. मद्रास प्रेसिडेन्सीके कुछ इलाकोंमेंओरिया ब्राह्मणों द्वारा टीके लगवाये जाते थे. टीके लगवानेके लिये अच्छी खासी फीस मिल जाती. लेकिन कई इलाकोंमेंऔरतोंको टीका लगानेपर केवल आधी फीस मिलती थी.

राधाकान्त देवके अनुसार टीका लगानेका काम ब्राह्मणोंके अलावा, आचार्य, देबांग (ज्योतिषी), कुम्हार, सांकरिया (शंख वाले) तथा नाई जमातके लोग भी करते थे.बंगालमें माली समाजके लोग और बालासोरमेंमस्तान समाजके, तो बिहारमेंपछानियासमाजके लोग, मुस्लिमोंमें बुनकर और सिंदूरियेवर्गके लोग टीका लगाते थे.कोंकणमेंकुनबी समाज तो गोवामेंकॅथोलिकचर्चोंके पादरी भी टीका लगाते थे. टीका लगानेके महीनोंमें, अर्थात्‌ फाल्गुन, चैत्र, बैसाखमें हर महीने सौ - सवा सौ रुपयेकी कमाई हो जाती, जो उस जमानेमें अच्छी खासी सम्पत्ति थी. कई गाँवोंका अपना खास टीका लगवानेवाला होता था और कई परिवारोंमें यह पुश्तैनी कला चली आई थी.लेखकके मुताबिक 'चूँकि टीका लगवानेकी यह विधि ब्रिटेनमें भी धीरे-धीरे मान्य हो रही थी, अतः बंगालके कई अंग्रेज परिवार भी टीके लगवाने लगे थे. लेकिन सन्‌ 1798 में सर जेनरनेगायकेथनपर निकले चेचकके दानोंसेVaccine बनानेकी विधि ढूँढ़ी तो इंग्लैंडमें उसका भारी स्वागत हुआ.'अब उस जादू टोने वाले देशके टीकेकी बजाय हम अपने डॉक्टरकीविधिका प्रयोग करेंगे'. जैसे ही जेनरकी विधि हाथमें आई, अंग्रेजोंने मान लिया कि इसके सिवा जो भी विधि जहाँ भी हो, वह बकवास है और उसे रोकना पड़ेगा.

जेनरकी विधि सबसे पहले १८०२में मुंबई में लाई गई और १८०४ में बंगालमें. इसके बाद ब्रिटिश शासन ने हर तरहसे प्रयास किया कि भारतीयोंकी टीका लगानेकी विधि अर्थात्‌ Variolation को समाप्त किया जाए. इसका सबसे अच्छा उपाय यह था कि Variolation के द्वारा टीका लगवानेको गुनाह करार दिया गया और टीका लगवाने वालोंको जेल भेजा गया. करीब १८३० के बाद चेचकके विषयमें अंग्रेजोंके द्वारा लिखित जितने भी ब्यौरे मिलेंगे उनमें Variolation की विधिको बकवास बताया गया है और भारतीयोंकी तथा उनकी अंधश्रद्धाकी भरपूर निन्दा की गई. 'वे (भारतीय)जेनरसाहबकेVaccination जैसे अनमोल रत्नको ठुकरा रहे थे, जो उन्हें अंग्रेज डॉक्टरोंकी दयासे मिल रहा था और जिसके प्रति कृतज्ञता दर्शाना भारतीयोंका कर्तव्य था.'भारतीयों द्वारा देसी पद्धतिसे टीका लगवानेको'मृत्युका व्यापार'या "Murderous trade" कहा गया.

''वैक्सीनेशनकोभारतीयोंने शीघ्रता से सरआँखोंपर नहीं लिया इससे कई अंग्रेज अफसर रुष्ट थे.शूलब्रेडने उन्हें मूर्ख, अज्ञानी और हर नयेअविष्कार का शत्रु कहा (१८०४) तो डंकनस्टेवार्टने अकृतज्ञ और मूढ कहा (१८४०) जबकि १८७८ में कलकत्ताकेसॅनिटरीकमिश्नरने उन्हें अंधिविश्वासी, रूढ़िवादी और जातीयवादी कहा.भारतीयोंकी टीका पद्धतीको ही इस व्यवहारका कारण माना गया और कहा गया कि सारे भारतीय टीकाकार अपनी रोजी रोटी छिन जानेकेडरसेवॅक्सिनेशनकेबारेमें गलत बातें फैला रहे थे, जबकि भारतीय पद्धतिमें ही अधिक लोग मरते हैं.'' -- आरनॉल्ड

''खुद नियतिने यह विधान किया कि हम इस देशपर राज करें और यहाँ लाखों करोड़ों मूढ़ और अज्ञानी प्रजाजनोंको उस आत्मक्लेशसे बचायें जिसके कारण वे भारतीय टीका लगवाते हैं - शूलब्रेड.''

लेकिन शूलब्रेडके ही समकालीन बुचाननने इस पद्धतिमें कई अच्छाइयों का वर्णन किया है और १८६० में कलकत्ताकेवॅक्सीनेशनकेसुपरिटेंडेंट जनरल चार्लस्‌ ने लिखा है ''यदि सारे विधीविधानोंकाठीकसे पालन हो तो भारतीय पद्धतीमें चेचककी महामारी फैलनेकी कोई संभावना नहीं है. हालाँकि मैं स्वयं वॅक्सिनेशनको बेहतर समझता हूँ फिर भी मेरा सुझाव है कि भारतीय टीकादारोंपरपाबन्दीलगानेके बजाय उनका रजिस्ट्रेशन करके उन्हें उनकी अपनी प्रणालीसे टीके लगाने दिये जायें."जाहिर है कि यह सुझाव अंग्रेजी हुकूमतको पसंद नहीं आया.

अंग्रेजी पद्धतिके लोकप्रिय न होनेका एक कारण यह भी था कि काफी वर्षोंतक अंग्रेजी पद्धतीमें कई कठिनाईयाँ रही थीं.उन्नींसवींसदीकेअंततक यह पद्धती काफी क्लेशकारक भी थी. भारतवर्षमें गायोंको चेचककी बीमारी नहीं होती थी. अतः गायके चेचकका मवाद (जिसे वॅक्सिन कहा गया) इंग्लैंडसे लाया जाता था. फिर बगदादसेबंबईतक इसे बच्चोंकीश्रृखंलाके द्वारा लाया जाता था - अर्थात्‌ किसी बच्चेको गाय के वॅक्सीनसे टीका लगा कर उसे होने वाली जख्मके पकने पर उसमेंसेमवाद निकालकर अगले बच्चेको टीका लगाया जाता था.''

बादमेंगायकेवॅक्सिनकोशीशीमें बन्द करके भेजा जाने लगा. परंतु गर्मीसे या देरसेपहुँचनेपर उसका प्रभाव नष्ट हो जाता था. उसके कारण बड़े बड़े नासूर भी पैदा होते थे.गर्मियोंमें दिये जाने वाले टीके कारगर नहीं थे, अतएव छह महीनोंके बाद टीके बंद करने पड़ते थे और अगले वर्ष फिरसेबच्चोंकीश्रृखंला बनाकर ही टीकेकावॅक्सिनभारतमें लाया जा सकता था. यूरोप और भारतमें कुछ लोगोंने इसे बच्चोंके प्रति अन्याय बताया और यह भी माना जाता था कि इसी पद्धतिके कारण सिफिलसया कुष्ठ रोग भी फैलते हैं.

सन्‌ १८५० में बम्बईमेंवॅक्सिनेशनडिविजननेगायकेबछड़ोंमेंवॅक्सिनेशन कर उनके मवादसे टीके बनानेका प्रयास किया परंतु यह खर्चीला उपाय था.

सन्‌ १८९३ में बंगालकेसॅनिटरी कमिश्नर डायसनने लिखा है - अंग्रेजी पद्धतिमें एक वर्षसे कम आयुकेबच्चोंको टीका दिया जाता था. जिस बच्चेका घाव पक गया हो उसे दूसरे गाँवोंमें ले जाकर उसके घावोंकामवाद निकालकर अन्य बच्चोंको टीका लगाया जाता. कई बार घावकोजोरसे दबा-दबाकर मवाद निकाला जाता ताकि अधिक बच्चोंको टीका लगाया जा सके. बच्चे, उनकी माएं और अन्य परिवारवाले रोते तड़पते थे. टीका लगवानेवाले परिवार भी रोते क्योंकि उनके बच्चोंको भी आगे इसी तरहसे प्रयुक्त किया जाता था.गांव वाले मानते थे कि इन अंग्रेज टीकादारोंसेबचनेका एक ही रास्ता था - कि उन्हें चाँदीके सिक्के दिये जायें. यह सही है कि इस विधीमें बच्चे को कोई बीमारी नहीं होती थी या उसे चेचकके दाने नहीं निकलते थे, जबकि भारतीय पद्धतिमें पचास से सौ तक दाने निकल आते थे. फिर भी कुल मिलाकर भारतीय पद्धतिमें तकलीफें कम थीं. जो भी थीं उन्हे शीतला माताकी इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता था.

इस सारे विवरणकोविस्तारसेपढ़नेके बाद कुछ प्रश्न खड़े होते हैं. सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि जब अर्नोल्ड जैसा ब्रिटिश व्यक्ति, भारतीय चिकित्सा पध्दति पर इतना अध्ययन कर के यह पुस्तक लिखता हैं, तो अंग्रेजों ने उस पर विचार क्यों नहीं किया...? इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता हैं, की अंग्रेजों का महिमामंडन करने के लिए उन्हे'गुणग्राहक' जैसे विशेषणों से नवाजा जाता हैं, जो गलत हैं. अंग्रेज़ तो पक्के व्यापारी थे. उन्हे प्राचीन भारतीय चिकित्सा पध्दति के गुण – दोषों से कुछ लेना देना नहीं था. उन्हे तो मात्र, उनके द्वारा बनाई गई वैक्सीन, उनके द्वारा बनाई गई औषधियां, भारत के घर घर तक पहुंचानी थी. इसीलिए अंग्रेजों ने एक अत्यंत सुव्यवस्थित चिकित्सा पध्दति को, ज़ोर-ज़बरदस्ती कर के समाप्त किया.

अंग्रेजों के भारत से निकालने के समय, बहुत कम आयुर्वेदिक दवाखाने और वैद्य बचे थे. अंग्रेजों ने, सारे देश में अंग्रेजी चिकित्सा पध्दति के दवाखाने, अस्पताल और डॉक्टर्स बनाकर, इस देश की प्राचीन और उन्नत चिकित्सा पध्दति को नष्ट करने का पूरा प्रयास किया !

संदर्भ –

1. Colonizing the Body : State Medicine and Epidemic Disease in Nineteenth Century India – David Arnold (August 1993)

2. Medical History of British India

3. Public Health in British India : A Brief Account of the History of Medical Services and Disease Prevention in Colonial India – Muhammad Umair Mushtaq (January 2009)

4. War Against Smallpox – Michael Bennet

5. The Anarchy – William Darymple

6. An Era of Darkness – Shashi Tharoor

7. १८ वी शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तंत्रज्ञान–धरमपाल

8. Medical Encounters in British India – Deepak Kumar and Raj Sekhar Basu

9. The British in India – David Gilmour

10. The Social History of Health and Medicine in Colonial India – BiswamoyPati and Mark Harrison

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