वोट डालने से पहले कृपया एक मिनट...

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वोट डालने से पहले कृपया एक मिनट...

विजय मनोहर तिवारी

नईदिल्ली।वोटिंग का क्या महत्व है? क्या केवल एक वोट डालने की रस्म? एक वोट की क्या ताकत है? क्या केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव? एक विधानसभा की क्या ताकत है? क्यों एक पार्टी को सत्ता सौंप देना? किसी भी पार्टी को सत्ता सौंप देने के या अर्थ, परिणाम और दुष्परिणाम हो सकते हैं, अब तक सब प्रकार के चुनावी अनुभव जनता को हैं। सबको आजमाया गया है। कोई बचा नहीं है। किसी को सत्ता में लंबा समय भी मिला और और कोई लंबे समय तक वंचित भी रखा गया। सत्ता परिवर्तन के सब तरह के स्वाद हमने चखे हैं। एक बार पुन: निर्णय की वेला है। ये चुनाव राज्य के हैं। केंद्र की शतियाँ राज्य से होकर ही जनपदों तक प्रवाहित होती हैं। जब केंद्र और राज्य एक फ्रिक्वेंसी पर होते हैं तो डबल इंजन का लेबल लगता है। डबल इंजन के परिणाम भी हमारे अनुभव में हैं और विपरीत दिशा में लगे दो अलग इंजनों के अनुभव भी।

विकास एक लंबी यात्रा है, जिसमें हरेक सरकार कुछ न कुछ ईंट-गारा-पत्थर जोड़ती है। विजन साफ है, इच्छा शति मजबूत है तो अल्प समय में कोई एक ही सरकार कमाल करती हुई दिख जाती है और कमजोर विजन के साथ लचर इच्छा शति वाली सरकारें समय काट कर चल बसती रही हैं। वे राज्यों को बीमारू और रोताबिलखता अपने पीछे छोड़ जाती हैं। उनके छोड़े गड्ढों को भरने में जिसने तत्परता दिखाई, जनता ने उन्हें बार-बार भी चुनकर आजमाया है। सत्ता में आकर किसी ने खाने-कमाने में दिलचस्पी ली और कोई ओवर कॉन्फिडेंस में इतराया है तो आपके ही एक वोट ने उसे बेलेट बॉस से लेकर ईवीएम तक टंगड़ी मारी है और मुँह के बल उन्हें गिराया है, जिनकी गर्दनें अकड़ गई थीं।

एक वोट की यही ताकत है। यह केवल रस्म अदायगी नहीं है। यही शति है जो स्वतंत्रता ने आपको दी है। धैर्य और बुद्धिमाापूर्वक इस शति के सदुपयोग की सर्वाधिक आवश्यकता आज है। मौजूदा सरकार को गिराने के जितने कारण आपके पास होंगे, विपक्ष को साा में नहीं लाने के भी उतने कारण आपको मिल जाएँगे। तो दो तरह से सोचने की जरूरत है, पार्टियों से हमारी या अपेक्षाएँ हैं और देश को पार्टियों से या अपेक्षाएँ है? पार्टियाँ हमारी अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरी हैं और देश की अपेक्षाओं पर कितना? वोट डालने के ठीक पहले वाले सेकंड तक 360 डिग्री पर इन दोनों सिरों पर सोच विचार आवश्यक है।

सत्ता में आकर पार्टियों का काम केवल विकास करना भर नहीं है। मजबूत इन्फ्रास्ट्रचर की अहमियत प्राइमरी क्लास के पेपर से ज्यादा नहीं है, जिसे हर हाल में ठीक होना ही चाहिए। वह तो करना ही है। मगर किसी भी देश की मजबूती किसी विचार और किसी दर्शन पर निर्भर करती है। विचारधाराएँ ही देश, सयता और संस्कृति को एक आकार में ढालती हैं। विश्व पटल पर कोई देश किसी विचार के सहारे ही आगे बढ़ा हुआ अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है या गर्त में पड़ा रहता है। विचार महत्वपूर्ण है, दर्शन महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता का महान विचार एक दल को संघर्ष के सहारे देश की साा तक लाया था और विभाजन की विभीषिका से निकलकर भारत ने आधुनिक विश्व में कदम रखा था। हर समय के अपने सवाल होते हैं। हर समय की अपनी चुनौतियाँ होती हैं। हर समय के अपने संकट होते हैं। पुरानी दवाएँ असर काम नहीं आतीं। हमें नए तरीके और नए-नए विचार आजमाने ही होते हैं। हर समय की चुनौतियों के अनुसार देश को नई दिशाओं और नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए नए विचारों की आवश्यकता होती ही है। केवल संघर्ष के योगदान के सहारे कोई कब तक टिका रहता। ऐसे दिमाग दिवालिया हो चुके थे। एसपायरी डेट की केवल दवाएँ ही नहीं होतीं, विचार भी हो सकते हैं!

नए भारत की नई समस्याएँ थीं। नए संकट थे। नई चुनौतियाँ थीं और वे कश्मीर से लेकर अयोध्या तक पर्याप्त पसरी थीं। नीति-निर्णयों में मनमानियाँ थीं, पक्षपात थे, कमजोरियाँ थीं, सामंतवाद था, परिवारवाद था, करप्शन तो जड़ों में जाकर जम गया था। एक वोट की ताकत ने वह सड़ी-गली व्यवस्थाएँ राज्यों से लेकर केंद्र तक उलट दीं। एक नया विचार नई आशाएँ लेकर आया। भारत की जड़ों को पोषण देने का विचार और विचारों के अनुसार निर्णय लेने का साहस। केंद्र या राज्य की सााओं को वह साहस हमारे-आपके एक वोट से ही मिलता है। भारत आज जिस प्रकार की वैश्विक चुनौतियों के बीच खड़ा है, उसके लिए आवश्यक है कि भारत केंद्रित एक स्पष्ट विचारधारा को जनता को जहाँ अवसर मिले, हर स्तर पर शति प्रदान करे। विचारों के चुनाव की इस प्रक्रिया में व्यति एक निरीह निमिा मात्र है, जो प्रत्याशी के रूप में अवसर पा गया है। प्रत्याशी वोटर के सबसे निकट, पार्टी का जीवंत, साकार और परिचित प्रतिनिधि होता है। अगर वह पहले से चुना जाता रहा है तो उसके 'विराट रूप' के बारे में वोटरों को सब पता है। वोटर की दुविधा का वही एकमात्र कारण है। उसका विराट रूप ऐसा है कि विचार का पक्ष वोटर के लिए व्यर्थ हो सकता है। बस उसे निपटाना है, यही लक्ष्य हो सकता है। भाग्य के धनी ऐसे प्रत्याशियों को निपटना ही चाहिए, जो एक या दो अवसर मिलने पर भी जनता का विश्वास प्राप्त न कर सके हों। ये लोग जनता की नजर में तो बोझ हैं ही, पार्टियों के लिए भी बड़े बोझ बन चुके हैं। बस जनता की निगाह से उतरे हुए ऐसे नेताओं की आर्थिक क्षमता ही उनकी सफलता की कसौटी बन जाती है कि उनके आगे पार्टियाँ भी पानी भरती दिखाई देती हैं। वह अपने नेताओं को परम प्रसन्न कर सकते हैं, चुनाव का खर्चा हँसते-हँसते वहन कर सकते हैं, जीतने लायक भरपूर ताकत है, पार्टियों को और या चाहिए?मगर वोटर को चाहिए। वोटर को चाहिए कि वह ऐसे संवेदनशील समय में विचार को महत्व दे, व्यति को नहीं। विचार की आयु दीर्घ होती है और किसी भी राष्ट्र के जीवन में वही दूर तक गति करता है। व्यतियों को कौन कब तक याद रखता है? एक वीडियो उनकी शान में चार चाँद भी लगा सकता है और एक ही वीडियो उनकी साख धूल में मिलाकर हमेशा के लिए हाशिए पर ले जा सकता है। वे हमेशा टिकट नहीं पाते रह सकेंगे, पा भी गए तो कभी हारेंगे भी, कभी तो मरेंगे। कितने बड़े-बड़े नेता आए और चले गए। कितनों के नामलेवा शेष हैं। विचार की साा अक्षुण्ण है। वही देश को ऊर्जा और दिशा देती है। व्यतियों के कलपुरजे घिसते-गिरते रहते हैं!

मैं किसी पार्टी या किसी प्रत्याशी विशेष के समर्थन या विरोध में नहीं हूँ। मगर मानता हूँ कि देश जिस मोड़ पर आकर खड़ा है, उसे स्पष्ट विचार और मजबूत इच्छाशति वाले विश्वसनीय नेतृत्व की पंचायत से लेकर प्रदेश और केंद्र तक साा की हर कड़ी में आवश्यकता है। कम से कम स्वतंत्रता के सौ वर्ष तक भारत को इसकी आवश्यकता है। अगले 25 वर्ष देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

वोटरों को मैं कहूँगा कि वे एक मिनट संतुलित होकर विचार करें। अगर उन्हें लगता है कि किसी कबत प्रत्याशी को हराना हर हाल में आवश्यक है, इतना कि एक पल के लिए अन्य आवश्यक पक्षों को तिलांजलि दी जा सकती है तो बिना देर किए उसके विरुद्ध ही वोट करें, उसे सबक सिखाने में बिल्कुल देर न करें और पार्टियों को यह संदेश दें कि उमीदवार के रूप में आपने एक गलत आदमी को हमारे पास भेजा, हमें यह मंजूर नहीं था। अगर पल भर के लिए लगता है कि प्रदेश या देश के दूरगामी हित के लिए व्यति से ऊपर उठकर सोचने की गुंजाइश है तो वैसा ही करना उचित है। यह जताकर वोट करें कि आपका वोट पार्टी और विचारधारा के लिए ही है, प्रत्याशी तो दो कौड़ी का दिया गया था। पहली बार आपका यह एक वोट, दोयम दरजे के प्रत्याशियों के लिए भी एक दर्पण की तरह हो गया, जिसमें नतीजे आने तक उन्हें अपना कालिख भरा चेहरा अवश्य देखना चाहिए। अगर बुद्धि है और वह केवल धन अर्जित करने के एकसूत्रीय काम में नहीं लगी रही है तो ऐसे प्रत्याशियों को यह सचमुच आत्मदर्शन का समय है कि वे राजनीति में यों आए? वे यह न भूलें कि जागरूक जनता की पैनी नजर उन पर है। उनकी हर हरकत पहले से अधिक स्पष्ट रूप से देखी, सुनी और समझी जा रही है। अगर वे साा दल में हैं तो उन्हें दूसरों से बहुत अधिक चौकन्ना होने की जरूरत है, योंकि उनसे अपेक्षाएँ भी कुछ अधिक हैं। जनता से जुड़ाव, जनहित की बेदाग राजनीति और साहसी निर्णय लेने की क्षमता उन्हें जीवन भर राजनीति में टिकाए रखेगी। वर्ना दो-एक चुनाव बाद ही वे इतिहास के कूड़ेदान में चले जाएँगे, जहाँ पहले का भी काफी कचरा जमा है। यह उन्हें तय करना है कि वे समय के अनुसार सुधरने को तैयार हैं या नहीं! मेरी दृष्टि में विधानसभा के होकर भी ये चुनाव देश के भावी और दूरगामी हित के चुनाव हैं।

पंचायत से लेकर हर विधानसभा एक सशत राष्ट्र के निर्माण में एक मजबूत ईंट है। एक-एक सीट भूमिगत जल की उस बूंद की तरह है, जो सोर्स को रिचार्ज करती है। वोट की शति का उपयोग करने से पहले हममें से कौन नहीं चाहेगा कि भारत जातिवादी जहर से मुक्त हो, भारत की जड़ों से गर्वपूर्वक जुड़ा नेतृत्व हर स्तर पर हर पार्टी में उभरे, भारत की आध्यात्मिक शति की ध्वजा विश्व में फहराए, वह अंदर-बाहर आतंकी शतियों का साहसपूर्वक सामना कर सके, हर स्तर पर आर्थिक भ्रष्टाचार खत्म हो, प्रशासन जनहितैषी हो, एक समान कानून सबके लिए हो, एक ऐसा देश जो अपनी समस्याओं पर खुलकर बात कर सके और जब स्वतंत्रता के सौ साल का उत्सव आए तो नई पीढ़ी को उजले भविष्य के प्रति यह देश आश्वस्त कर सके। यह एक विचार है, जो देश के लिए है। एक प्रत्याशी की भूमिका भी इसमें बड़ी है, यह उसे भी सोचना है और पसंद या नापसंद के उस प्रत्याशी से ऊपर सोचना वोटर का काम है, योंकि वोटर का निर्णय पूरे प्रदेश के लिए प्रभावकारी होगा, जो अंतत: केंद्र की दिशा और गति दोनों में सहायक या बाधक सिद्ध होने वाला है! विजय मनोहर तिवारी प्रासंगिक (लेखक मध्यप्रदेश के राज्य सूचना आयुत हैं ) मारा देश विभिन्न पर्वों और त्योहारों का एक वृहद देश है और ऐसे में जब हम देश के प्रमुख पर्वों की बात करते हैं उनमें से एक प्रमुख पर्व बिहार का छठ पर्व भी है। जो कि कार्तिक शुल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। हमारे ज्यादातर पर्व विभिन्न संस्कृति और संस्कार के साथ ही हमें अपनी प्रकृति से भी जुड़े रहने का संदेश देते हैं। यह मुय रूप से सूर्य उपासना का व्रत है जिसमें व्रती महिलाएं सूर्य, प्रकृति, जल, वायु के साथ ही भगवान भास्कर अर्थात सूर्य की बहन छठी मैया की उपासना करती हैं। यह व्रत केवल बिहार ही नहीं बल्कि झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उार प्रदेश, नेपाल, मिथिलांचल के साथ ही साथ पूरे भारत या पूरे विश्व में मनाए जाने वाला प्रमुख पर्व बन चुका है योंकि आज पूरा विश्व एक गांव में तदील हो चुका है।

खासकर इस ग्लोबलाइजेशन के दौर में कोई भी पर्व, व्रत या त्योहार किसी राज्य विशेष या देश विशेष का पर्व नहीं रह गया है। इस पर्व को कुछ राज्यों में अलग- अलग नाम से भी मनाया जाता है, जैसे मिथिलांचल में इस पर्व को रनबे माय,भोजपुरी में सविता माई, और पश्चिम बंगाल में रनबे ठाकुर नाम से बुलाया जाता है। इस पर्व में हम मां पार्वती के छठवे रुप यानि भगवान सूर्य की बहन छठी मैया की पूजा अर्चना और व्रत करते हैं। पश्चिम बंगाल में यह काली पूजा के चंद्र दर्शन के छठवें दिन बाद मनाया जाता है। मिथिला में तो छठ के दौरान वहां की व्रती महिलाएं अपने यहां की शुद्ध पारंपरिक संस्कृति को दर्शाने के लिए बिना सिलाई के शुद्ध सूती धोती पहनती हैं। इस व्रत को मुय रूप से महिलाएं ही रखती हैं लेकिन कभी- कभी देखा गया है कि महिलाओं के स्वास्थ्य या किसी अन्य शारीरिक समस्या की स्थिति में उनके पति के द्वारा भी इस व्रत को रखा जाता है हालांकि यह अन्य किसी व्रत या पर्व से थोड़ा सा कठिन व्रत है जो कि पूरे चार दिन तक चलता है। इस व्रत में पवित्र स्नान, उपवास, पीने के पानी से दूर रहना, काफी देर तक नदी के ठंडे पानी में खड़े रहना, भगवान भास्कर अर्थात निकलते हुए सूर्य को अघ्र्य देना शामिल हैं। इस पर्व की अद्भुत और निराली छटा देखते ही बनती हैं।ऐसा लगता है कि,जैसे धरती पर समस्त देवलोक उतर आया हो छठ पर्व हमारे देश में कुछ वर्षो से मनाए जाने वाला कोई आम पर्व नहीं है बल्कि यह वैदिक काल से चला आ रहा एक महापर्व हैं। इस पर्व का वर्णन हमारे ऋषियों और महर्षियों के द्वारा लिखे गए विभिन्न वेदों में भी मिलता है खासकर 'ऋग्वेद'में सूर्य पूजन और ऊषा पूजन का जिक्र है, इस व्रत में जब व्रती महिलाओं के साथ उनके पति अपने सिर पर व्रत की दौरी रखे हुए आगे-आगे चलते हैं और उनके पीछे उनकी औरतें यह गाते हुए चलती हैं कि 'बहंगी लचकत जाए' तो ऐसा लगता है कि जैसे हमारे कानों में कोई मधुर वेद मंत्र गूंज रहा हो। हमारी लोक संस्कृति और लोक परंपरा का पर्व दी की अपीलें या और कितना असर करती हैं इसका उदाहरण अगर देखें तो प्रधानमंत्री ने रक्षा बंधन से पहले 'मन की बात' कार्यक्रम के जरिये लोगों को वोकल फॉर लोकल मंत्र की याद दिलाई तो बाजार से चीनी राखियां गायब हो गयीं और हर ग्राहक सिर्फ भारतीय राखियां मांग रहा था। देश हमारा, धर्म हमारा, देवी-देवता हमारे और पर्व-त्योहार हमारे तो पैसा चीन यों कमाए? यह सवाल हम इसलिए कर रहे हैं योंकि हाल के वर्षों तक भारतीय बाजारों में देखने को मिलता था कि खिलौने से लेकर मोबाइल तक, पर्वों-त्योहारों पर मूर्तियों से लेकर मिट्टी के दीये और अन्य सजावटी सामान तक, डाइपर से लेकर वाइपर तक, टीवी से लेकर कयूटर तक... सबकुछ मेड इन चाइना मिला करता था। ऐसे में भारतीय व्यापारियों का माल नहीं बिक पाने से उनको तो नुकसान होता ही था साथ ही भारतीय सामान की मांग नहीं होने के चलते श्रमिकों को भी काम नहीं मिलता था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आत्मनिर्भर बनाने का अभियान छेड़ते हुए 'वोकल फॉर लोकल' की जो अपील की वह देखते ही देखते एक बड़ा जन-आंदोलन बन गया।

सरकारी समर्थन के चलते स्वरोजगार की राह पर भारतीय इतना आगे बढ़ गये कि ऐसे तमाम उत्पाद भारत में ही बनने लगे जोकि कल तक चीन से आयात किये जाते थे। कम लागत और उच्च गुणवाा के चलते भारतीय उत्पाद देसी बाजारों के अलावा अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी छाने लगे गये हैं। भारतीय बाजारों से जिस तेजी से चीनी माल गायब होता जा रहा है उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि मोदी ने भारतीय बाजारों से चीन का कजा समाप्त करने में सफलता पाई है। आप चाहे शहरों की बात कर लें या गांवों की, हर जगह यही देखने को मिलेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'वोकल फॉर लोकल' और 'मेड फॉर ग्लोबल' या 'मेक फॉर वल्र्ड' जैसी अपीलें सुपरहिट साबित हुई हैं। आज दीपावली पर जिस तरह ऑनलाइन बिक्री मंचों से लेकर बड़े-बड़े मॉलों, सुपरमार्केटों और स्थानीय दुकानों तक पर सिर्फ और सिर्फ मेड इन इंडिया उत्पादों की मांग है उसने मोदी को वोकल फॉर लोकल अभियान के ब्रांड एंबेसडर के रूप में भी स्थापित कर दिया है। यह मोदी के नेतृत्व का ही कमाल है कि उन्होंने भारतीयों में आत्मनिर्भर बनने का ऐसा उत्साह जगा दिया है कि युवाओं में स्टार्टअप खोलने या अपना व्यवसाय खड़ा करने की होड़ लग गयी है। वोकल फॉर लोकल अभियान की सफलता दर्शाती है कि मोदी भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनका दिया हर नारा लोगों के बीच असर करता है, मोदी भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो हर भारतीय को एक उद्यमी के रूप में देखना चाहते हैं और इसके लिए लोगों को प्रोत्साहित भी करते हैं। नवरात्रि और दीपावली से पहले देश में कारोबार को गति देने के लिए प्रधानमंत्री ने 'मन की बात' में एक बार फिर वोकल फॉर लोकल की याद दिलाई तो चाहे ऑनलाइन सेल हो या स्थानीय बाजारों की महासेल, सभी जगह सिर्फ और सिर्फ भारतीय सामान की ही मांग रही। मोदी चूंकि कुशल संगठनकर्ता भी हैं इसलिए वह अपने हर अभियान से बड़ी संया में लोगों को जोडऩा भी जानते हैं। जैसे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के जरिये उन्होंने पूरी दुनिया को योग से जोड़ दिया।

इसी प्रकार वोकल फॉर लोकल अभियान से हर भारतीय को जोडऩे के लिए उन्होंने इस दीवाली पर स्थानीय स्तर पर विनिर्मित उत्पाद खरीदने और उस उत्पाद या उसके निर्माता के साथ एक सेल्फी 'नमो ऐप' पर साझा करने का आह्वान किया जोकि सुपरहिट तो रहा ही साथ ही इसने किसी एक अभियान के दौरान सेल्फी लेने का नया रिकॉर्ड भी बना दिया। साथ ही स्थानीय विनिर्माताओं को जो आर्थिक लाभ हुआ सो अलग है। यही नहीं, प्रधानमंत्री सभी से यह अपील भी करते हैं कि आप जब भी घूमने या तीर्थयात्रा पर जाएं तब स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाए गए उत्पाद जरूर खरीदें। प्रधानमंत्री लोगों से लेन-देन के दौरान यूपीआई डिजिटल भुगतान प्रणाली का अधिक इस्तेमाल करने का आग्रह भी करते हैं योंकि एक तो ऑनलाइन भुगतान प्रणाली सरल है, दूसरा इससे हर प्रकार की विाीय पारदर्शिता भी बनी रहती है। बहरहाल, दीपावली पर कारोबारी जगत के रिकॉर्ड बनाते आंकड़ों को देखकर और वोकल फॉर लोकल अभियान को मिले भारी जन समर्थन को देखकर प्रधानमंत्री के आलोचक भी प्रभावित दिख रहे हैं और भले घुमा-फिराकर ही सही, वह भी इसकी अपार सफलता को स्वीकार कर रहे हैं। (लेखक स्तंभकार हैं) चीन के कजे से मुत होते भारतीय बाजार वोकल फॉर लोकल नीरज कुमार दुबे अ मो म वा

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