माताजी आखिर क्या चाह रही हैं?

माताजी आखिर क्या चाह रही हैं?
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रत्नाकर त्रिपाठी

वेबडेस्क। तो साहब! बहुरानी को सरकारी एजेंसी ने तलब किया। जवाब में सासु मां ने अच्छे दिन वालों को बुरे दिन का श्राप दे दिया। यह श्राप लाल टोपी से भी ज्यादा सुर्ख अंदाज में लाल-पीला होते हुए दिया गया है। हो सकता है कि वृद्धावस्था में इस तरह के वचन के सही साबित हो जाने की क्षमता मिल जाती होगी। वरना तो इससे भी ज्यादा क्रोधित होने के समय में भी ऐसा श्राप दिया ही गया होगा।

सासु मां आगबबूला हैं। बहुरानी को पनामा का फ़साना सुनाने का हुक्म जो हो गया है। राज ठाकरे ने एक बार इनके लिए कहा था, 'गुड्डी बुड्ढी हो गयी, लेकिन उसे अकल नहीं आयी।' पता नहीं इस बात में कितना सच है। लेकिन एक सच यह कि जो गुड्डी का हाथ थाम कर ही बुड्ढे हुए हैं, वह बहुत अक्लमंद हैं। खुद कुछ नहीं बोलते। 'नमस्कार' 'तो आइये आप और हम खेलते हैं' और 'क्या कीजिएगा इतनी धनराशि का?' जैसे कुछ स्क्रिप्टेड जुमलों की कमाई से इस उम्र में भी तिजोरी भर रहे हैं। कोई टीस हो तो धर्मपत्नी जी के गुस्से के द्वारा उजागर कर दी जाती है। अर्द्धांगिनी जी खासे भ्रम में जी रही हैं। परिवार के चार सदस्यों को फिल्म इंडस्ट्री ने अनिवार्य सेवानिवृत्ति पर भेज दिया है। और तो और, अब मीडिया भी पोती आराध्या की जगह तैमूर पर दुलार लुटाने के लिए पिल पड़ा है। लेकिन 'हम अभी जिंदा हैं' का भाव ठांठें मारता है तो भी बहुत विचित्र तरीके से। एक युवा फिल्म अभिनेता की संदिग्ध हालात में मौत हुई। इस मृत्यु पर सवाल उठाने वालों को माताजी 'जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं' वाला बता देती हैं। जाहिर है कि इंडस्ट्री में फिर संभावनाएं टटोलना हों तो किसी अस्त जीवन की पीड़ा से आंख मूंदकर उदित होते सूरज को ही सलाम करना होगा। मामला बेटे और बहू के फ्लॉप करियर को फिर सफलता के फलक पर ले जाने की कोशिश का जो ठहरा। सूर्य को यह तर्पण सेलेक्टिव प्रक्रिया वाला है, जिसमें बेटे के करियर की खातिर चांद के पूजक सितारों और उनकी चिलम भरने वालों तक अपनी पहुंच का रास्ता किसी थाली के छेद के जरिये तलाशा जा रहा है।

तो साहब! बहुरानी को सरकारी एजेंसी ने तलब किया। जवाब में सासु मां ने अच्छे दिन वालों को बुरे दिन का श्राप दे दिया। यह श्राप लाल टोपी से भी ज्यादा सुर्ख अंदाज में लाल-पीला होते हुए दिया गया है। हो सकता है कि वृद्धावस्था में इस तरह के वचन के सही साबित हो जाने की क्षमता मिल जाती होगी। वरना तो इससे भी ज्यादा क्रोधित होने के समय में भी ऐसा श्राप दिया ही गया होगा। वो 'सिलसिला' का दौर, वो भावनाओं के मर्यादा की रेखा तोड़ने का हर तरफ शोर। तो क्या तब इस तरह का श्राप मन से नहीं निकला होगा? ऐसा अवश्य ही हुआ होगा, लेकिन उसका कोई असर नहीं दिखा। उलटे मन पर सौ टन का बोझ रखकर अपनी अघोषित सौतन को उच्च सदन से लेकर आज भी मीडिया की सुर्ख़ियों में देखकर सीने पर सांप ही लोटते होंगे।

लेकिन सांप तो उस सीने पर भी लोटे थे, जिसके बुरे दिनों में आपने उसके साथ सपरिवार बेपेंदी के लोटे जैसा व्यवहार किया। जिसने आपके परिवार की सबसे बड़ी मुसीबत के समय मदद की, आपने अंत में उसे उसके ही हाल पर छोड़ दिया। अब यदि आपको श्राप की थ्योरी में यकीन है तो फिर इस दुनिया से जा चुके उस शख्स की बद्दुआओं से भी आपको कुछ डरना चाहिए। यह आपके लिए मेरी चेतावनी नहीं है। यह केवल उस मान्यता का स्मरण कराने की प्रक्रिया है कि आह कभी खाली नहीं जाती। फिर वह चाहे आप भरें या फिर उसे आपके लिए भरा जाए। वैसे तो मान्यता यह भी है कि गिद्धों के श्राप से गाय नहीं मरती। यानी, दुर्वासा बनने के लिए उनकी ही तरह शुद्ध और सच्चे अंतःकरण का होना अनिवार्य है। आपकी बहुरानी यदि पाक-साफ़ हैं तो फिर आपका श्राप काम जरूर कर जाएगा। इंतज़ार करते हैं ऐसा होने या न होने का।

गनीमत है कि आपका क्रोध इस रूप में पहले सामने नहीं आया। वरना तो हिन्दुस्तान की बहुत बड़ी आबादी के घनघोर रूप से बुरे दिन आ चुके होते। वह आबादी, जिसने फिल्म के परदे पर आपके लाड़ले को फ्लॉप कर दिया। जिसने आपकी विश्व सुंदरी बहू को बहुत लंबे समय तक देश-सुंदरी के रूप में भी मान्यता प्रदान नहीं की। वही जनसंख्या, जिसने आपके पति द्वारा खुद की सुपर सितारा वाली छवि पर डाले गए गुटखे के दागों के खिलाफ पुरजोर तरीके से आवाज उठायी। इस सबके लिए भी आपको गुस्सा दिखाना चाहिए था। संभव था कि इसी बहाने देश की आबादी बढ़ने की समस्या कुछ हद तक कम हो जाती।

माताजी आखिर चाह क्या रही हैं? ये कि बहुरानी को पनामा पेपर्स में नाम आने का शौर्य हासिल करने के लिए देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दे दिया जाए? या ये कि कोई सरकारी एजेंसी सार्वजनिक रूप से खेद जाहिर करे कि उसने विधिसम्मत प्रक्रिया अपनाने की प्रलयंकारी भूल करते हुए आपकी बहू को पूछताछ के लिए बुला लिया? वैसे बुलाने वालों से आपका खानदानी बैर हो गया लगता है। एक दौर में इलाहबाद की जनता ने आपके पतिदेव को अपने यहां बार-बार बुलाया। उन्हें नाकाबिल सांसद कहकर भी बुलाया गया। जवाब में तमतमाते हुए खुद को छोरा गंगा किनारे बताने वाले पतिदेव ने गंगा के इस एक किनारे से हमेशा के लिए किनारा कर लिया। बुलाता तो कभी आपको आपका जमीर भी होगा। तो क्या आप उसे भी श्राप दे देंगी? आप पर कभी फिल्माया गया था, 'नन्हा-सा गुल खिलेगा अंगना…।' अब गुल तो आपके अपनों ने ही खिलाये, मगर कम्बख्त वो जाकर खिल गया पनामा में। अब यहां खुलने लगे हैं कच्चे चिट्ठे। आग लगे इस गुल को, ये श्राप मेरा है, जो आपकी अनुमति की प्रत्याशा के साथ मैं दिए दे रहा हूं। आखिर आप मेरे शहर की बेटी जो ठहरीं।

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