अमृत महोत्सव विशेष : क्या थी डॉ हेडगेवार की स्वाधीनता को लेकर योजना ?
- द्वितीय विश्वयुद्ध स्वतंत्रता के लिए अनुकूल क्षण, सही निकली डाॅक्टरजी की घोषणा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार की विदेशियों के चंगुल से भारत की स्वतंत्रता की कल्पना और योजना क्या थी? सौभाग्य से संघ की स्थापना के पूर्वकाल से डाक्टरजी के निकट सहयोगी एवं विश्वस्त मित्र श्री अप्पाजी जोशी के माध्यम से उनकी कल्पना और योजना का एक प्रमाणिक एवं अधिकृत विवरण हमें प्राप्त है। श्री अप्पाजी जोशी ने लिखा है कि गांधीजी के सन् 1920-22 के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के फलस्वरूप जब डाक्टरजी जेल में थे, तो वहां उनकी चर्चा का एक विषय ही रहा करता था कि प्रथम विश्वयुद्ध में पराजित जर्मनी अपनी पराजय का बदला लेने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध की स्थिति अवश्य उत्पन्न करेगा और यह स्थिति बीस वर्ष पश्चात अर्थात सन् 1940 के आसपास आ सकती है। वही समय भारत की स्वतंत्रता के लिए सफल प्रयत्न का उपयुक्त अवसर रहेगा। अतः उनकी इच्छा थी कि उस अवसर का लाभ उठाने के लिए अभी से ऐसे देशव्यापी अभेद्य संगठन की रचना की जानी चाहिए जो अबतक के क्रांतिकारी आंदोलन की समस्त दुर्बलताओं से मुक्त हो और ऐसा अनुकूल अवसर उपस्थित होने पर ब्रिटिश शासन तंत्र पर बिजली की तरह झपटकर उसे एक ही प्रहार में धराशायी कर सके। श्रीअप्पाजी ने लिखा है कि डाॅक्टरजी ने अपना यह विचार स्वतंत्रता आंदोलन के अपने सभी सहयोगियों के सामने रखा। जेल से बाहर आने के बाद विदर्भ के अनेक स्थानों पर भ्रमण कर उन्होंने अपने मित्रों के साथ विचार-विमर्श किया और ऐसे संगठन को प्रारंभ करने के लिए उनका सहयोग प्राप्त करने की कोशिश की। इस पृष्ठभूमि में सन् 1925 में विजयादशमी के दिन से डाॅक्टर जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सूत्रपात कर दिया था। यहां डाक्टरजी ने जीते-जी स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने की अपनी योजना को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था।
डाॅक्टर जी और सुभाष बाबू के विचार एक ही थे
पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य एवं उसकी प्राप्ति के उपायों के बारे में डाॅक्टरजी और सुभाष बाबू के विचारों में बहुत समानता मिलती है। जिस प्रकार डाॅक्टरजी द्वितीय विश्वयुद्ध को भारत की स्वतंत्रता के लिए अनुकूल क्षण मानते थे, उसी प्रकार सुभाष बाबू भी सन् 1927 से इसी धारणा को लेकर चल रहे थे। द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ होने पर 16 सितंबर 1939 को गांधी जी ने वायसराय लाॅर्ड लिनलिथगो से भेंट करने के पश्चात जब ब्रिटेन के साथ सहयोग का वक्तव्य जारी किया, जो उसकी आलोचना करते हुए सुभाष बाबू ने लिखा था कि 'यह वक्तव्य देशवासियों के लिए बम का धमाका बनकर आया, क्योंकि उन्हें सन् 1927 से ही कांगे्रसी नेताओं द्वारा यह सिखाया जा रहा था कि अगला युद्ध हमें स्वतंत्रता प्राप्ति का अनूठा अवसर प्रदान करेगा।' सन् 1928 के कलकत्ता अधिवेशन के सामने विचार के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट में 'औपनिवेशिक स्वराज्य' के भावी लक्ष्य का निर्धारण किया गया था। दूसरी ओर डाक्टरजी की आंखे उस अधिवेशन में ऐसे चेहरे को खोज रही थीं, जो 'पूर्ण स्वराज्य' के लक्ष्य की बात अधिवेशन के सामने उठाए। गांधीजी ने औपनिवेशिक स्वराज्य के लक्ष्य का प्रतिपादन करने वाली नेहरू रिपोर्ट को ज्यों-का-त्यों स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा, जिसपर सुभाष बाबू ने संशोधन प्र्रस्तुत किया कि कांग्रस पूर्ण स्वराज्य से कम पर संतोष नहीं करेगी। मतदान में संशोधन परास्त हुआ लेकिन, डाॅक्टरजी के मन में सुभाष बाबू के प्रति आत्मीयता आ चुकी थी। महाराष्ट्र के क्रांतिकारी मित्र बाबाराव सावरकर के साथ डाॅक्टरजी ने सुभाष बाबू से एकांत में भेंट की और देश की परिस्थिति के बारे में लंबा विचार-विनियम किया।
26 जनवरी 1930 को शाखाओं पर मनाया गया स्वराज दिवस
राष्ट्रीय विचारों के भरे क्रांतिकारियों की पूर्ण स्वराज्य की मांग के फलस्वरूप अंततः 1930 के लाहौर अधिवेशन में जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य अंगीगार किया तो डाॅक्टरजी का अंतःकरण गद्गद हो उठा। उन्होंने कांग्रेस को बधाई देने के साथ-साथ सभी संघ शाखाओं को आदेश भेजा कि 26 जनवरी 1930 को शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए
नहीं हो पाया हेडगेवार और सुभाष बाबू का मिलन
20 जून 1940 को प्रातः नागपुर के संघचालक बाबा साहब घटाटे के दरवाजे पर एक कार आकर रूकी। उसमें बंगबंधु सुभाषचंद्र बोस श्रीरामभाऊ रूईकर के साथ नीचे उतरे। अंदर गए और देखा कि डाॅक्टर जी सोए हुए हैं। स्वयंसेवकों ने बताया कि पंद्रह दिन से बुखार एक सौ तीन-चार से नीचे नहीं उतरा। कोई जरूरी बात तो तो जगाऊं? डाॅक्टरजी की बीमारी की बात सुनकर सुभाष बाबू चले गए और कह गए कि फिर मिलने आऊंगा। डाॅक्टर जी की आंखे खुली और पूछा कौन मिलने आया था? स्वयंसेवकों ने कहा सुभाष बाबू आए थे और फिर आने की कहकर चले गए। डाॅक्टरजी को सुभाष बाबू ने ना मिलने का बड़ा दुःख हुआ। इधर सुभाष बाबू को भी यह कल्पना नहीं कि फिर मिलने की बात अब कभी पूरी नहीं हो पाएगी। अगले दिन 21 जून 1940 को डाॅक्टरजी की देह भारत माता की सेवा में सदा के लिए विलीन हो गयी और इस घटना के ग्यारह दिन बाद 2 जुलाई को ब्रिटिश सरकार ने सुभाष बाबू को बंदीगृह में ठूस दिया।