इतिहास पुरुष राम और मन की अयोध्या: आराधना का पात्र हो जाना केवल राम चरित्र में ही संभव

आराधना का पात्र हो जाना केवल राम चरित्र में ही संभव
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डॉ अजय खेमरिया। राम की व्याप्ति अदभुत है। वे आराध्य भी हैं और इतिहास भी हैं। सृष्टि में कोई इतिहास पुरुष लोक आराधना का पात्र हो जाये यह केवल राम चरित्र में ही संभव है।

राम को लेकर कुछ ऐसे आख्यान समय समय पर खड़े किए जाते हैं जो उनके विराट और प्रेरक जीवन को कटघरे में खड़ा करते हैं। मन मस्तिष्क में राम को लेकर कुछ भरम पैदा करते हैं। आज के रविवारीय में हम राम से जुड़े ऐसे ही पक्षों को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

राम को कैसे समझा जाये

आज के समय में राम को जानने समझने का माध्यम प्रायः गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस ही है। यह महाकाव्य हनुमानजी की प्रेरणा से 1574 में लिखा गया। ज्यादातर विवाद राम को लेकर इसी महाकाव्य की दूषित व्याख्याओं से जुड़े हैं। आमतौर पर रामायण का मतलब आमजन तुलसीकृत मानस को ही समझते हैं।

-सच्चाई यह है कि तुलसीदास जी से पहले भी करीब 300 कवियों ने राम चरित्र को अलग अलग ढंग से प्रस्तुत किया है। (जो आज उपलब्ध हैं)

-आध्यात्म रामायण

-आनन्द रामायण

-कम्ब रामायण

-अगस्त्य रामायण

-वशिष्ठ रामायण

-राधेश्याम रामायण

-ओड़िया रामायण

-कृतिवास रामायण

स्वयं तुलसीदास जी ने लिखा है “नाना भांति राम अवतारा, रामायण सत कोटि अपारा”

यानी रामायण शत कोटि (प्रतीकात्मक रूप से करोड़ो) प्रकार की हैं।

स्पष्ट है कि श्रीरामचरितमानस एकमेव सन्दर्भ महाकाव्य नहीं है जिसके माध्यम से हम राम को समझें। तो क्या यह समझा जाये कि राम को अनगिनत कवियों ने अपने अपने ढंग से वर्णित किया है। जी हां यह सच है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं हुआ कि राम का कोई प्रमाणिक स्रोत है ही नहीं?

राम का प्रमाणिक स्रोत क्या है?

राम का प्रमाणिक स्रोत है -महर्षि बाल्मीकि जी द्वारा लिखा गया महाकाव्य रामायण। जी हां यह केवल एक महाकाव्य नहीं है। यह इतिहास है, हां इतिहास। क्योंकि बाल्मीकी जी राम के समकालीन हैं। उन्होंने रामायण की रचना राम के अयोध्या लौटने के बाद की है। स्पष्ट है कि वे ऐसे महापुरुष का जीवन चरित्र लिख रहे थे जो उनके सामने मौजूद है।

इसलिए जब भी राम को लेकर उनके अस्तित्व को लेकर उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं को लेकर कोई प्रमाणिक तथ्य हमें चाहिए तो हमें बाल्मिकी रामायण को ही देखना चाहिए।

राम इतिहास या माइथोलोजी

धरती पर किसी भी मत यानी धर्म के आराध्य देव इतिहास नहीं हैं सिर्फ राम इसके अपवाद हैं। राम का अस्तित्व ऐतिहासिक है। नासा ने राम के जन्म की तारीख तक आंकलित की है। लेकिन हम इसमें न जाते हुए केवल बाल्मिकी रामायण को पकड़ें तो यह वास्तव में मूल इतिहास है। आज तक कोई इसे चुनौती नहीं दे पाया कि बाल्मीकी राम के समकालीन नहीं थे। जाहिर है बाल्मीकी ने तुलसी या अन्य कवियों की तरह कोई रचना नहीं की है वे उन घटनाओं को लिखकर गए हैं जो उन्होंने स्वयं देखी हैं।

इसका मतलब बाल्मिकी रामायण को महाकाव्य की जगह इतिहास समझा जाये? जी हां यही तथ्य है। यह एक ऐतिहासिक महाकाव्य है।

अब सवाल उठता है कि राम को माइथोलोजी से संयुक्त करने वाले लोगों ने क्या इतिहास पढ़ा है?

बाल्मिकी रामायण में 24 हजार श्लोक और 500 सर्ग हैं। सभी संस्कृत में हैं। वर्तमान में जब हम हिंदी भी अपनी पीढ़ियों को नहीं पढ़ा पा रहे हैं तब ऐसी भाषायी कृपणता के बीच क्या बाल्मीकि रामायण को हम मूल रूप में पढ़ पा रहे हैं? निसंदेह नहीं। सच्चाई तो यह है कि हम श्रीरामचरितमानस को भी अपने जीवन से बिसरा चुके हैं। तो ऐसे में हम इतिहास और माइथोलोजी में कैसे अंतर समझ सकते हैं।

इसे राम मंदिर विवाद के संदर्भ से थोड़ा समझने का प्रयास करते हैं:

इलाहाबाद हाईकोर्ट में बाबरी मस्जिद की ओर से पक्षकार बने हमारे इतिहासकारों (सभी हिन्दू) से जब कोर्ट ने पूछा कि क्या उन्हें संस्कृत आती है? क्योंकि मंदिर पक्ष ने जो दस्तावेज पेश किए थे वह अधिकतर संस्कृत और फ़ारसी में थे। देश की बौद्धिकता के होलसेल डीलर इन वामपंथी इतिहासकारों ने लिखित में जवाब दिया है कि उन्हें संस्कृत नहीं आती है। इसे कोर्ट की कार्यवाही में आज भी देखा जा सकता है। यानी जिन्हें न संस्कृत आती न संस्कृति की समझ न इतिहास की समझ वे कोर्ट में मुस्लिम पक्ष की ओर से राम को काल्पनिक साबित करने के लिए खड़े थे। यही समझ 70 साल में स्कूली पाठ्यक्रम के माध्यम से हमारे मन मस्तिष्क में गढ़ी गई है। एक सर्वाधिक प्रसार संख्या का दावा करने वाला अखबार हर रविवार हमारे पुरातन इतिहास को माइथोलोजी कॉलम के जरिये कमतर करने का क्रम चला रहा है।

खैर हम अब इतिहास की मोटा मोटी व्याख्या को समझते हैं। इतिहास का अर्थ होता है: इति-हा-आस यानी ऐसा ही हुआ था।

बाल्मिकी रामायण को अगर हम इतिहास कहते हैं तो क्या उन प्रसंगों को इतिहास कहा जायेगा जो सुनने में काल्पनिक लगती हैं जैसे महाराज दशरथ ने पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया और उसमें से एक व्यक्ति प्रकट होता है जो दशरथ जी को पायस यानी खीर देकर अपनी रानियों में बांटने के लिए कहता है।

-क्या राम के पूर्वज भागीरथ हिमालय से गंगा को ला सकते हैं?

-क्या हनुमान जी बंदर थे?

-क्या रावण के दस सिर थे?

-क्या कोई समुद्र पर पुल बना सकता है?

-क्या पुष्पक विमान संभव है?

ऐसे बहुत से प्रसंग हैं जिन पर इतिहास के पैरामीटर से किसी को भी संदेह हो सकता है।

तो इसके लिए हमें इतिहास की परिभाषा भी समझनी होगी।

इतिहास का हमारा आशय कुछ इस प्रकार होता है:

“पूर्व-वृत्त-कथा-युक्तम् इतिहासं प्रचक्षते”

यानी जो पूर्व में घटित हुआ है उसे वर्तमान में कथा रूप में कहना भी एक तरह से इतिहास ही प्रकार है।

बाल्मिकी रामायण में जो कुछ है वह पूर्व वृत्त है और उसे कवि ने कथा के साथ रोचक और सुबोध बनाने के लिए ऐसे उद्वरण जोड़े हैं जो सामान्य समझ के लिए जरूरी हैं। यही काम तुलसीदास जी ने मुगलिया दौर में समयानुकूलता के साथ किया है।

वाल्मीकी रामायण में पुत्र कामेष्टि यज्ञ में प्रकट हुए देव पुरुष कथा भाग है सच यह है कि यज्ञ से उत्पन्न रसायन चारों रानियों में बांटा गया जिसके परिणामस्वरूप राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न गर्भ में आये हैं।

इसी तरह अन्य प्रसंग भी कथा युक्त भाग हैं जो अंततः इतिहास को बताने के लिए ही कवि ने प्रयुक्त किये हैं।

इसलिए राम इतिहास के पात्र ही हैं इसे समझकर ही हमें इतिहास की इस परिभाषा को आत्मसात करना चाहिए।

इतिहास की बातें और राम :

यह समझना होगा कि बाल्मीकि जी कोई दरबारी कवि नहीं थे वे राम के दरबार में पद नहीं पाते थे इसलिए यह कहा जाना कि कवि ने राम को महिमामण्डित किया है यह सत्य नहीं है। उन्होंने 24 हजार श्लोकों में रावण और अन्य राक्षसों के बारे में भी ईमानदारी से लिखा है। उनकी विशेषताओं और कमियों को भी विस्तार से जगह दी है।

अयोध्या नगरी का वर्णन जिस तरीके से मिलता है वह बताता है कि राम के समय हमारी नागरी सभ्यता कितनी समृद्ध थी। नगर नियोजन की जिन बातों को आज हम स्मार्ट सिटी में सोच रहे हैं वे सब बाल्मिकी जी ने अपने काव्य में बताई हैं। अगर यह कल्पना होती तो नदी, सरोवर, सड़क, जल निकासी, आवासन, जैसी बातें रामायण में कहां से आती? सब कुछ उस दौर की नागरी व्यवस्था में दिखाया गया है। यह इतिहास का वर्णन ही है ठीक सिंधु घाटी और हड़प्पा की तरह।

बाल्मिकी जी इतिहास लिख रहे थे :

इसकी बानगी अयोध्या के उल्लेख से ही नहीं बल्कि दशरथ से पूर्व के सूर्यवंश के वर्णन से समझा जा सकता है। राजा जनक के दरबार में शिव धनुष टूटने के बाद जब महाराज दशरथ समधी के रूप में उपस्थित हुए हैं तो गुरु विश्वामित्र उनके कुल का परिचय कराते हुए 34 पूर्वज राजाओं दिलीप, अज, मांधाता, नहुष, भगीरथ, के नाम गिनाते हैं साथ ही जनक के 12 से अधिक पूर्वजों को पंक्तिबद्ध करते हैं। अगर राम काल्पनिक हैं तो क्या बाल्मीकि इतनी बड़ी वंशावली का वर्णन कर सकते थे?

इतिहास है लोकतंत्र और राम

आज लोकतंत्र की बड़ी बड़ी बातें होती हैं लेकिन बाल्मिकी रामायण बताती है कि राम से पूर्व ही भारत में लोकतंत्र सशक्त था। महाराज दशरथ जब राम को अपना उत्तराधिकारी बनाते हैं तो यह मुगलिया सल्तनत की तरह नहीं बल्कि सर्वानुमति से। बाल्मीकि जी ने बताया कि राज परिषद में अयोध्या ही नहीं आसपास के सभी नगरों के प्रतिनिधि बुलाये गए हैं। यही नहीं दक्षिण के राजा भी। सभी विस्तार से इस प्रस्ताव पर चर्चा करते हैं। जाहिर हैं अयोध्या में निर्णय थोपे नहीं जाते थे सर्वानुमति से होते थे। इस राजसभा में वनवासी भी बुलाये गए थे जिन्हें बाद के काव्यों में बंदर या कपि कहा गया है।

क्या बंदर थे वानर…?

आज हम यही मानते हैं कि हनुमानजी, सुग्रीव, बाली, अंगद बंदर थे। बाल्मीकि जी को पढ़ेंगे तो यह धारणा खत्म हो जायेगी। सच यह है कि वानर का मतलब ऐसे लोग जो वनों में रहते थे और अयोध्या जैसे नागरी जीवन से दूर थे लेकिन वे बंदर नहीं थे न ही रीछ, भालू क्योंकि वे प्रकृति के साथ वन जीवों जैसा वेष बनाकर रहते थे। यह वेष वह उतार भी देते थे। ठीक आज के जनजाति समाज में भी कुछ जगह सिर पर जानवरों के सींग या ऐसे ही अन्य प्रतीक पहनने का रिवाज है। किसी कारपोरेट सीईओ को टाई और सूट में ध्यान से देखें तो वह पेंग्विन जैसे नहीं लगते हैं क्या?

तुलसीदासजी ने भी इस बात को प्रमाणित किया है जब वे किष्किंधा कांड में हनुमान जी को पहली बार राम लक्ष्मण के पास भेजते हैं तो ब्राह्मण के रूप में भेजते हैं कपि भेष में नहीं। य यानी वानर अपना रूप बदल सकते थे। इसलिए कथा रूप में कही गई बात को इसी अर्थ में लेना चाहिए। तथ्य यह कि वानर बंदर या रीछ नहीं थे। इसीलिए दशरथ जी की सभाओं में नीतिगत निर्णयों पर वानरों की उपस्थिति का उल्लेख है।

सुशासन और राम

बाल्मिकी रामायण के 100 वे सर्ग में हमें सुशासन के बारे में जानकारी मिलती है। भरत जब वन में रामजी से मिलने गए हैं तब दोनों के बीच का संवाद यह बताता है कि यह केवल महाकाव्य भर नहीं है बल्कि राम के समय प्रचलित गुड़ गवर्नेस मॉडल का प्रमाण भी है। दोनों के मध्य प्रश्नोत्तर शैली में संवाद है। हर श्लोक “कत चित” के साथ है जिसका मतलब है ऐसा ही होता है ना?

राम सवाल करते हैं क्या तुम्हारे मंत्री, अधिकारी सुयोग्य हैं? क्या सभी निर्णय भविष्य और वर्तमान को ध्यान रखकर होते हैं? क्या राजदूत राजनयिक रूप से सक्षम हैं? क्या सेना में भर्ती योग्यता से हो रही है? क्या राज्य में खेती केवल वर्षा जल पर तो निर्भर नहीं है? क्या राज्य में धनखर्ची अनावश्यक तो नहीं? क्या राज्य का बजट घाटे का तो नहीं? क्या राज्य का करारोपण समावेशी है?

ऐसे बीसियों सवाल राम ने किए हैं जो इस बात का साक्ष्य हैं कि राम का काल एक सुशासन के इतिहास की कहानी है। अगर यह कल्पना होती तो बाल्मीकि जैसे कवि इन बातों का उल्लेख महाकाव्य में क्यों करते? वे उस वर्तमान को ही लिख रहे थे। इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। बाद में तुलसीदास जी ने

“नीति विरोध न मारिये दूता”

लिखा

“दैहिक दैविक भैतिक तापा राम राज नहीं काहू व्यापा”

असल में यह मूल इतिहास से उठाई गई अवधी व्याख्या ही हैं।

सार जो हमें धारण करना है

राम किसी कवि की कल्पना नहीं हैं। यह भारत का इतिहास है। इसे अलग अलग समय में कवियों ने अपने समकालीन सन्दर्भ में गाया और लिखा है। तुलसीदास जी ने जिस दौर में मानस लिखा वह राम को अवतार के रूप में उतारता है। यही उस समय की अपरिहार्यता थी। किसी भी कवि की रचना उस देश काल की परिस्थितियों से प्रभावित होती ही है। हमें समझना होगा कि श्रीरामचरितमानस एकमेव रामायण नहीं है। इसका मतलब तुलसीदास जी की रचना पर सवाल उठाना कदापि नहीं है। हमें समझना यह है कि दोनों में अंतर है। हमें मूल स्रोत के रूप में बाल्मिकी रामायण को पलटना ही चाहिए। यह हमें ऐतिहासिकता के साथ जोड़ती है। हमारी जड़ों को तुलसीदास के साथ और भी प्रमाणिकता से जोड़ देती है। इसमें हर उस बात का जवाब है जो रामद्रोही उठाते हैं।

पुनश्च: 22 जनवरी को 2024 को रामलला अपने धाम में विराजे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ने तब कहा था कि

“अब वक्त हैं मन की अयोध्या को सजाने का”

यह हमारे इतिहास को अक्षुण्य और कालजयी बनाने का एकमेव सूत्र है। मन की अयोध्या सजेगी तो सनातन मतालंबियों के बीच कोई विभेद नहीं हो सकता है। कोई ऊंच नीच नहीं, कोई पाप नहीं कोई क्लेश नहीं। क्योंकि राम की अयोध्या में भी ऐसा कुछ नहीं था। न जात पात थी न भेदभाव। बाल्मिकी रामायण इसका साक्ष्य है। इसलिए इस रामनवमी पर आइये मिलकर अपने इतिहास का पुनर्पाठ आरम्भ करें। रविवार की छुट्टी घर घर में रामायण के पाठ के संकल्प के साथ शुरू करें। ठीक वैसे ही जैसे हम बच्चों को सिलेबस पढ़ाते हैं एक दिन एक घण्टे के लिए अपना इतिहास भी पढ़ाना शुरू करें। इसी से मन की अयोध्या सजेगी, क्योंकि मंदिर वाली अयोध्या के सामने वैसे ही सुबाहु, मारीच, ताड़का और सुपर्णखा आज भी खड़े हैं जैसे राम के समय खड़े थे। निर्णय हमें करना है कि हम किसके साथ अपने भविष्य को ले जाना चाहते हैं।

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