राजा महेंद्र प्रताप ने विदेश में रह कर लड़ी थी देश के लिए लड़ाई

राजा महेंद्र प्रताप ने विदेश में रह कर लड़ी थी देश के लिए लड़ाई
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हाथरस। देश भक्त, पत्रकार, लेखक, क्रांतिवीर, समाज सुधारक और दानवीर। इन सभी शब्दों को एक शब्द में कहना चाहेंगे तो कह सकते हैं महेन्द्रप्रताप। जी हम बात राजा महेंद्र प्रताप की कर रहे हैं। जो अपनी अपनी देश भक्ति और दानवीरता के चलते आज भी लोगों मन और मस्तिष्क में जीवित हैं और आज के दिन यानी एक दिसंबर 1886 को उनका जन्म हुआ था।

राजा महेंद्र प्रताप भारत के महान स्वधीनता संग्राम सेनानी भी थे वह श्आर्यन पेशवाश् के नाम से प्रसिद्ध थे और भारत की अनंतिम सरकार के अध्यक्ष थे। यह सरकार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बनी थी और भारत के बाहर से संचालित हुई थी। उन्होने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1940 में जापान में भारतीय कार्यकारी बोर्ड की स्थापना की थी। उनकी सेवाओं की याद में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया था। हाथरस के राजा हरनारायन को कोई पुत्र नहीं था। अतरू उन्होंने मुरसान के राजा घनश्यामसिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद लिया था और वह हाथरस के राजा बने थे। उनके वचपन का नाम खड़ग सिंह था और वचपन का ज्यादातर समय वृन्दावन के महिलों में ही बीता था। इतिहास के पन्ने बताते हैं जिंद रियासत के राजा की राजकुमारी से संगरूर में विवाह था। दो स्पेशल ट्रेनें बारात लेकर गई थी। बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। बताते हैं विवाह के बाद जब कभी राजा महेंद्र प्रताप ससुराल जाते तो उन्हें 11 तोपों की सलामी दी जाती थी। 1909 में उनके यहाँ पुत्री हुई जिसका नाम भक्ति रखा गया और 1913 में पुत्र प्रेम का जन्म हुआ। 1906 में जिंद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया और वहाँ से स्वदेशी के रंग में रंगकर लौटे। 1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। मदनमोहन मालवीय इसके उद्धाटन समारोह में उपस्थित रहे। ट्रस्ट का निर्माण हुआ-अपने पांच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दिया। राजा महेंद्र प्रताप सार्वभौमिक विचारधारा के थे। वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे। ब्राह्मण-भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष में नहीं थे। वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है। प्रथम विश्वयुद्ध का लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के जूनून में आप विदेश गये। इससे पूर्व वह देहरादून से श्निर्बल सेवकश् नाम से समाचार-पत्र निकालते थे। उसमें जर्मन के पक्ष में लिखे लेख के कारण उन पर 500 रुपये का दंड भी अंग्रेज सरकार ने किया था। विदेश जाने के लिए पासपोर्ट नहीं मिला। बड़ी मशक्कत के बाद मैसर्स थौमस कुक एण्ड संस की मदद से इंगलैण्ड पहुंचे। उसके बाद जर्मनी के शासक कैसर से भेंट की। उन्हें आजादी में हर संभव सहाय देने का वचन दिया। वहाँ से वह अफगानिस्तान गये। बुडापेस्ट, बुल्गारिया, टर्की होकर हैरत पहुँचे। अफगान के बादशाह से मुलाकात की और वहीं से 1 दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति स्वयं तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ बने। स्वर्ण-पट्टी पर लिखा सूचनापत्र रूस भेजा गया। अफगानिस्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया तभी वे रूस गये और लेनिन से मिले। परंतु लेनिन ने कोई सहायता नहीं की। 1920 से 1946 तक विदेशों में भ्रमण करते रहे। विश्व मैत्री संघ की स्थापना की। 1946 में भारत लौटे। सरदार पटेल की बेटी मणिबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अड्डे आई थी। वे संसद-सदस्य भी रहे। 26 अप्रैल 1979 में उनका देहान्त हो गया। सन् 2021 मार्च में उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके नाम पर अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा की और आज उनके बने विश्वविद्यालय भवन पर तीब्रता से कार्य चल रहा है।

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