कंचा खेलने से लेकर कुलाधिपति तक का सफरनामा

कंचा खेलने से लेकर कुलाधिपति तक का सफरनामा
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मुकद्दर के सिकंदर सेठ नारायणदास


विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। जिस तरह से रेल के डिब्बों में चाय बेचने वाला बालक प्रधानमंत्री बन गया, उसी प्रकार गली मौहल्ले की सड़कों पर कंचा खेलने वाले बालक ने नामी-गिरामी विश्वविद्यालय का कुलाधिपति बनकर इतिहास रच दिया।

सेठ नारायणदास एक ऐसा जाना पहचाना नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं। ये ऐसे मुकद्दर के सिकंदर हैं कि जब भी जिस काम में हाथ डाला, सफलता स्वतः ही इनके पास दौड़ी चली आती है। चाहे कंचा खेलने की बात हो अथवा जमीनी कारोबार, राजनीति हो या फिर विद्यालय को विश्वविद्यालय बनाकर अपना परचम लहराने का मामला हो। बचपन में जब यह कंचा खेलते थे, तब कांच की गोली को ऐसा निशाना साध कर मारते थे कि अक्सर इनकी उंगलियों से छूटी गोली दूसरी गोली को ऐसी टक्कर देती कि इनकी गोली तो दूसरी गोली की जगह बैठ जाती और दूसरी गोली सर पर पैर रखकर दूर भाग जाती।

ठीक यही हाल इनके जीवन में रहा है। बचपन से ही इनका मन पढ़ाई में कम लगता था। यह भले ही पढ़े कम हैं किन्तु गुने ज्यादा हैं। दरअसल पढ़े से ज्यादा श्रेष्ठ गुना हुआ होता है। इसीलिए कम पढ़े होते हुए भी ज्यादा पढ़े-लिखे छात्र-छात्राओं की डिग्री पर हस्ताक्षर करते हैं जो अपने आप में बहुत बड़ी बात है। इनकी यह बात नरेंन्द्र मोदी से मेल खाती है। यानीं रेल के डिब्बों में चाय गरम की आवाज लगाने वाला बालक अब देश चला रहा है और सड़कों पर कंचा खेलने वाला कम पढ़ा लिखा बालक अब विश्वविद्यालय चला रहा है।

नारायणदास अग्रवाल ने पहले तो अपनीं छोटी उम्र में ही पिता स्वर्गीय श्री गनेशी लाल अग्रवाल (जिनके नाम पर जीएलए विश्वविद्यालय है) के साथ कपड़े के व्यापार में हाथ बंटाया, फिर बाद में सोने चांदी के व्यापार में हाथ आजमाया और सोने चांदी के व्यापार में अंटी गर्म होने के बाद जमीनी कारोबार में कूद पड़े तथा ईश्वर ने ऐसा हाथ पकड़ा के वो काटा और वो मारा की धूम मचा दी। इसी दौरान उन्होंने बीजेपी की राजनीति में कदम रखा और ऐसी धुआंधार राजनीति की कि टिकट मांगने नहीं टिकट दिलाने वालों की श्रेणी में आ गऐ तथा देश की बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बन गऐ। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तो इनके अंतरंग मित्रों में माने जाते हैं। वे अक्सर इनके घर तथा विश्वविद्यालय में आते रहते हैं।

जमीनी कारोबार के चलते इन्होंने अपने भतीजे डाॅ. रामकिशोर अग्रवाल के साथ मिलकर जीएलए महाविद्यालय की स्थापना की। बाद में चाचा और भतीजे में अनबन हो गई। जो चाचा और भतीजे 63 के आंकड़े में रहते थे, फिर वह एकदम 36 के आंकड़े में बदल गऐ। चाचा तो चाचा होते हैं, भले ही यह भतीजे से एक दो वर्ष छोटे हैं। चाचा ने कंचो वाली ऐसी चाल चली कि चाचा जम गऐ और भतीजे उखड़ गऐ और उन्हें मैदान छोड़ना पड़ा। यानी कि जीएलए चाचा के हिस्से में आया और भतीजे अपना हिस्सा लेकर अलग हो गऐ। भतीजे डाॅ. रामकिशोर ने सोचा कि यह जीएलए को नहीं चला सकेंगे। इसे तो मैं ही चला सकता हूं क्योंकि मैं तो ज्यादा पढ़ा-लिखा शिक्षाविद हूं और यह ठहरे कम पढ़े लिखे। मुकद्दर के सिकंदर तथा गुने हुऐ चाचा नारायणदास ने न सिर्फ जीएलए को चलाया बल्कि ऐसा दौड़ाया कि भतीजे रामकिशोर भी दांतो तले उंगली दबा गऐ।

चाचा नारायणदास यहीं नहीं रुके और उन्होंने जीएलए को महाविद्यालय से विश्वविद्यालय का दर्जा दिला कर ही दम लिया। जब जीएलए विश्वविद्यालय बना तो भतीजे डाॅ. रामकिशोर का मुंह उतर गया। उन्होंने अपनी झेंप केडी मेडिकल काॅलेज बनाकर मिटाई जो अब विश्वविद्यालय बनने जा रहा है। इसी स्पर्धा के चलते उन्होंने मथुरा से लेकर नोएडा तक विद्यालयों की लाइन लगा दी थी।

सेठ नारायण दास नक्षत्रवान ही नहीं दरियादिल और बात के धनी भी माने जाते हैं। इनके जीवन में भी सभी की तरह एक आध बार उतार-चढ़ाव आऐ। मुख्यतः नोटबंदी, जीएसटी और शायद अब कोरोना भी कारण रहा हो। बावजूद इसके इन्होंने कोरोना काल में खजाना खोल दिया और करोड़ों खर्च करके जो दरियादिली और दानशीलता दिखाई वह लाजवाब है। यही कारण है कि अब यह आवाज उठ रही है कि इन्हें पदमश्री से नवाजा जाय। इनके यहां भी देर हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं हो सकती। भले ही देर से सही किंन्तु इनकी बात बनीं रहेगी, बिगड़ेगी नहीं। जीएसटी, नोटबंदी और कोरोना के थपेड़े इन का बाल बांका भी नहीं कर पाएंगे और झंडा ऊंचा बना रहेगा।

सेठ नारायण दास अग्रवाल में दुर्गुण नहीं बल्कि सद्गुण ही सद्गुण नजर आते हैं। यदि कोई छोटा मोटा दुर्गुण होगा भी तो वह नजर के टीके का काम कर रहा होगा। वे धूम्रपान यानी बीड़ी पीने और कभी-कभी अपनी मित्र मंडली के साथ काठमांडू (नेपाल) घूमने के शुरू से ही खास शौकीन रहे हैं। वे भतीजे डाॅ. रामकिशोर की तरह बक्कू नहीं है। कम बोलना तथा तोल कर बोलना उनका स्वभाव और जब बोलते हैं तो सामने वाले की बोलती बन्द करके ही मानते हैं। इनकी यह खासियत है कि चुप रह कर भी अपना काम बड़ी सफाई के साथ बखूबी कर जाते हैं और सामने वाला मुंह ताकता रह जाता है।

उनकी मर्दानगी भी लाजवाब है। भले ही वह मुछें नहीं रखते किन्तु जब बात मूछों की आती है तो हमेशा इनकी मूछें ऊंची रही हैं। अच्छे अच्छों की सिट्टी पिट्टी गुम कर देते हैं। जो उनकी नजर में चढ़ गया उसे अर्श पर उठा देते हैं और जो नजर से गिर गया तो फिर उसे फर्श या उससे भी नीचे ले जाने की कुब्बत भी इनकी एक खासियत है। ऐसे ऐसे लोग जिनके नाम से बड़े-बड़े बदमाश भी कांपते थे, जनपद का बहुत बड़ा क्षेत्र थर्राता था जैसों की हेकड़ी दूर कर दी। साम-दाम- दंड-भेद वाली महारत में तो इन्होंने मानो पीएचडी कर रखी हो। जब इनका तीसरा नेत्र खुलता है तब तो इनका उग्र रूप देखते ही बनता है और जब स्नेह की वर्षा होती है तो फिर प्यार की अमृत धारा बहने लगती है।

मेरे ऊपर इनका स्नेह शुरू से ही अपार रहा है। अपनी पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में मैंने अज्ञानता वश इनके लिए भला बुरा भी लिखा किंतु इन्होंने कभी चूं भी नहीं कि अलबत्ता रामकिशोर जी मुझसे लड़ने बैठ जाते थे कि गुप्ता जी यह क्या अनाप-शनाप लिख रहे हो। खैर धीरे धीरे मुझे समझ आ गई। अपने ऊपर इनकी असीम कृपा और जीवन भर न भूलने वाले स्नेह की चर्चा करना भी जरूरी है जिससे इनकी नेक नियति और दरियादिली परिलक्षित होती है।

बात लगभग एक दशक पुरानी है। हमारे एक पत्रकार साथी विनोद आचार्य जो अब नहीं रहे। उनकी पुत्री की शादी थी, शादी को मात्र तीन दिन ही रह गऐ थे। किन्तु पैसों का इंतजाम नहीं हो पा रहा था। शादी के लिए जहां उनके पैसे रखे हुऐ थे, वहां से टालमटोल चलती रही और अन्त में धोखा हो गया। अब तो विनोद आचार्य के होश फाख्ता हो गऐ। मैंने उनकी स्थिति देखी और पूछा कि क्या बात है, क्यों इतने परेशान दिखाई दे रहे हो? तो उन्होंने बताया कि कहीं मेरे पैसे रखे थे और अभी तक आश्वासन के अलावा कुछ मिला नहीं, कल जयपुर जाना है तथा तीन दिन बाद शादी है।

उनकी हालत देख मैं भी परेशान हो गया और उनसे कहा कि विनोद बाबू हिम्मत रखो, भगवान सब ठीक करेंगे। मैंने तुरन्त दरिया दिल सेठ नारायणदास को फोन मिला कर कहा कि सेठ जी आपसे जरूरी काम है मिलना चाहता हूं। वे बोले कि आ जाओ मैं जीएलए में बैठा हूं। मैं फटाफट पहली बार जीएलए पहुंचा। सेठ जी ने कहा कि बताओ गुप्ता जी क्या सेवा है। मैंने उन्हें सारी बात बताई तो उन्होंने कहा कि कितना खर्चा हो जायेगा? मैंने कहा कि तकरीबन एक लाख (उस समय एक लाख की रकम अच्छी खासी होती थी) और बताया कि कुछ मैं और मेरा परिवार मिलकर करा देंगे, कुछ आप भी देख लो। उन्होंने आव देखा न ताव ड्रोज खोली और पचास हजार की सौ-सौ वाली पांच गड्डियां मेरे सामने रख दीं तथा कहा कि ले जाओ और लड़की की शादी कराओ।

मैं भावुकता से ओतप्रोत हो उठा और सेठ जी को गले से लगा लिया। जब मैंने कृतज्ञता व्यक्त की तो उनका कहना था कि मेरे पास ऐसे-ऐसे लोग भी चन्दा चिट्ठा लेने आते हैं, जो मैं जानता हूं कि इन्हें चन्दा चिट्ठा देना अकारत है, फिर भी देना पड़ता है और आप तो अच्छे और परोपकार के लिए ले जा रहे हो। अतः धन्यवाद और आभार का कोई मतलब नहीं।

दूसरी घटना भी बहुत पुरानी है। उस समय जीएलए को विश्वविद्यालय का दर्जा मिला ही था। दैनिक जागरण में लगभग एक माह तक तकरीबन चार पांच पेज के विज्ञापन विभिन्न प्रतिष्ठानों द्वारा शुभकामना दिए जाने के छपे। ये विज्ञापन कम रेट पर पैक्ट होने के कारण केवल जागरण में ही छपे थे। उन दिनों मैं मथुरा में अकिंचन भारत को देखता था। कुछ दिनों तक तो मैं इसलिए चुप रहा कि केवल जागरण में ही छप रहे हैं क्यों ज्यादा माथापच्ची की जाय। किंन्तु बाद में रहा नहीं गया और मेरे ऊपर लोभ सवार हो गया।

मैंने नारायणदास जी को फोन मिलाया और कहा कि मैं मिलना चाहता हूं। वह बोले कि आ जाओ मैं दूसरी बार जीएलए पहुंचा। फर्क इतना था कि पहली बार निःस्वार्थ और परोपकार से गया और दूसरी बार स्वार्थ और लोभवश जा पहुंचा। सेठ जी बोले कि बताओ गुप्ता जी कैसे आना हुआ? मैंने उनसे कहा कि यह सभी विज्ञापन अकिंचन भारत में भी छपवाओ। वे बोले कि यह बात शुरू में कही होती तो कुछ न कुछ करता, अब क्या मतलब इन्हें छपवाने का। और दूसरी बात यह है कि अकिंचन भारत में छपते ही ढेरों अखबार वाले मेरी जान को आ जाएंगे। किस-किस से निपटूंगा। चूंकि मेरे ऊपर तो लोभ सवार था। मैंने कहा कि मैं कुछ नहीं जानता, मुझे तो पूरे विज्ञापन चाहिए। पेमेंट कमती बढ़ती जो चाहो सो दे देना। सेठ जी ने अपना माथा ठोक लिया और दोनों हाथों से कुछ देर माथे को कसकर दबाऐ रखा और फिर अचानक इंटरकाॅम वाला फोन उठाकर बोले कि नीरज तेरे पास वो सीडी रखी होगी जिसमें जागरण वाले विज्ञापन हैं। इस सीडी को गुप्ता जी के पास भिजवा देना। दूसरी ओर से नीरज अग्रवाल जो उनके बड़े पुत्र हैं तथा उस समय जीएलए के सेक्रेटरी एवं कोषाध्यक्ष थे, ने क्या कहा वह तो मुझे पता नहीं किन्तु सेठ जी ने कहा कि और सब बातें छोड़ बस तू सीडी भिजवा देना। फिर मुझसे बोले कि आप जाओ, सीडी आपके पास पहुंच जाएगी। छाप देना सभी विज्ञापन।

बस फिर क्या था मैं मन ही मन इतना खुश हुआ कि पूछो मत, खुशी भी क्यों नहीं होगी आखिर लाखों का तो मेरा कमीशन ही हो गया और अखबार के मालिक भी खुश हो जाएंगे किन्तु लौटते समय रास्ते में मेरी अंतरात्मा ने मुझे धिक्कारा कि यह तूने क्या किया? मित्रता और प्रेम में यह स्वार्थ क्यों? तथा अगले को कितनी टेंशन झेलनी पड़ेगी? आदि आदि विचारों के चलते मैं घर पहुंचा और पहुंचते ही सेठ जी से फोन करके कहा कि सेठ जी मैं आपका मित्र हूं और मित्र होते हुए भी शत्रुता जैसा काम नहीं करूंगा। मैंने अपना विचार बदल दिया है। मैंने आपसे कुछ कहा नहीं और आपने कुछ सुना नहीं। अब नीरज से सीडी भेजने की मना कर देना, सेठ जी हंस दिए और उस समय बात समाप्त हो गई।

बात यहीं समाप्त नहीं होती है। असली बात तो अब है बताने लायक, कुछ दिन बाद उस समय अमर उजाला में कार्यरत पत्रकार अजय खंडेलवाल जो अब स्वदेश में मेरे साथ जुड़े हुए हैं। किसी काम से नीरज अग्रवाल के पास गऐ तब नीरज ने उन्हें पूरा वृतांत सुनाया कि गुप्ता जी को हमारे पापा कितना मानते हैं। नीरज के अनुसार जब सेठ जी ने उनसे कहा कि सीडी गुप्ता जी के पास भेज देना। उसके बाद नीरज सेठ जी के पास गऐ और कहा कि पापा जी आप यह क्या कर रहे हो, अकिंचन भारत का सर्कुलेशन तो बहुत कम है उसे कितने लोग पढ़ते हैं? कितना मोटा खर्चा होगा और फिर कितने अखबारों को समझाना होगा? कितनों से खामखां की टेंशन और बढ़ेगी आदि आदि।

सेठ जी ने नीरज से कहा कि नीरज तू जीएलए का खजांची है, तू जीएलए से पेमेंट मत करना। मैं अपने पास से कर दूंगा। उन्होंने अन्त में नीरज को समझाया कि देख कुछ लोग ऐसे हैं जिनके सामने मैं मुंह उठाकर उनकी बात को नकार नहीं सकता। अजय के द्वारा नीरज की बताई बात सुनकर मेरा मन सेठ जी के प्यार के प्रति गदगद हो उठा। कई बार सेठ जी ने मेरा संकट के समय में भी बहुत साथ दिया है।

अन्त में एक बात और भी बताना चाहूंगा कि एक बार तो मैं सेठ जी के रौद्र रूप को भी देख चुका हूं। बात लाॅकडाउन से भी पहले की कई माह पुरानी है। मेरे ऊधमी स्वभाव के कारण वे पहली और शायद अन्तिम बार मेरे ऊपर एकदम कुपित हो गऐ और ऐसा लगा कि पता नहीं फोन में से निकल कर मेरा कचूमर बना डालेंगे। मैंने उन्हें शांत करने का प्रयास किया और कहा कि सेठ जी मैंने आपका रौद्र रूप देख लिया है, अब मुझे क्षमा करो और अपने पुराने सौम्य के रूप में आ जाओ। मेरी स्थिति तो ऐसी हो रही है जैसे गीता में भगवान श्री कृष्ण के विराट स्वरूप को देखकर अर्जुन की हुई थी। मैंने अर्जुन की तरह कहा कि हे सेठ जी आपको आगे से, पीछे से, दाएं से और बाएं से यानी हर ओर से बारम्बार नमस्कार करता हूं। खैर सेठ जी बाद में शांत हो गए और उन्होंने मुझे माफीनामा दे दिया किन्तु एक बार तो ऐसा लगा कि जाने अनजाने में हुई मामूली छेड़छाड़ की घटना कहीं तीन सौ छिहत्तर में तो तब्दील नहीं हो जाएगी। आपके मन में यह जिज्ञासा जरूर होगी कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो मुझे इतना स्नेह करने वाले सेठ जी ऐसे कुपित क्यों हुऐ? आप इस जिज्ञासा को दफन कर दीजिए क्योंकि यह अन्दर की बात है। नारायण-नारायण

नारायण नाम की महत्वता सर्व विदित है। श्रीमद् भागवत में एक प्रसंग आता है। जिसमें एक पाप कर्म करने वाला दुष्ट व्यक्ति अपने बेटे का नाम नारायण रख लेता है और अन्त समय में जब यमदूत उसे पकड़ कर ले जाने लगते हैं तो वह अपने बेटे को चिल्ला-चिल्ला कर पुकारता है। नारायण नारायण मुझे बचा ले। नारायण नाम सुनते ही यमदूत समझते हैं कि यह तो भगवान का भक्त है और उन्हें पुकार रहा है। फिर तो वह उसे छोड़ कर भाग जाते हैं। धन्य है सेठ नारायणदास के माता पिता जिन्होंने इनका नाम नारायण रखा और गुनी होने के संस्कार दिऐ। मैं उनको नमन करते हुए सेठ नारायणदास जी को शतायु होने की कामना करता हूं। नारायण नारायण।

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