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आत्महत्याओं को रोकने का पेटेंट उपाय
विजय कुमार गुप्ता
मथुरा। आत्महत्या करने का रोग दिनों दिन बढ़ता जा रहा है बल्कि यों कहा जाए कि आत्महत्या करने का एक फैशन सा चल निकला है। कोई कर्ज में डूब गया तो आत्महत्या, किसी की मनमाफिक शादी नहीं हुई तो आत्महत्या, कोई फेल हो गया तो आत्महत्या, यानीं कि कोई न कोई बहाना लेकर आत्महत्याओं का जुनून सवार होता जा रहा है। आत्महत्या अपने घर परिवार के अलावा देश के साथ भी बहुत बड़ी गद्दारी है। क्योंकि पाल पोस और पढ़ा लिखा कर आत्मनिर्भर बनते-बनते देश की कितनी ऊर्जा लगती है। इसकी कल्पना करके देखिए।
आत्महत्याओं को रोकने का सर्वश्रेष्ठ उपाय यह है कि आत्महत्या करने वालों की लाश को पैरों की ओर से रस्सी द्वारा कूड़ा ढोने वाली गाड़ी से बांध दिया जाए और पूरे शहर में उसे घसीटते हुए प्रदर्शन किया जाए कि देखो आत्महत्या करने वालों के शरीर की क्या दुर्गति हो रही है। उस लाश को घरवालों को न सौंप कर मल मूत्र युक्त गटर लाइन के हौज में पटक दिया जाय सड़ने के लिए।
यही नहीं मृतक के परिजनों से किसी भी प्रकार की कोई सहानुभूति या उनकी आर्थिक मदद भी नहीं की जाय बल्कि आत्महत्या करने वालों के परिजनों को भी कटघरे में खड़ा करके उनको भी दंडित किया जाय क्योंकि उनके होते हुए उसने आत्महत्या क्यों की? यदि आत्महत्या करने वाला कर्ज लेकर मरा है तो उसकी चल अचल संपत्ति जब्त करके कर्जे की भरपाई की जाय। कहने का मतलब है कि जितनी भी हो सके हर संभव तरीके से प्रताड़ना की जाय। भले ही वह कर्ज लेकर नहीं मरा हो तो भी उसकी चल अचल संपत्ति को सरकार जब्त करें।
हालांकि यह सब कार्य अमानवीय है किंतु इसके परिणाम ऐसे चमत्कारिक होंगे जो भूतो न भविष्यते। यदि देखा जाए तो फांसी भी अमानवीय है किंतु दंडित करने और संपूर्ण समाज को भयभीत करने के उद्देश्य को लेकर फांसी भी तो दी जाती है ताकि फांसी के भय से लोग जघन्य अपराधों को करने से बचें। दूसरी बात यह है कि फांसी तो जिन्दे व्यक्ति को दी जाती है यानीं कि जीवित की हत्या की जाती है और यह कृत्य तो मृत व्यक्ति की लाश के साथ होगा जो आत्महत्या करने वालों के परिवार समाज तथा देश के लिए अत्यंत लाभकारी होगा इसमें तो कोई बुरी बात नहीं है। यदि एक भी केस ऐसा हो गया और आत्महत्या करने वाले की लाश को संपूर्ण शहर में पूरे दिन खचेढ़ते हुए लोगों को दिखाया गया और उस दृश्य को दूरदर्शन पर देशभर के लोग देखेंगे तथा समाचार पत्रों में फोटो व खबरें छपेंगी तो भविष्य में आत्महत्या करने वालों के इरादे एकदम बदल जाएंगे।
कोई माने या ना माने मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि पहला केस होते ही आत्महत्याओं का सिलसिला एकदम उड़न्छू हो जाएगा और जहां दो चार केस हो गए तो समझो कि आत्महत्याऐं करना गुजरे जमाने की बात ठीक वैसे ही हो जाएगी जैसे सती प्रथा यानी ग्राफ एकदम जीरो पर आ जाएगा। कोई भी इंसान यह नहीं चाहेगा कि मेरे शरीर की ऐसी दुर्गति हो और अंतिम संस्कार आदि सभी क्रिया कर्म मल मूत्रों के साथ लिपट चिपट कर सीवर के मैनहोल में सढ़ते हुए हों। संभवतः कुछ लोग इस विचार से सहमत नहीं होंगे और यह है भी असंभव क्योंकि कानून बनाने और उसका अनुपालन कराने वालों में भी तो आत्महत्या या उससे भी बड़े अपराध करने वाले अपराधी बैठे हुए हैं। वे इस विचार से क्यों सहमत होंगे? ऐसी नकारात्मक सोच के लोग तो जनता के मध्य में भी है। मैं फिर इस बात को दोहरा रहा हूं कि एक भी ऐसा मामला हुआ नहीं की आत्महत्यायें ऐसे गायब हो जाएंगी जैसे गधे के सिर से सींग। और प्रतिदिन अनगिनत लोगों का काल के गाल में जाना समाप्त हो जाएगा जो समाज व देश के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होगा।
आत्महत्यारों की आत्मा मुक्ति के लिए छटपटाती रहती है
आत्महत्यारों को यह नहीं पता कि जो लोग स्वाभाविक मौत के बजाय स्वयं अपनी जान देते हैं शास्त्रों के अनुसार उनकी मुक्ति नहीं होती तथा आत्मा बुरी तरह छटपटाती और भटकती रहती हैं लंबे अरसे तक।
एक और बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब लोग आत्महत्या हेतु नदी में छलांग लगा लेते हैं, तब उस समय जब उनके मुंह व नाक के द्वारा पानी अंदर चला जाता है और उनका दम घुटने लगता है। उस समय वे इस कदर हाथ पैर मारकर पानी से निकलने के लिए छटपटाते हैं कि पूछो मत। उस समय तो केवल और केवल उन्हें यही सूझता है कि कैसे भी हो हमारी जान बचे। ऐसे एक नहीं अनेक लोगों को बचने का प्रयास करते हुए देखा गया है। यह भी देखा गया है कि एक बार यदि डूबते-डूबते कोई बच गया तो फिर वह दोबारा आत्महत्या करने का नाम भी नहीं लेता।
इसी प्रकार जब लोग पेट्रोल या मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा लेते हैं। उस समय जैसे ही आग फैलती है तो वे चुपचाप शांति से बैठ कर अपने आप को भस्म नहीं होने देते कि हमें तो मरना ही है, बल्कि फिर तो वे इधर-उधर चारों ओर भागकर आग बुझाने की कोशिश करते हैं तथा छटपटाते हैं बचने के लिए। क्योंकि उस समय तो उन्हें असहनीय पीड़ा के कारण बचने की लगती है।
यही स्थिति फांसी का फंदा लगाकर मरने वालों की होती है, वे भी जब दम घुटने लगता है तब बचने के लिए बिजली की गति से हाथ पैर चलाते हैं किंतु बचने का कोई रास्ता नहीं होता और दम घुटता चला जाता है तथा स्थिति वह हो जाती है कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गईं खेत। अतः हम सभी को आत्महत्या जैसे घृणित अपराध करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। इससे अपना लोक परलोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं।