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कोरोना ने दिया शाकाहार और छुआछूत अपनाने का मंत्र
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मथुरा। देर आए दुरुस्त आए की कहावत के अनुसार कोरोना के खौफ ने दुनिया को शाकाहारी बनने और छुआछूत बरतने का मंत्र देकर हमारी सनातन संस्कृति अपनाने का मंत्र देते हुए यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे पूर्वज जो नियम बना गए वह सही है।
चीन जैसे मांसाहारी देश अब शाकाहार की ओर बढ़ रहे हैं और दुनिया भर में छुआछूत का बोलबाला हो रहा है यानी लोग अब एक दूसरे से हाथ तक मिलाने से कतरा रहे हैं और दूर से ही नमस्ते हो रही है।
हमारे बुजुर्गों ने चार वर्णों में समाज को बांट रखा था। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र। सभी के अपने-अपने कार्यक्षेत्र थे। ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा, पंडिताई व क्रिया कर्म इत्यादि, वैश्य का वाणिज्य (व्यापार), क्षत्रियों को मातृभूमि की रक्षा तथा शूद्रों को साफ-सफाई यानी सेवा की जिम्मेदारी दे रखी थी। ब्राह्मण, वैश्य, तथा क्षत्रिय खेती और गौपालन में भी अपनी भूमिका निभाते-निभाते आए हैं।
सेवा का कार्य करने वाले शूद्र जो पूरे समाज के मल मूत्र की साफ-सफाई या अन्य छोटे कार्य करते हैं का स्थान भी कम नहीं है। यह लोग घृणा या तिरस्कार के नहीं स्नेह और दया के पात्र हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह सब परिस्थितियां कर्म और संस्कारों से बंधी हुई हैं। हमें कहां जन्म मिलना है और क्या कार्य करने हैं। यह सब ऊपर अदालत तय करती है जो अदृश्य है। भले ही कोई माने या ना माने पर यह अटल सत्य है।
इन दलितों से शारीरिक दूरी बनाए रखने की पुराने जमाने से चली आ रही प्रथा (जिसे वोटों की राजनीति ने छुआछूत का नाम दे रखा है) एकदम सही थी, क्योंकि हर प्रकार की गंदगी व मलमूत्र की साफ-सफाई करने के कारण इन लोगों पर रोग फैलाने वाले कीटाणुओं का प्रकोप बना रहता है। क्योंकि यह लोग निरंतर इस कार्य में लिप्त रहते हैं इसलिए यह आदी हो जाते हैं और इन लोगों पर रोगों का असर ज्यादा नहीं हो पाता क्योंकि इनके अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक रहती है।
उदाहरण के लिए जिस बीमारी की रोकथाम के लिए टीका लगाया जाता है। उस टीके में उसी बीमारी के रोगाणु अथवा बैक्टीरिया डालें जाते हैं ताकि फिर वह बीमारी शरीर में असर न दिखा सके। क्योंकि सहन करने की क्षमता आ जाती है, ऐसा हम बचपन से सुनते आए हैं।
अन्य वर्णों के लोग जो निरंतर गंदगी का कार्य नहीं करते, उनके बचाव के लिए यह नियम बनाए गए थे कि इनसे बचकर रहो। छुओ मत या गांव में इन लोगों का कुआं व बस्ती अलग हो। यदि एक ही कुएं में इनके व सवर्णो के बर्तन डाले जाएंगे तो फिर वही बात होगी कि कुएं के पानी और एक दूसरे के बर्तनों के माध्यमों से रोगाणु या बैक्टीरिया फैलेगें। खैर अब तो नल व समरसेबल का जमाना आ गया। एक बात यह भी सोचो कि जब महिला रजस्वला होती है तब उसे अछूत की तरह माना जाता है और घर के सभी लोग उससे अलग रहते हैं। उदाहरण के लिए घर में रखा अचार उस महिला से जरा भी छू जाए तो शीघ्र ही वह अचार खराब हो जाएगा व इसमें फफूंद आ जाएगी। कहने का मतलब है कि प्राचीन समय से चली आ रही छुआछूत के पीछे वैज्ञानिक आधार है।
क्या अब उन महिलाओं को भी अपने घर वालों पर छुआछूत का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा दर्ज कराना चाहिए। राजनैतिक दलों को अब महिलाओं के वोट लेने के लिए भी सोचना चाहिए तथा ऐसा कानून बनाने की मांग करनी चाहिए ताकि महिलाएं भी अपने घर वालों के खिलाफ रिपोर्ट लिखा सकें।
अब छुआछूत को तो वोट की राजनीति का अखाड़ा बना कर रख दिया है और जो तमाशा हो रहा है वह सर्वविदित है। दलितों के घरों पर जाकर खाना खाने का नाटक हो रहा है। यदि इन दलितों से इतना ही प्यार है तो फिर घर में अपने बुजुर्गों की मौत होने पर 12 ब्राह्मणों को क्यों जिमाते हो? 12 दलितों को जिमाओ, अपने घर में कथा इत्यादि भी इन्हीं से कराओ, तब हम जाने कि सच्चे दलित प्रेमी हो। यह सब पाखंड दिखावटी है, ऐसा करके यह लोग दलितों को छल रहे हैं।
चलो यह मान लिया जाए कि यह सब दलितों के उत्थान के लिए हो रहा है तो फिर दलित ही आपस में छुआछूत क्यों बरत रहे हैं? मेरा सुझाव है कि यह नेता लोग जब दलितों के यहां भोजन करने जाएं तो इन घुमंतू जनजाति के लोगों को भी अपने साथ ले जाएं, फिर जो होगा वह देखने लायक होगा। यह दलित अपने से नीचे वाले इन दलितों को घर में घुसने ही नहीं देंगे और उंगलियों में अंटी मंटी मारकर दूर-दूर भागेंगे।
इस संबंध में एक रोचक किस्सा बताना चाहूंगा। लगभग 5 दशक पूर्व होली गेट चैराहे पर एक बाल्मीकि रोजाना चाय नाश्ते की दुकान के अंदर कुर्सी पर बैठ जाता और चाय नाश्ते का आॅर्डर देता। चाय नाश्ता ना देने पर गालियां बकता और छुआछूत की रिपोर्ट लिखाने की धमकी देता। दुकानदार परेशान क्योंकि वाल्मीकि को बराबर बैठे देख उसके ग्राहक बिदकते थे। दुकानदार ने युक्ति निकाली वह घुमंतू जनजाति वाले एक दलित को पकड़ लाया जब वाल्मीकि आया तो उसको चाय का कप और नाश्ते की प्लेट लेकर वही घुमंतू जनजाति वाला (जिनको बाल्मीकि अछूत मानते हैं) आया और उसके सामने रख दी।
बस फिर क्या था फिर तो वह उस की जाति का नाम लेकर बोला कि इस कंजर के हाथ से छुआ नहीं खाऊंगा। इस पर दुकानदार ने कहा कि खाएगा कैसे नहीं तेरे खिलाफ अब रिपोर्ट लिखी जाएगी इसके बाद तो वह सिर पर पैर रख कर भाग गया और बाद में कभी नहीं आया। कश्मीर में धारा 370 हटाने के पहले जो कानून था कि जो लोग साफ सफाई वाले हैं, वह केवल साफ-सफाई का कार्य ही करेंगे यह कानून बिल्कुल सही था।
अब बात शाकाहार की आती है, उदाहरण के लिए एक लोकी या तोरई अथवा किसी भी सब्जी को एक डिब्बे में बंद कर दो और उसी प्रकार एक मरे हुए चूहे या किसी अन्य जानवर को भी डिब्बे में बंद करके रख दो अगले दिन जानवर वाले डिब्बे से भयंकर दुर्गंध फैलने लगेगी और सब्जी वाले डिब्बे से हफ्तों बाद तक भी कोई खास दुर्गंध नहीं आएगी। मतलब यह है कि जो हम खाना खाते हैं उसका अंश छोटे-छोटे कणों के रूप में कई कई दिन तक हमारे पेट की आंतों में बना रहता है। अंदाजा लगा लो कि कितनी दुर्गंध हमारे पेट में फैलकर तमाम तरह की बीमारियां फैलाती होगी।
समझदार को इशारा काफी होता है और नासमझ को कितना भी माथा मारो, बिल्कुल नहीं मानेगा और कुतर्क करेगा। एक और बात समझ में नहीं आती है कि लोग मुर्दे से तो दूर रहते हैं चाहे इंसान हो या पशु लेकिन मुर्दे को खाने से बिल्कुल नहीं चूकते यानी मुर्दे से छिवने से परहेज और खाने से कोई गुरेज नहीं। यह कौन सी बात हुई। दूसरी एक बात और कुछ लोग अंडा खाने को शाकाहारी कहते हैं और कहते हैं कि इसमें जीव नहीं होता। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि कुछ अंडे ऐसे भी होते हैं जिनसे बच्चा नहीं निकलता, उन्हें खाने में कोई बुराई नहीं।
ऐसे लोगों को बाबा जयगुरुदेव वाली बात समझनी चाहिए, बाबा जयगुरुदेव कहते थे कि जैसे स्त्री का मासिक धर्म होता है वैसे ही मुर्गी का भी यह मासिक धर्म है या दैनिक कह लो अथवा साप्ताहिक कह लो, चीज वही है। यदि हम अंडा खाते हैं तो मासिक धर्म की गंदगी का सेवन करते हैं। अतः हम सभी को पूर्वजों के आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए, यह हम सभी के लिए श्रेयकर होगा।