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पितृ पक्ष: तीन पीढ़ियों का ही होता है श्राद्ध कर्म
झांसी। पंचांग के अनुसार, हर साल भाद्रपद माह की पूर्णिमा तिथि से लेकर आश्विन अमावस्या तक पितृ पक्ष होता है और इन 16 दिनों में पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध किए जाते हैं। श्राद्ध की 16 तिथियां होती हैं, पूर्णिमा, प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्टी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या। उक्त किसी भी एक तिथि में व्यक्ति की मृत्यु होती है चाहे वह कृष्ण पक्ष की तिथि हो या शुक्ल पक्ष की। नए फसल के कटने से पहले पितरों को याद करके उन्हें जल (तर्पण) और भोजन (पिंड) प्रदान किया जाता है।श्राद्ध के जो 16 दिन होते हैं उनमें मांगलिक कार्य जैसे विवाह, मुंडन, उपनयन संस्कार, नींव पूजन गृह प्रवेश जैसा कोई काम करना शुभ नहीं माना जाता। भविष्य पुराण में श्राद्ध के 12 प्रकार के बारे में बताया गया है। ये हैं नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, सपिंडन, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धयर्थ, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ और पुष्टयर्थ। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं।
पितर भी एक प्रकार से देवता ही है जो सब जिवों के आदिपूर्वज माने गए हैं। जिनकी वजह से आप, हम, सब अस्तित्व में आए। मनुस्मृति के अनुसार ऋषियों से पितर, पितरों से देवता और देवताओं से संपूर्ण स्थावर जंगम जगत की उत्पत्ति हुई है। धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती है। इसीलिए श्राद्ध कर्म तीन पीढ़ियों का ही होता है। इसमें मातृकुल और पितृकुल (नाना और दादा) दोनों शामिल होते हैं। तीन पीढ़ियों से अधिक का श्राद्ध कर्म नहीं होता है । पितृ दोष शांति, गया जैसे पितृ तीर्थ श्राद्ध या फिर नारायण बलि करते हैं तो सात पीढ़ी का स्मरण किया जाता है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता और वे सभी बुजुर्ग भी शामिल माने गए हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने और उसका विकास करने में सहयोग दिया।
जो शरीर में नहीं रहे हंै, पिंड में हैं, उनका भी नौ तत्वों का पिंड रहता है। उनका स्थूल पिंड नहीं बल्कि वायूमय पिंड रहता है। बता दें कि पितरों का पिंडदान इसलिए किया जाता है ताकि उनका पिंड की मोह माया छूटे और वो आगे की यात्रा प्रारंभ कर सके। वो दूसरा शरीर, दूसरा पिंड या मोक्ष पा सके।
इसलिए आत्मा को पितृलोक भेजने के लिए पिंडदान (सपिंडन) करना चाहिए। पिंडदान में पके चावल, आटा, घी एवं तिल को मिलाकर पिंड बनाए जाते हैं। पितरों के श्राद्ध के लिए पूर्वाह्न की बजाय 'मध्यान्हÓ तथा 'अपराह्नÓ का समय श्रेष्ठ माना गया है। जबकि पितरों का श्राद्ध, तर्पण भूलकर भी शाम या रात के समय नहीं करना चाहिए। जिस तिथि में पूर्वज की मृत्यु हुई हो उसी तिथि में श्राद्ध, तर्पण या पिंडदान करना चाहिए। वहीं ऐसे पितर 'जिनके मृत्यु की तिथि पता न हो, उनका श्राद्ध सर्वपितृ अमावस्या यानी अश्विन माह की अमावस्या तिथि पर किया जाता है।Ó
हिंदू धर्म के अनुसार, घर के मुखिया या प्रथम पुरुष अपने पितरों का श्राद्ध कर सकता है। अगर मुखिया नहीं है, तो घर का कोई अन्य पुरुष अपने पितरों को जल चढ़ा सकता है। इसके अलावा पुत्र और नाती भी तर्पण कर सकता है। शास्त्रों के अनुसार, पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पितृ कर्म ही ऐसा है जिसे आप को स्वयं ही करना चाहिए तभी सफल माना जाता है अन्य अन्य यज्ञ, पूजन, हवन या दान जैसे आप संकल्प देकर अन्य किसी प्रतिनिधि से नहीं करा सकते क्यूं की ये आप के वंश, गोत्र परम्परा का विषय है।
जिस व्यक्ति की जन्म कुंडली में पितृ दोष है, उसे अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध करना आवश्यक है। दोनों विवाहित और अविवाहित लोग त्रिपिंडी श्रद्धा प्रदान करने का अधिकार रखते है, लेकिन एक अकेली महिला इस अनुष्ठान त्रिपिंडी श्रद्धा नहीं कर सकती। त्रिपिंडी श्राद्ध को 'काम्य श्राद्धÓ कहा जाता है। यदि श्राद्ध कई वर्षों तक नहीं किया जाता है तो (माता -पिता, दादा -दादी) पूर्वजों की आत्मा दुखी रहती है। ऐसी मान्यता है कि पितरों के नाराज रहने के कारण घर की किसी संतान का विवाह नहीं होता है और यदि हो भी जाए तो वैवाहिक जीवन अस्थिर रहता है। मतलब कि वंश परंपरा आगे बढ़ाने में अवरोध होता है। यदि पितृ नाराज हैं तो आप जीवन में किसी आकस्मिक नुकसान या दुर्घटना के शिकार भी हो सकते हैं। घर में पितरों की तस्वीर हमेशा उत्तर दिशा की तरफ ही लगानी चाहिए। साथ ही पितरों का मुंह दक्षिण दिशा में होना चाहिए। श्राद्ध पक्ष में तामसिक भोजन से दूर रहना चाहिए। श्राद्ध में सिर्फ सात्विक भोजन ही बनाया जाता है। इसमें प्याज, लहसून, पीली सरसों का तेल, बैंगन, मांस, मदिरा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कहते हैं जिन पूर्वजों का श्राद्ध कर रहे हैं अगर उनकी रूचि का भोजन बनाकर श्रद्धा से खिलाया जाए तो जीवनभर खुशहाली बनी रहती है।
श्राद्ध में नहाते समय तेल, उबटन का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। श्राद्ध कर्म के दौरान लोहे के बर्तन में खाना पकाने से बचना चाहिए। पितृपक्ष में पीतल, तांबा या अन्य धातु के बर्तनों का प्रयोग शुभ माना जाता है। कोई शुभ काम का प्रारंभ नहीं करना चाहिए। पहले से ही चल रहे कार्यों को सुचारू किया जा सकता है। श्राद्धों में जब तक अत्यावश्यक ना हो तब तक नए कपड़ों के पहनने और खरीदने की मनाही होती है।
लेकिन शास्त्रों के अनुसार, श्राद्ध का भोजन हर किसी के लिए शुभ नहीं माना गया है, क्योंकि श्राद्ध का भोजन पितरों के नाम से बनाया जाता है, जो वासनामय, अर्थात रज-तम से युक्त होता है, इसलिए श्राद्ध का भोजन करना हर किसी के लिए शुभ नहीं होता। श्राद्ध का भोजन ग्रहण करनेवालों को कष्ट होने की संभावना अधिक बनी रहती है।
कुछ लोग कुतर्क करके श्राद्ध का विरोध करते हैं उनके लिए हम इतना ही कहना चाहेंगे हर चीज़ दूसरों के चश्मे से देखने की जरूरत नहीं अपने ही चश्मे से देखेंगे तभी स्पष्ट दिखाई देगा अन्यथा धुंधली दिखाई देने लग जाएगी और सर दर्द भी होगा। दुर्भाग्यपूर्ण बात तो ये है कि बटरफ्लाई इफेक्ट को सहर्ष स्वीकार करने वाले हमारे ही कुछ लोग श्राद्ध में प्रश्न करते हैं। उनके लिए मेरा सुझाव यही है कि वो लोग जिनको पूज रहे हैं वो उनके पूर्वज है तो फिर हम अपने पूर्वज को कैसे भूल सकते हैं। गाय खाने वालों की नजर से हम गाय पूजने वाले अपनी संकृति को ना देखे। सम्पदा सम्पन्न है बोल कर पड़ोसी को पापा बोल कर अपनी मां का चरित्र कलंकित ना करे। अपनी संस्कृति को स-गर्व स्वीकर कर अनुसरण करना चाहिए।
आवास विकास कालोनी शिवपुरी रोड, झांसी