शिवभक्तों के लिए कांवड़ यात्रा का विशेष महत्त्व होता है। श्रावण के महीने में शिव भक्त गंगा के तट पर स्नान करके इस यात्रा की शुरुआत करते हैं। वर्षों से कांवड़ यात्रा की परंपरा चली आ रही है।
गंगा स्नान करके कांवड़िए कलश में जल भरते हैं। फिर इस जल को कांवड़ में बांधकर शिव मंदिर में लाते हैं और शिवलिंग को अर्पित कर अपने आराध्य की पूजा करते हैं।
लकड़ी के एक डंडे को कांवड़ कहा जाता है। इसे रंगबिरंगे झंडों, धागों और फूलों से सजाया जाता है। इसके दोनों सिरों पर गंगाजल से भरे कलश या पात्र को लटकाया जाता है।
कांवड़ यात्रा काफी कठिन होती है क्योंकि शिवभक्त नंगे पैर गंगा जल को शिवालय तक लेकर जाते हैं। यात्रा के दौरान कांवड़ियों को सात्विक भोजन करना होता है। आराम करने के दौरान ये कांवड़ को किसी ऊँचे स्थान पर लटका देते हैं।
'शिवो भूत्वा शिवम जयेत' अर्थात शिव की पूजा शिव बन कर करो - यही कांवड़ यात्रा का संदेश है। माना जाता है कि, कांवड़ यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे आसान तरीका है।
माना जाता है कि, इन कांवड़ियों का अपमान नहीं करना चाहिए। इससे भगवान शिव क्रोधित हो जाते हैं। कांवड़ियों को भी भगवान शिव का ही स्वरुप मान कई लोग रास्ते में इनके लिए जल - पान की सेवा करते हैं।
भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए भक्त गंगा, नर्मदा और शिप्रा नदी से जल को कलश में लेकर शिवमंदिर तक यात्रा करते हैं। उज्जैन के महाकाल मंदिर में भी कांवड़ियों की भारी भीड़ इकठ्ठा होती है।
शिवलिंग के जलाभिषेक के दौरान भक्त पंचाक्षर, महामृत्युंजय आदि मंत्रों का जाप करते हैं। ऐसा करने से भोलेनाथ प्रसन्न होते हैं।