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कांग्रेस 'शहजाद' व 'शहजादे' के दोराहे पर

कांग्रेस शहजाद व शहजादे के दोराहे पर
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हर व्यक्ति व संगठन के जीवन में कई बार दोराहे आते हैं जो दुविधा पैदा करते हैं। आज कांग्रेस के संगठनात्मक चुनाव लगभग अंतिम पड़ाव पर है, ऐसे समय में पार्टी के समक्ष एक मार्ग है वंशवाद का जो जाना पहचाना व सुविधाजनक मार्ग है और जिस पर वह आज तक चलती आई है परंतु इस मार्ग पर चलते हुए वह पतन की कगार पर पहुंच गई। दूसरा मार्ग है लोकतंत्र का जो किसी ओर ने नहीं खुद पार्टी के ही एक कार्यकर्ता शहजाद पूनावाला ने दिखाया है। यह मार्ग चाहे अनभिज्ञ, अनदेखा और खतरों से भरा है परंतु अंतत: लोकतंत्र की ओर ही जाने वाला है यह सुनिश्चित है। साथ के साथ इस बात की पूरी संभावना है कि इस अनदेखे-अनजाने मार्ग पर चल कर ही पार्टी को नवजीवन प्राप्त हो सकता है।
कांग्रेस में वंशवाद पर बहुत कुछ लिखा, पढ़ा व सुना जा चुका है जिसे बार-बार दोहराने की आवश्यकता नहीं। राहुल गांधी के रिश्तेदार शहजाद पूनावाला ने ही कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने राहुल के अध्यक्ष बनाए जाने की प्रक्रिया को 'इलेक्शन नहीं सिलेक्शनÓ कहा। पूनावाला ने कहा- मैंने पार्टी अध्यक्ष के चुनाव को लेकर राहुल के दफ्तर फोन लगाया था, लेकिन वहां के लोगों ने मेरी बेइज्जती की। कांग्रेस ने पहले सरदार पटेल को नीचा दिखाया था, अब यही मेरे साथ भी किया जा रहा है। शहजाद ने पूरी चुनाव प्रक्रिया को मजाक बताया है। शहजाद के भाई तहसीन पूनावाला रॉबर्ट वाड्रा के जीजा हैं। शहजाद पार्टी के सचेतक (व्हीसल ब्लोअर) बन कर उभरे हैं परंतु देखना यह है कि पार्टी उनकी आवाज पर जागेगी या नहीं।
कांग्रेस पार्टी के इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो सामने आता है कि पार्टी 45 साल तक गांधी-नेहरु परिवार के नेतृत्व में ही चलती रही। पार्टी के नेता गांधी परिवार के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि इस परिवार का नाम उन्हें संगठित व एकजुट रखने के लिए गोंद का काम करता है। जिस तरह बैल के जिए जूआ जरूरी है उसी तरह कांग्रेसी नेताओं को अनुशासन में रखने के लिए गांधी परिवार का छत्र चाहिए। याद करें सीताराम केसरी की अध्यक्षता का वह कार्यकाल जब पार्टी के गले से गांधी परिवार का जुआ उतरते ही किस तरह अनुशासनहीन दिखाई देने लगी थी। हर कोई अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग बजाता नजर आरहा था। केसरी के अध्यक्ष होते हुए भी पार्टी के नेता दस जनपथ पर नतमस्त होते व कई तो केसरी जी के अपमान का अवसर भी नहीं चूकते थे। लगभग ऐसा ही व्यवहार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ भी दोहराया गया जब कुर्सी पर मनमोहन विराजमान थे जबकि सारी शक्तियां अघोषित रूप से सोनिया दरबार के पास थीं। सभी कांग्रेसी मनमोहन सिंह से अधिक सोनिया व राहुल को प्राथमिकता देते।
भारतीय राजनीति में व्यक्तिपूजा या नायकवाद सदैव से प्रभावी रहा है। महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी तक इसी राजनीति के प्रतीक हैं। लेकिन कांग्रेस के विपरीत भाजपा ने नायकवाद को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया अन्यथा आडवाणी के होते मोदी को आगे नहीं आने दिया जाता। भाजपा ने अपने लोकप्रिय चेहरों का लाभ संगठन की मजबूती के लिए उठाया जबकि कांग्रेस का संगठन ही नायकों पर निर्भर हो कर रह गया और वो आज भी व्यक्तिपूजा का जूआ गले से उतारने को तैयार दिखाई नहीं रहा है।
कोई भी संगठन व समाज अंतत: व्यक्तियों से ही बनता है और व्यक्ति के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। हर व्यक्ति का सम्मान व उसके अधिकारों की रक्षा आवश्यक है परंतु कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो वह संगठन, समाज या देश से बड़ा नहीं हो सकता। इस संबंध में एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघचालक डा. हेडगेवार ने अपने कार्यकर्ताओं से पूछा कि मान लो मैं आपको संघ को खत्म करने का आदेश देता हूं तो आप क्या करोगे। इस प्रश्न पर बैठक में सन्नाटा छा गया परंतु एक कार्यकर्ता ने कहा कि हम आपकी इस आज्ञा का पालन नहीं करेंगे। इस जवाब पर डा. हेडगेवार अत्यंत प्रसन्न हुए और उस कार्यकर्ता के सम्मुख मुखातिब हो कर बोले कि केवल आपने ही मेरे ध्येय को सही अर्थों में समझा है। संगठन बड़ा है, विचार बड़ा है कोई व्यक्ति विशेष नहीं। संगठन के उत्थान में ही कार्यकर्ता के उत्थान का भी मार्गप्रशस्त होता है।
कांग्रेसी नेताओं में निराधार भय व्याप्त है कि गांधी परिवार के अतिरिक्त कोई और उनका सफल नेतृत्व नहीं कर सकता। वे अपने इस भय के पीछे कांग्रेस के अतीत में हुए विभाजन व सीताराम केसरी के समय फैली अनुशासनहीनता के कारण गिनाते हैं परंतु यह भूलते हैं कि केसरी जी के कार्यकाल के दौरान पार्टी में जो कथित अंतर्कलह पैदा हुआ वह आंतरिक लोकतंत्र का गर्भाधान था। अभी पार्टी नेहरू-गांधी परिवार रूपी विशाल वट की छाया से बाहर निकली थी और छाया हटने से उसके नीचे नए नेतृत्व के कई अंकुर फूटने लगे थे। यह पार्टी के नवीनीकरण का आगाज था, अलगाव नहीं विस्तार था। कई बार हम कुछ घटनाओं का गलत अर्थ निकाल लेते हैं अंतत: जिसका नु्क्सान आगे जाकर भुगतना पड़ता है। जैसे किसी दल में नेताओं के अपनी ही पार्टी व नेताओं पर सवाल उठाने को अंतर्कलह का नाम दे दिया जाता है परंतु एक सीमा तक यह आंतरिक लोकतंत्र का ही द्योतक भी है। इसका एक अर्थ यह भी है कि इस दल में लोगों को बोलने की स्वतंत्रता है और इसी से दलों में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। लेकिन कांग्रेस ने बहुत जल्दी भयाक्रांत हो कर अपने गर्भ में पनप रहे आंतरिक लोकतंत्र के अंकुरों को फिर से गांधी परिवार की छाया से ढांप दिया और केसरी जी के बाद सोनिया गांधी को अपना अध्यक्ष चुन लिया। आज फिर वही भय उन्हें राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने को विवश कर रहा है।
कांग्रेसियों को लगता है कि गांधी परिवार के बिना पार्टी चल पाएगी भी या नहीं। यही प्रश्न कभी अटल-आडवाणी को लेकर भाजपा में और सचिन तेंदुलकर को लेकर टीम इंडिया में भी पूछा गया था। लेकिन आज जैसे तेंदुलकर के बिना भी विराट कोहली के नेतृत्व में टीम इंडिया सफलता की नई ऊंचाईयां छू रही है वैसे ही मोदी व अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा चुनाव दर चुनाव में जीत दर्ज कर रही है। शहजाद पूनावाला ने कांग्रेस को एक नया रास्ता दिखाया है, जो चाहे अज्ञात व कठिन परिश्रम व खतरों से भरा है परंतु सफलता की तरफ यही रास्ता जाता है। शहजादे का मार्ग पार्टी को परेशानी में ही डाले रहेगा। हां यह अवश्य संभव है कि शहजाद के मार्ग पर चल पर चलते हुए पार्टी के शहजादे कहे जाने वाले राहुल गांधी भी भविष्य के नेता बन कर उभर सकते हैं।
- राकेश सैन

Updated : 6 Dec 2017 12:00 AM GMT
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