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ऊर्ध्वगमन हमारे प्राणों की आदिम पुकार

प्राण विश्वधारक दिव्यता हैं। प्राण का घनत्व ही जीवन का गाढ़ापन है। यह प्राण ही शरीर के सभी अंगों में जीवनशक्ति का संचार करता है। प्रश्नोपनिषद् के मुख्य वक्ता पिप्पलाद से आश्वलायन ने पूछा यह प्राण स्वयं को विभाजित करके किस प्रकार शरीर में रहता है। पिप्पलाद ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा, जैसे सम्राट ग्राम आदि इकाइयों में अलग अलग अधिकारी नियुक्त करता है। उनके काम का विभाजन करता है। उसी तरह यह प्राण भी अपने अंगभूतक अपान, व्यान आदि प्राणों को शरीर के अलग अलग अंगो में बांट देता है। यह स्वयं मुख और नासिका क्षेत्र में फैला हुआ आंख और श्रोत्र क्षेत्र में रहता है। यह कमर के क्षेत्र में अपान को स्थापित करता है। इसी के प्रभाव में मल आदि द्रव्य बाहर जाते हैं। गर्भ आदि को बाहर लाने का काम भी अपान ही करता है। शरीर के मध्य नाभि क्षेत्र में समान को रखता है। यह समान ही पेट में अन्न का पाचन करता है। यह अन्न के सत्व को शरीर के सभी अंगों तक पहुंचाता है। इसी के सारभूत रस से सात ज्वालाएं प्रकट होती हैं। इनसे समस्त विषयों को प्रकाशित करने वाले दो नेत्र, दो कान, दो नासिकाएं, छिद्र और स्वादेन्द्रिय ये 7 उत्पन्न होते हैं। ये 7 उपकरण अन्न के सारभूत रस से ही अपना अपना कार्य पूरा करते हैं। (प्रश्नोपनिषद् 3.4 व 5) यहां मनुष्य काया में वायु की गति और प्रभाव का सरल भौतिक विज्ञान है। उपनिषद् दर्शन को भाववादी बताने वाले प्रश्नोपनिषद् का पाठ करें। यहां प्राण-वायु का काय-विज्ञान उपनिषद् का विषय है। पिप्पलाद बताते हैं यह सिद्ध है कि आत्मा हृदय क्षेत्र में रहता है। हृदय में 100 नाड़ियों का समुदाय है। प्रत्येक नाडी की सौ उपशाखाएं हैं। ऐसी ही हरेक नाड़ी 72 हजार प्रतिशाखाएं हैं। इन सबमें व्यानवायु विचरण करता है। (वही 3.6) आत्मा हृदय क्षेत्र में रहता है या नहीं? यह विषय विज्ञान के गहन अन्वेषण का है लेकिन 72 हजार नाड़ियों का गणित आश्चर्यचकित करने वाला है। प्रश्न है कि मुख्य नाड़ियों, उनकी उपशाखाओं और प्रतिशाखाओं का अध्ययन कैसे हुआ होगा? दो ढाई हजार वर्ष पहले पदार्थ विज्ञान का ऐसा विकास नहीं था। प्रयोगशालाएं भी नहीं थी। शरीर विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन के लिए और भी अच्छी प्रयोगशालाओं की जरूरत थी। नाड़ियों की संख्या में लगभग विशेषण की गुंजाइश हो सकती है। ऐसा अंतर भी लगभग से ज्यादा नहीं है। मजेदार बात है कि शरीर विज्ञान की ऐसी चर्चा उपनिषद् के ऋषियों की मुख्य वार्ता का विषय थी। योग अध्यात्म में शरीर ही उपकरण होता है। आत्मा के बोध की बात अलग है, शरीर के अंतरंग रहस्य जाने बिना आत्मदर्शन की बात सोचना उचित नहीं कहा जा सकता। यहां भरापूरा शरीर विज्ञान है, आत्मा भी साथ-साथ चले तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
ऊपर आकाश है। परमात्मा को ऊपर वाला कहा जाता है। हम सब भौतिक उन्नति को ऊंचा उठना कहते हैं और अवनति को नीचे गिरना। ऊर्ध्वगमन हमारे प्राणों की आदिम पुकार है। पिप्पलाद ने वायु प्राण के विभाग और नाड़ियां बताने के बाद कहा, एक नाड़ी और है। इसके द्वारा उदान वायु ऊपर की ओर विचरण करता है। (वही 3.7) गीता प्रेस के अनुवाद में इस नाड़ी को सुषुम्ना कहा गया है। मूल श्लोक में सुषुम्ना का उल्लेख नहीं है। योग में सुषुम्ना को प्रमुख स्थान मिला है। आगे कहते हैं इस नाड़ी के द्वारा उदान अच्छे काम करने वाले पुण्य लोगों को प्राण और इन्द्रियों सहित पुण्य लोकों में ले जाता है। यही गलत काम वालों को पाप योनियों में ले जाता है और पाप पुण्य से उभय लोगों को मनुष्य शरीर में ले जाता है। (वही 3.7) कठोपनिषद् व गीता में संसार को उल्टा वृक्ष कहा गया है। इसकी जड़ें आकाश में हैं और पत्तियां नीचे। हमारा मूल आकाश है। ऊर्ध्वगमन की इच्छा स्वाभाविक है। उपनिषद् में उदानवायु कर्मचरित्र के अनुसार ऊर्ध्वगमन या अधोगमन कराता है। कर्मो के अनुसार श्रेष्ठ लोक या निम्न लोक की बात न माने तो जोर सदाचार पर है। मनुष्य भी उल्टे वृक्ष जैसा है, इसका मूल या जड़े सिर या मस्तिष्क में है, शेष शरीर नीचे। सबकी चेतना ऊर्ध्वमुखी है। गमन आनंद का स्रोत हो सकता है।
सूर्य प्रकृति की विराट शक्ति है। सूर्य को प्राण कहा गया है। पुनर्जन्म के विश्वासी प्राण का आवागमन मानते थे। प्राण एक शरीर छोड़कर दूसरे को ग्रहण करता है साथ में इन्द्रियां भी जाती हैं। आगे (3.8) कहते हैं प्राण सूर्य रूप उदित होकर शरीर के वाह्य अंगों को पोषण देते हैं। वे ही देखने, सुनने आदि की आंतरिक क्षमता को व्यवस्थित रखते हैं। पृथ्वी पर बहती अपानवायु शरीर के भीतर की अपानवायु को व्यवस्थित रखती है। पृथ्वी और आकाश के मध्य समानवायु है। वह शरीर के वाह्य अंगोंं पर अनुकम्पा करती है। यहां शरीर के वाह्य व आंतरिक तंत्र को प्राण शक्ति द्वारा संरक्षित होने का तथ्य है। अपान, समान आदि प्राण वायु के ही घटक हैं। आगे उदान वायु की भूमिका पर बताते हैं, सूर्य को पहले ही प्राण बता चुके हैं। इसी का तेज या ऊष्ण तत्व उदान है। शरीर का ताप या तेज शांत होता है। ऐसे शांत तेज वाले शरीर की इन्द्रियां मन में विलीन हो जाती हैं। ऐसी जीवात्मा पुनर्भव को प्राप्त होती है। (वही 3.9) हम सब देखते हैं कि मृत्यु के पूर्व शरीर का ताप क्षीण होता है। पिप्पलाद ने इसे उदान कहा है। उदान प्राण का ही भाग है। तेज गया तो जीवन भी गया। पिप्पलाद के तत्व दर्शन में शरीर विज्ञान के गहन सूत्र हैं। प्राण की महत्ता पर ध्यान देना आवश्यक है।
जीवन की मुख्य धारा प्राण शक्ति है। जीवन का मुख्य कारण मन संकल्प है। अभिलाषा और इच्छा ही जीवन गति के प्रमुख उपादान हैं। पुनर्जन्म मानने वाले मन संकल्प को ही बार-बार के जन्म का कारण बताते रहे हैं। गीता में भी पुनर्जन्म की मान्यता है। गीता और उपनिषद् के पहले ऋग्वेद के रचनाकाल में भी पुनर्जन्म की चर्चा है। वामदेव ऋषि के रचे एक अनुभूति मंत्र में कहते हैं मेरी ओर देखो। मैं ही मनु था, मैं ही कक्षीवान था। पिप्पलाद ने भी मन संकल्प पर जोर दिया है। प्रश्नोपनिषद् (3.10) में बताते हैं, जीवात्मा जिस संकल्प के साथ जीवन जीता है, उसी संकल्प के साथ मुख्य प्राण में स्थित होता है। प्राण उदान या तेज से युक्त होता है। यही व्यक्ति के मन संकल्प के साथ समस्त इन्द्रियों को भी भिन्न भिन्न लोकों में ले जाता है। यहां ध्यान देने योग्य मुख्य बातें दो हैं। पहली बात कि पुनर्जन्म का कारण मन संकल्प या हमारी अपूर्ण इच्छाएं हैं। दूसरी मुख्य बात है कि जीवात्मा शरीर त्यागते समय प्राण उदान अपने तेज के प्रभाव में सभी इन्द्रियों व मन को भी साथ ले जाता है। संभवत: इसीलिए बहुत सारे लोगों को पिछला जन्म याद हो जाता है। इन्द्रियां ही स्मृति कोष या डाटा तैयार करती हैं। अपनी इच्छानुसार उसका उपयोग करती हैं। शरीर त्यागते समय प्राण ही इन्द्रियों को नए शरीर में ले जाता है। स्मृति या डाटा भी साथ जाता है।
नि:संदेह पुनर्जन्म विज्ञान सिद्ध नहीं है। ज्ञान विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में अनुसंधान का काम जारी है। भविष्य किसने देखा है? संभव है कि देर सबेर भारतीय चिन्तन में बारंबार आए पुनर्जन्म विचार पर भी वैज्ञानिक सफल हों। संभावनाएं अनेक हैं। यह एक सुन्दर विचारणीय विषय भी है। उपनिषद् साहित्य में यह विषय अनेक प्रसंगों में आया है। प्रश्नोपनिषद् में यह विषय प्राण के साथ जोड़ कर देखा गया है और प्राण विज्ञान सिद्ध है। प्रश्नोपनिषद् में ऐसे पूरे ज्ञान की प्राप्ति को महत्वपूर्ण बताया गया है। कहते हैं, जो विद्वान इस तरह (प्राण शास्त्र) प्राण के ज्ञान को जानता है, उसकी संतति परंपरा सदा प्रवाहित रहती है, वह अमर हो जाता है। जो मनुष्य प्राण की उत्पत्ति का रहस्य जानता है। शरीर में प्राण प्रवेश व्यापकता स्थान व विकास का ज्ञानी है, जो इसके बाहरी व भीतरी प्रपंचों को जान गया है वह अमृत अनुभव पाता है। (वही 3.11 व 12) अमृत का सामान्य अर्थ है जो नहीं मरता। प्राण और पुनर्जन्म का बोध अमृत अनुभव ही है। हम जान सकें कि हम जीवात्मा के रूप में पर्यटक जैसे हैं, मरते नहीं, बार-बार नए होकर प्रवाहमान रहते हैं, तब कैसी मृत्यु? आगे वैज्ञानिकों के परिश्रम की प्रतीक्षा है।

Updated : 25 Feb 2018 12:00 AM GMT
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