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मोदी का विकल्प बनाने विपक्ष के नाकाम प्रयास

मोदी का विकल्प बनाने विपक्ष के नाकाम प्रयास
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दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक समझ राज्य के मुख्य सचिव को आधी रात अपने आवास पर पिटवाने तक जाकर ही विराम नहीं लेने वाली है। जिन्हें उन्होंने अपनी प्रेरणा स्रोत माना था, उन अण्णा हजारे द्वारा ढोंगी और छलावा करने वाला उपाधि पाने के बावजूद संविधान की मर्यादा में रहकर काम करने का उन्होंने कोई संकेत नहीं दिया है, यद्यपि बड़बोले और दम्भ भरी अभिव्यक्तियों पर विराम अवश्य लग गया है। लेकिन कब तक? उन्हें लगता था कि दिल्ली विधानसभा का अपार बहुमत से चुनाव जीत लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प बन जायेंगे, इसलिए उन्होंने सीधे मोदी पर प्रहार करना शुरू कर दिया था जो वूमरेंग होकर उन्हीं के हटकर रहा है। संवैधानिक व्यवस्था से ऊपर अपने को समझने वाले केजरीवाल ही नहीं, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी उनसे कई कदम आगे चली गई हैं। सेना के सैनिक अभ्यास को बंगाल पर हमला का शोर मचाने से लेकर राज्य के सवा सौ से अधिक शिक्षा संस्थाओं में तालाबंदी तक वे जो हरकतें कर चुकी हैं उस पर भले ही न्यायालय ने अंकुश लगाने का उपक्रम किया हो, ममता बनर्जी संविधान सम्मत आचरण के विपरीत कृत्यों से नरेंद्र मोदी का विकल्प बनवाने की अपेक्षा से स्वेच्छाचारिता के निकृष्ट स्तर पर उतर आई हैं। कल तक मोदी के प्रधानमंत्रित्व में देश की प्रगति की सराहना करने वाले एक तीसरे महानुभाव हैं जो मोदी का विकल्प बनने के लिए अपने नेतृत्व में विपक्ष की एकता के लिए सक्रिय हो गए हैं। उन्हें हम शरद पवार के नाम से जानते हैं। महाराष्ट्र में जब शिव सेना ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया था तब उन्होंने स्वेच्छाचारिता के प्रकोप से राज्य को बचाने के लिए देवेन्द्र फड़नवीस की सरकार को समर्थन की सार्वजनिक घोषणा कर दी थी।

प्रथम स्थान से तीसरा स्थान पर पहुंच जाने के कारण सत्ता को मनमानी दिशा देने में असमर्थता जो शिव सेना के साथ वे महाराष्ट्र में ही नहीं देश की राजनीति में अपना भविष्य देख रहे हैं। सत्ता के समय में जब उन्होंने अपने प्रेरक दादा साहिब पाटिल की पीठ में घात किया था तब से अब तक उन्होंने जितनी करवटें बदली हैं, उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे किस ओर करवट बदलेंगे। उनके नाम से मिलते जुलते यादव पहचान को मुखर करने में सारे पत्ते बिखर जाने के बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री से पंगा लेकर लालू यादव के समर्थन से राज्य सभा में लौटने की कोशिश में सफलता की संभावना क्षीण हो जाने के बाद दूसरे शरद (यादव) अब मोदी के विकल्प के रूप में उभरने के प्रति निराश हो चुके हैं तथापि पार्टी की नीति और रीति के विपरीत निरंतर मुखरित हो रहे, राज्यसभा में तीसरा कार्यकाल पाने की अपेक्षा के साथ भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ सहयोग का राग इस अपेक्षा से अलाप रहे हैं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल से मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने तक जो निर्णायक भूमिका हरकिसन सिंह सुरजीत की रही है, वही उन्हें प्राप्त हो जाय। नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में उभरने की संभावनाओं को तलाश करने वालों में एक और पैठ हो चुकी है, वह यह कि राहुल गांधी को कोई भी वैकल्पिक नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, भले ही कांग्रेस उन्हें अपना अध्यक्ष पद सौंपकर विकल्प के रूप में उभारने के लिए एकजुट हो गई है। संसद का बजट सत्र शुरू होने के पूर्व शरद पवार ने विपक्षी दलों के नेताओं की बैठक में सभी को चौंका दिया था। राज्य सभा में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने तो मुखरित होकर कहा कि विपक्षी दलों की बैठक बुलाने का अधिकार यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस के अध्यक्ष सोनिया गांधी का है। उन्होंने यह बैठक बुलाई भी जिसमें तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल जिनकी राज्यसभा में प्रभावी संख्या है अनुपस्थित रहे और अन्य दलों के दोयम दर्जे के लोगों की उपस्थिति से यह स्पष्ट हो गया है कि सीपीएम नेता सीताराम येचुरी कांग्रेस के साथ सहयोग का कीर्तन करने में अपनी पार्टी में भी अकेले पड़ गए हैं। ममता बनर्जी का अपने सांसदों को यह निर्देश कि वे संसद में कांग्रेस का अनुशरण करें और कुछ तटस्थ लोगों का उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए दिया गया सुझाव भी परवान न चढ़ पाने के बाद एक बात बहुत स्पष्ट है कि मोदी के मुकाबले एक मुखौटे की तलाश में विपक्ष को कोई सफलता नहीं मिलने वाली है इसलिए जो जहां मोर्चा ले रहा है, उसके सहयोगी बन कर अपने अस्तित्व को बचाए रखने का जो तरीका पिछले कुछ चुनावों से कांग्रेस ने अपना लिया है, उसी दिशा में बढ़ते अब बाकी दल अमल करना चाहते हैं। कर्नाटक के इसी वर्ष होने वाले निर्वाचन देवगौड़ा की जनता दल-एस शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी में प्रस्तावित चुनाव समझौता इसी दिशा का संकेत हैं। इस मोर्चे बंदी से कांग्रेस उसी तरह बाहर हैं जैसे गुजरात के चुनाव में कांग्रेस और तीन वर्गीय नेतृत्व के मोर्चे में धंसने के प्रयास में समाजवादी पार्टी असफल रही। कांग्रेस जिन राज्यों में प्रभावशाली है, यथा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश वहां किसी के साथ समझौता करने के मूड में नहीं है। महाराष्ट्र में वह भाजपा के मुकाबले शरद पवार, यहां तक कि शिव सेना के साथ सहयोग के लिए प्रयत्नशील है लेकिन बंगाल में वामपंथियों से तालमेल के उसके प्रयास को न तो सभी कांग्रेसी स्वीकार कर रहे हैं और न सीपीएम में सहमति बन पा रही है। संसद में शोर मचाने और नीरव मोदी काण्ड में भाजपा को घेरने में भी उसे सफलता नहीं मिल पा रही है।

तात्पर्य यह है कि विपक्ष नरेंद्र मोदी का विकल्प देश के सामने प्रस्तुत कर पाने के प्रयास में पूरी तरह विफल हो चुका है और जिस प्रकार 2004 में बिना विकल्प के ही चुनाव लड़कर वाजपेयी सरकार को अपदस्थ करने में उसे सफलता मिली थी, कुछ वैसा ही चाहे कुछ ही राज्यों में हो सके, तालमेल बैठाने का प्रयास हो रहा है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण करते समय इंदिरा गांधी ने कहा था कि ऐसा राजनीतिक कारणों से कर रही हैं। राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए किए गए उपाय में राजनीतिकों के हस्तक्षेप की बढ़ती प्रधानता ने सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं को भयावह हानि के बावजूद जिस प्रकार के नियोजन के लिए विवश किया गया उसके वह ललित मोदी, विजय माल्या, नीरव मोदी, चौकसी, कोठारी काण्ड में जिस प्रकार की लूट को उजागर करने का काम किया है, उसके लिए नरेंद्र मोदी के माथे पर कलंक लगाने का प्रयास, उनके देश से बाहर भाग जाने का मुद्दा बनाकर इसलिए प्रभावी नहीं हो पा रही है क्योंकि इन धनपतियों को बैंकों से नियमों के ऊपर जाकर धन देने के राजनीतिक दबाव का भी खुलासा होता जा रहा है। इसलिए कांग्रेस जो इन मुद्दों पर ज्यादा मुखरित हंै, लोगों को प्रमाणित कर विकल्प के रूप में उभरने के प्रयास में सफल नहीं हो पा रही है। क्योंकि उसका मुखौटा विश्वसनीय नहीं है। भले ही कुछ धनपति बैंकों को लूटकर विदेश भागे हों, और इसके लिए उनका प्रशासनतंत्र से सहयोग भी मिला हो, लेकिन वह मानने के लिए तैयार नहीं है कि इसके लिए नरेंद्र मोदी या उनका कोई सहयोगी जिम्मेदार है। जिस प्रकार नोटबंदी के समय मोदी विरोधी अभियान, उनके नेकनीयति को संदेह के घेरे में नहीं ला सका, वैसे ही इन कायदों के संदर्भ में जनभावना है। मोदी की नेकनीयति और भ्रष्टाचार रहित शासन तथा कष्टदायक होने के बावजूद निजी या दलीय स्वार्थ की प्राथमिकता के बजाय भविष्य आर्थिक मजबूती के प्रति विश्वास के कारण मोदी की साख को प्रचार कर बट्टा लगाने की कोशिश नाकाम होती जा रही है। इसलिए भले ही हर चुनाव चुनौती भरा होता है, आम धारणा और आकांक्षा भी है कि 2019 में मोदी को पुन: बहुमत के साथ सत्ता में आना चाहिए अन्यथा जो भी विकल्प होगा-यदि होगा तो-वह खिचड़ी होगा-अस्थायी होगा-और उसको बनाए रखने के लिए जैसा मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्वकाल के घोटालों के दायित्व से बचने के लिए कहा था-गठबंधन धर्म के पालन के दुष्परिणामों की पुनरावृत्ति हो जायेगी।

(लेखक पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं)

Updated : 1 March 2018 12:00 AM GMT
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