समरसता का पर्व होली
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भारत त्यौहारों का देश है, यहां हर दिन कोई न कोई त्यौहार होता है। राष्ट्रीय एकता का दृश्य उपस्थित करने वाले ये त्यौहार अपनी संस्कृति का हिस्सा हैं। इन त्यौहारों में कोई विकृति भी नहीं है। आज समाज में जो दिखाई दे रहा है, उससे ऐसा ही लगता है कि हम अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, जबकि आज हमारे त्यौहार सात समंदर पार भी बहुत उत्साह के साथ मनाए जा रहे हैं। भारत के प्रमुख त्यौहारों में इंद्रधनुषी छटा बिखेरने वाला होली का त्यौहार भी है। होली के मौसम में प्रकृति भी छटा बिखेरती है, यानी होली का त्यौहार पूरी तरह से प्राकृतिक ही कहा जाएगा। जो त्यौहार प्रकृति से तालमेल रखते हैं, वह पूरी तरह से जनता के लिए भी लाभकारी होते हैं। हम प्रकृति के पुजारी हैं, जैसे भगवान हमारी रक्षा करता है, वैसे ही प्रकृति भी हमारी रक्षा करती है, लेकिन वर्तमान में हम प्राकृतिक रीति रिवाजों को भूलते जा रहे हैं यानी हम प्रकृति और संस्कार का तालमेल नहीं बिठा पा रहे। इसी कारण हमारे त्यौहारों का स्वरुप संकुचित होता जा रहा है। इसके लिए पूरी तरह से हमारा समाज ही दोषी है। हमने देखा है कि समाज के कुछ बुद्धिजीवी लोग त्यौहार को सीमित करने का अभियान चला रहे हैं, कोई कहता है कि पानी बचाओ, लेकिन उन लोगों को शायद यह नहीं पता कि होली रंगों का त्यौहार है, हमारे कपड़ों पर रंग नहीं होंगे तो होली कैसे कही जा सकती है। हम वर्ष के शेष दिनों में पानी बचाने का अभियान क्यों नहीं चलाते।
समाज को गुमराह करने वाले कथित बुद्धिजीवी कभी दीवाली के परंपरावादी कार्यक्रमों पर सवाल उठाते हैं तो कभी होली के सांस्कृतिक स्वरुप पर। हम यह भी जानते हैं कि हर देश की अपनी पहचान होती है, उस पहचान को बनाए रखने के लिए प्रयास किए जाते हैं, त्यौहार हमारे देश की पहचान का शाश्वत अंग हैं, खिलखिलाती प्रकृति के साथ मनाए जाने वाला त्यौहार होली भी हमारा शाश्वत त्यौहार है, जो दुश्मनी के भाव को समाप्त करता है और सामाजिक समरसता का भाव प्रवाहित करता है। जब हम विविधता में एकता की बात करते हैं तो उसके मूल में सामाजिक समरसता का ही भाव रहता है। होली का स्वरुप भी सामाजिक समरसता वाला ही है, यहां वैमनस्यता का कोई स्थान नहीं है। भारत के एक चलचित्र शोले में एक गाना भी समरसता के भाव का प्रकटीकरण करता है।
आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमें अपने त्यौहारों की सांस्कृतिक अवधारणा का ज्ञान नहीं है, इसलिए ही लोग जैसा कहते हैं, हम वैसा ही मानते जाते हैं, इससे हमारे त्यौहारों का स्वरुप परिवर्तित हो रहा है। वास्तव में हमें अपने त्यौहारों को नहीं बदलना है, बदलना तो हमको है। हमें ध्यान रखना होगा कि हम क्या थे? इसका जवाब सही है कि हम सांस्कृतिक थे, प्राकृतिक थे, विश्व को ज्ञान का बोध कराने वाले थे, तभी तो हमारा देश विश्व गुरु के सिंहासन पर विराजमान था। हमारा अतीत अत्यंत स्वर्णिम रहा है, अतीत पाथेय का काम करता है। होली का अतीत भी सामाजिक समरसता के लिए पाथेय है। हम अगर होली सांस्कृतिक आधार के साथ मनाएंगे तो हम भारत देश की संस्कृति को मजबूत बनाने का ही काम करेंगे। देश की रक्षा केवल सीमा पर लड़ने से ही नहीं होती, देश की रक्षा संस्कारों की रक्षा करने से भी होती है। होली हमारा संस्कार है। इसलिए हम पूरी तरह आनंद पूर्वक होली मनाएं।