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मायावती ने हमेशा भविष्यवाणियों को गलत साबित किया है

मायावती ने हमेशा भविष्यवाणियों को गलत साबित किया है
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लखनऊ। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने गोरखपुर और फूलपुर में जहां सपा के उम्मीदवारों का समर्थन किया था वहीं अब दो उप-चुनावों में समाजवादी पार्टी (सपा) का समर्थन नहीं करने का फैसला करके उन युवाओं को अचरज में डाल दिया है, जो पहली बार मतदान करेंगे, लेकिन दूसरों को नहीं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए यह शायद ही एक खबर है, जिसकी उम्मीद पहले दिन से ही थी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसकी तुलना ‘केर और बेर की दोस्ती’ से की थी, जो कि चल नहीं सकती।
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव सहित पार्टी के नेताओं ने इस दोस्ती को मजबूत मान लिया था और उन्हें विश्वास नहीं था कि भाजपा ने उसे जो ‘अप्रत्याशित’ कहा था, वह सही हो सकता है। उप-चुनावों के परिणाम के बाद उनकी बहुत अधिक प्रशंसा की गई थी।

हालांकि सपा-बसपा का यह हनीमून एक पखवाड़े से अधिक समय बरकरार नहीं रह सका। 23 मार्च को राज्यसभा चुनाव में बसपा के उम्मीदवार की हार का बहाना इसका सबब बना था। जीत पहले से निश्चित नहीं थी, जो बहुत सारे किन्तु-परन्तु पर निर्भर थी। सभी बसपा सदस्यों ने अपने उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया और कोई क्रॉस वोटिंग नहीं हुई थी लेकिन पार्टी के एक सदस्य सुनील सिंह ने पार्टी के खिलाफ खुलेआम विद्रोह किया और भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया। एक या दो अन्य गैर-सपा सदस्य ने भी उनको समर्थन देने का वादा किया था, जिन्होंने बाद में धोखा दिया।
मायावती ने खराब प्रबंधन के लिए खुद को दोष देने की बजाय अखिलेश को पराजय के लिए दोषी ठहराया और उन्हें एक राजनीतिक नौसिखिया कहा। इस पर अखिलेश ने विरोध नहीं किया, जो शायद अगले चुनावों तक कम से कम दोस्ती को चलाने के लिए हो सकता है। उनकी और पार्टी में अन्य सभी की उम्मीदों को यहाँ झुठलाया गया था।

उन्हें ख़ारिज करने के बाद वह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ आकर्षित हो गईं, क्योंकि उन्होंने उनके सुर में सुर मिलाते हुए एवं अपनी भावनाएं दर्शाते हुए केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वह दोहरे मापदंड अपना रही है। मसलन, केंद्र सरकार बिहार की देखभाल और बंगाल की उपेक्षा कर रही है, क्योंकि बंगाल में प्रतिद्वंद्वी पक्ष की सरकार है। ममता संघीय मोर्चा बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं और इस उद्देश्य के लिए लखनऊ में एक बैठक आयोजित करने की संभावना है। जब बीजेपी ने अपने प्रभाव को बढ़ाने और 20 राज्यों में अकेले या कुछ अन्य लोगों के साथ शासन पर कब्ज़ा किया तो विपक्षी पार्टियों के चुपचाप बैठने की उम्मीद नहीं थी।
भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस (ममता की पार्टी) को ज्यादा नहीं देखा होगा लेकिन बसपा के उदय और पराभव को अच्छे से देखा है। इन्होंने 1995 से 2003 के बीच तीन बार मायावती सरकार का गठन या समर्थन किया है। उत्तर प्रदेश में कई सालों तक पूरे पांच साल की अवधि तक स्थिर सरकार नहीं देखी गई है। पिछले 12 साल कई मायनों में अलग रहे हैं।

1995 में बीजेपी ने पहली बार बसपा की सरकार बनाने में उनकी मदद की, जब उन्होंने सपा से समर्थन वापस ले लिया। यह एक वर्ष से भी कम समय तक चला था। एसपी को बाहर रखने के लिए दो साल बाद पार्टी ने फिर से हाथ मिलाया और इस बार बदले में मुख्यमंत्रित्वकाल का नया प्रयोग किया गया था। लेकिन जब उसका छह महीने का कार्य काल समाप्त हो गया और भाजपा के कल्याण सिंह ने अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए तो संघर्ष शुरू हुआ। मायावती ने कुछ समय बाद ही समर्थन वापस ले लिया। भाजपा यह सब भूल 2003 में फिर से उसे बचाने के लिए आगे आई। उसके बावजूद मायावती को कोई फर्क नहीं पड़ा। उनको इन सब बातों से अभी भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। उनके लिए भाजपा अभी भी दलित विरोधी और सांप्रदायिक है, जो 2019 में सत्ता से बाहर होनी चाहिए।

Updated : 31 March 2018 12:00 AM GMT
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