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बेकार की तपस्या

बेकार की तपस्या
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ऋषि भारद्वाज के पुत्र यवक्रीत को अपनी विद्वता पर काफी अभिमान था। वह सोचते थे कि अगर उन्होंने थोड़ी और विद्वता अर्जित कर ली तो लोगों में उनका आतंक हो जाएगा। उन्होंने इसके लिए तपस्या आरंभ कर दी।

उन्हें कठोर तपस्या करते देख उनके एक शुभचिंतक आकर बोले- यवक्रीत, क्यों इस तरह कठोर तपस्या करके अपने शरीर को पीड़ा पहुंचा रहे हो। यवक्रीत ने कहा- मैं चाहता हूं कि मुझे संपूर्ण वेदों,उपनिषदों तथा शास्त्रों का ज्ञान बिना अध्ययन किए ही सुलभता से हो जाए। इस पर शुभचिंतक ने कहा- किंतु ज्ञान के लिए तो गुरु की और अभ्यास की आवश्यकता है। इस पर यवक्रीत हंस पड़े। शुभचिंतक बोले- उल्टी गंगा न बहाओ यवक्रीत। उचित होगा कि किसी योग्य आचार्य के पास जाकर अध्ययन करो। परिश्रम के माध्यम से प्राप्त किया गया ज्ञान ही फलदायक होता है। इस पर यवक्रीत ने ध्यान नहीं दिया और तपस्या में लीन रहे। एक दिन वह स्नान करने के लिए गंगा तट पर पहुंचे। वहां देखा कि एक वृद्ध मुट्ठी में रेत भर-भर कर गंगा में डाल रहा थे। यवक्रीत ने इसका कारण पूछा तो वृद्ध ने जवाब दिया-पुत्र, मैं तैरकर उस पार जाने में समर्थ नहीं हूं इसलिए रेत का बांध तैयार करने में लगा हूं। इस पर यवक्रीत हंस पड़े। उन्होंने कहा-बेकार का परिश्रम कर अपने को मत थकाओ। बहती हुई गंगा की धारा में एक मुट्ठी बालू द्वारा बांध का निर्माण एक मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद प्रयोग है जो कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता।

वृद्ध मुस्कराते हुए बोले-तुम्हें यह परिश्रम बेकार लग रहा है? यदि बिना गुरु की सहायता व अभ्यास के समस्त वेदों व शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने का तुम्हारा प्रयत्न सफल हो सकता है, तो यह भी संभव है। यवक्रीत उनका आशय समझ गए। उन्होंने तपस्या छोड़ दी और शास्त्रों के अध्ययन में लग गए।

Updated : 18 March 2017 12:00 AM GMT
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