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एक निश्चल कर्मयोगी

राजारामजी नहीं रहे। आज ये समाचार सबसे पहले उनके अत्यंत निकटस्थ भाजपा प्रदेश कार्यसमिति के सदस्य आदरणीय विवेक जोशी ने जैसे ही मोबाइल पर दिया, मन व्यथित हो गया। वह पिछले कई दिनों से अस्वस्थ थे, सामाजिक सक्रियता लगभग शून्य ही थी। पर वह हैं, यह एक आश्वस्ति थी। आश्वस्ति इस बात की कि कोई दो निर्मल आँखें हैं, जो स्वयं की पीड़ा से बेखबर हैं, पर हम जैसे कार्यकर्ता को कब क्या करना चाहिए इसकी वह खबर लेती हैं। वो जिव्हा है, जो टोकती है।

प्रसंग दो हैं, एक ही दिन के, कहते हैं और सच भी है, की संसार में सबसे भारी क्या है, पिता के कंधों पर बेटे का शव। और जो पिता साल दो साल के भीतर ही दूसरे बेटे का शव कंधे पर ले, उसकी पीड़ा का क्या अनुमान सम्भव है? प्रिय प्रदीप के निधन के बाद यह सोचते हुए ही मैं मुक्तिधाम पहुंचा था। सोच रहा था क्या कहूँगा मोघेजी से। मैं पास गया। कुछ उम्र का असर था,कुछ आंखों में पानी भी था। वह ठीक से पहचान नहीं पाए। पर जैसे ही उन्हें ध्यान आया कि मैं ंअतुल हूँ, धीरे से टोका इस बार अभी स्वदेश की दीवाली की पत्रिका आई नहीं है। वितरण ठीक से हुआ है न? मैं हतप्रभ था। सामने प्रदीप की नश्वर देह अग्नि को समर्पित हो रही थी और स्वदेश का संचालक अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा था। पर अभी मुझे और भी हतप्रभ होना शेष था। इतने में तत्कालीन विभाग प्रचारक खगेन्द्र जी दिखाई दिए , राजारामजी पूछते हैं, कि आप सब क्यों आ गए।
संघ की विभाग बैठक चल रही है न?
क्या कहेंगे ऐसे कर्मयोगी को ,जो स्वयं के असीम दुख के सागर में भी समाज जीवन के अपने कर्तव्य के प्रति इतने सजग हैं?
वह किन किन महत्वपूर्ण पदों पर रहे ,यह महत्वपूर्ण नहीं है, वह उन पदों पर कैसे रहे और किस प्रकार स्वयं को जीवन पर्यंत स्थितप्रज्ञ रखा यह वंदनीय है।
वह जीते जी समाज के लिए जिये ओर मृत्यु के पश्चात भी अपनी देह समाज को अर्पित कर गए।
क्यों कर पाए राजारामजी ऐसा, क्योंकि तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित यह गीत उन्होंने गाया ही नहीं, जिया भी।
विनम्र श्रद्धांजलि।

Updated : 24 July 2017 12:00 AM GMT
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