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जीवन में आई कुरूतियों को दूर करता ‘कल्पवास’

जीवन में आई कुरूतियों को दूर करता ‘कल्पवास’
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-मानव और प्रकृति का मिलनोत्सव-‘शीतल माघ सुहावनों’
-ऋतु परिवर्तन के साथ बसंत के आगमन की मंगलमय बेला
आगरा/मधुकर चतुर्वेदी। हमारी परंम्पराओं की जड़ें बहुत गहरी हैं। अतः जितनी भी भारतीय परम्पराएं लोकमानस में प्रचलित हैं, उनका मूल कहीं न कहीं हमें प्रकृति की गोद में आलिंगन हेतु बिठाता है। ‘श्वेताश्वेतरोपनिषद’ में परमात्मा की माया को प्रकृति और माया के स्वामी को ‘मायी’ कहा गया है। यह प्रकृति ब्रहमस्वरुपा, मयामयी और सनातनी हैै और इस प्रकृति में मनुष्य के आनंद की सृष्टि करता है परम पवित्र माघमास। माघमास में जहाँ भारतीय मानस हमें धर्म-कर्म की ओर प्रवृत दिखाई देता है तो वहीं ऋतु परिवर्तन के साथ मानव अपने बदलते आचरणों को और अधिक उन्नत करने का प्रयास करता है।
भारतीय परम्परानुसार ग्यारहवाॅं चन्द्र मास ‘माघ’ कहलाता है। मघा नक्षत्र में पूर्णिमा होने के कारण इसे माघमास कहा जाता है। धार्मिक मान्यताओं में प्रकृति के सार्वाधिक समीप मनुष्य को केवल माघमास ही लेकर जाता है। क्योंकि इस महीने में नदी के शीतल जल में स्नान कर सूर्य किरणों के पान का बहुत अधिक महत्व है। ‘ब्रहावैवर्तपुराण’ मे स्पष्ट मत है- ‘त्रिगुणात्मस्वरुपा या सर्वशक्तिसमन्विता। प्रधान सृष्टिकरणे प्रकृतिस्तेन कथ्यते’। अर्थात प्रकृति का सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से अर्थ किया गया है। इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है और प्रकृति के साथ मनुष्य की संगति ही माघमास है।
मानव और प्रकृति का मिलनोत्सव
माघमास में तीर्थो में रहकर समस्त भोगविलास से दूर नदी किनारें मनुष्य द्वारा प्रकृति पुरुष की आराधना की जाती है। प्राचीन मनीषियों ने यह नियम इसलिये बनाया कि मनुष्य वर्ष मे एक बार कुछ समय के लिये नदी, वन, जीवों के साथ रहकर उसके तत्व में अपने को समाहित करने का प्रयत्न करें। जल के महत्व को समझें और उसके प्रवाह व स्वच्छता के संकल्प को अपने अंन्तःकरण में स्थापित करें। वन तथा वन्यजीव की प्राकृतिक समरसता बनाये रखने के साधन जुटाये तथा इनकी रक्षा करते हुए इनके संवर्धन का कार्य करे।
कल्पवास का विशेष महात्म्य
माघमास का उत्सव अखिल भारतीय है पर इसकी उज्वलता का अनुभव हमें प्रयागराज संगमतट तथा ब्रज में कालिंदी के कूल पर होता है। जहां माघमास के इस प्रकृति उत्सव को मनाने वाले साधारण परिवेश में रहकर इष्टोपासना करते हैं। ब्रज-वृंदावन में श्रीयमुना जी के किनारे और प्रयाग में त्रिवेणी के किनारे का कल्पवास तो विश्वप्रसिद्व है। महाभारत में प्रयाग के कल्पवास का वर्णन आता ‘माघमासं प्रयागे तु नियतः संशितव्रतः। स्नात्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात। माघमास में प्रयागराज में करोड़ों तीर्थो का समागम होता है। जो नियमपूर्वक व्रत, सम्यक आचरण करता है, वह पाप निर्वृत होकर स्वर्ग का अधिकारी बनता है। हजारों यात्री माघमास में प्रयागराज में कल्पवास करते है, साधारण भोजन घास फूंस की कुटिया बनाकर रहते है, प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही स्नान करने है तथा कुछ तो पूरे मास मौन रहकर हरि भक्ति विलास का सुमधुर आस्वादन करते हैं।
प्राकृतिक उत्सवों की मासिक श्रंखला
माघमास के प्रारंभ सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, इसी दिन को ही मकर संक्रान्ति कहते है। इस दिन सूर्य उत्तरायण हो जाते है। इस दिन नदी में स्नान का अतिविशेष महत्व होता है। माघ में दूसरा पर्व षटतिला एकादशी पड़ती है, जिसमे छः तरीकों से तिल प्रयोग किया जाता है। इस दिन तिलों के जल का स्नान, तिल का उबटन, तिल से यज्ञ, तिल का दान, तिल का भोजन तथा तिल मिले जल का पान किया जाता है। माघमास की अमास्या पूरे भारत में मौनी अमावस्या के नाम से प्रसिद्व है। इस पवित्र तिथि पर मौन रहकर सद्आचरण करते हुये स्नान का बहुत महत्व है। मौनी अमावस्या को यदि रविवार, व्ययीपातयोग और श्रवण नक्षत्र हो तो अर्धोदययोग होता है। इस योग में सभी स्थानों का जल गंगा के समान होता है।
माघ और ब्रजमंडल का वैशिष्टय
प्रयाग की तरह ही ब्रज वृंन्दावन में माघमास का अपना अलग ही वैशिष्टय है। ब्रजवासी श्रीयमुना के तट पर निवास करने हैं तथा यमुना जल और पवित्र सरोवरों में स्नान करते है। इस मास के प्रारम्भ में ही संकटचतुर्थी ब्रजनारियों का मंगल त्यौहार है, जिसमे सुखद दाम्पत्य की कामना करवाचैथ की भाॅति ही करी जाती है और स्नान, दान तथा खिचडी भोजन सर्वत्र ही दिखायी देता है। वृंदावन में श्रीराधावल्लभलाल का खिचडी महोत्सव पूरे ब्रज में प्रसिद्व है। ब्रज के अधिकतर मंदिरों में प्रभू सेवा में घी-मेवा के साथ सिद्व की गयी खिचड़ी का भोग लगाया जाता हैै। माघ की शोभा वास्तम में ब्रज में ही दिखायी देती है। बल्लभ संम्प्रदाय में भोग और राग संयुक्त उत्सवीय है, यहां पर पूरे मास तरह तरह के मेवों की कारीगरी से बनी हटरियों में श्रीयुगल को बिठाया जाता है। मखानों की मालगुंजा, बादाम के मयूर, जावित्री की बंदरवान तथा पिस्ते की पिछायी को देखने दूर-दूर से दर्शनार्थीयों पूरे मास ब्रज में आते हैं। साथ ही सुन्दर रागरागनीयों के स्वरो में मालकोंश का समाज गायन सम्पन्न होता है, मालकोंश राग की प्रकृति उष्ण मानी गयी है यही वह राग है जिसके गायन से बैजू तानसेन ने पत्थर को पिघलाया था।
माघमास का सिरमौर बसंतोत्सव
माघ मे आनंन्द का चरोमोत्कर्ष बसंत पंचमी में देखने को मिलता है। जब समस्त विश्व विघाप्रदात्री मां सरस्वती की जयंती मनाता है। सरस्वती विघा की अधिष्ठात्री देवी है और विघा, बुद्वि, ज्ञान के साथ ही संगीत को देने वाली है। ब्रज में आज ही के दिन रितु बसंत का स्वागत राग बसंत के गायन के साथ होता है। इस दिन से ब्रज में होली का प्रारम्भ होता है जो पूरे चालीस दिन तक मनाया जाता है। मंन्दिरों में तथा घरों पर पीली अट्टालिकाऐ शोभित होती है। समस्त ब्रजवासी बसंन्ती परिधान पहनकर मस्तक पर केसर चन्दन और कानों मे सरसों के बसंन्ती पुष्प लगाकर बसंन्त का स्वागत करते है। मंन्दिरों में व घरों में केसरिया भात, खीर और पीले पकवानों का भोग लगाया जाता है। होली के रसिया और अन्य शास्त्रीय रागों का सुमधुर गायन पखावज की थाप पर समाज गायन करने हुये वाग्देवी को प्रसन्न किया जाता है।
दीपदान से प्रकृति पुरूष की विदाई
माघ मास में सुख सौभाग्य की वृद्वि करने वाला अचला सत्तमी का भी पर्व आता है। इसमें भी स्नान का महत्व है तथा दीपदान भी किया जाता है। माघ शुक्ल अष्टमी भीष्माष्टमी के नाम से विख्यात है इस तिथि को भीष्मपितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राण छोडे थे। भीष्माष्टमी के स्नान के साथ ही सम्पूर्ण माघस्नान का फल प्राप्त होता है। माघ की सम्पूर्ण तिथि पुण्यकारक है लेकिन, माघी पूर्णिमा का विशेष महत्व है। एक मास तक कल्पवास करने वाले तीर्थयात्रियों का एक मास का कल्पवास पूर्ण होता है। प्रातःकाल पवित्र नदियों में स्नान, आरती, दीपदान,यज्ञ,दान करते हुये पुनः प्रकृति की गोद मे उपस्थित होने की प्रार्थना कर अपने-अपने स्थानों को लौट जाते है। प्रकृति का मानव से मिलन का नाम ही माघ है। यही इस परम पावन माघ मास का मानवजाति के प्रति दिव्य संदेश है।

Updated : 11 Jan 2018 12:00 AM GMT
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