महाभारत का एक प्रसंग है। कुरुक्षेत्र युद्ध से ठीक पहले। महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आते हैं और धृतराष्ट्र से कहते हैं कि मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे रहा हूं और इस से तुम युद्ध को देख सकते हो। हम जानते हैं, धृष्टराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन थे। लेकिन चूंकि धृष्टराष्ट्र कर्म से, मन से, चेतना से भी नेत्रहीन थे, इसलिए वह दिव्य दृष्टि लेने से मना कर देते हैं। धृतराष्ट्र दिव्य दृष्टि इसलिए नहीं चाहते थे कि उनकी आंखों पर क्रोध, ईष्र्या, मत्सर, अहम्, स्वार्थ एवं अति महत्वाकांक्षा की पट्टी बंधी हुई थी। आगे की कथा सब जानते हैं, धृष्टराष्ट्र ने अपने समस्त पुत्रों को बलि हो जाने दिया और वे श्री हीन हुए।
आज कलियुग है। द्वापर नहीं। पर न धृष्टराष्ट्रों की कमी है, न दुर्योधनों की। आज इन्हें भी दिव्य दृष्टि मिले, इसके अवसर बार-बार आ रहे हैं, पर वह भी निहित स्वार्थों की पट्टी बांधे बैठे हैं और अंधत्व को ही सुख मान रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री अब वाकई उन्हें भारत के विशाल परिवार का मुखिया कहना ज्यादा श्रेयस्कर लगता है, ने ठीक किया कि उन्होंने कल के अपने राष्ट्रीय संदेश में थूकने वालों की कोई चर्चा ही नहीं की। कारण मानवता के लिए कलंक राष्ट्रघाती इन तत्वों की चर्चा या निन्दा करना भी इन्हें महत्व देना है और ये तत्व तेजी से अपनी मौत की ओर बढ़ रहे हैं। भारत जागृत है और ये तत्व अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं और अप्रासंगिक हो रहे हैं। देश देख रहा है, समझ रहा है कि यह तत्व कोरोना वायरस से भी अधिक घातक हैं। आज ये तत्व फिदायीनी मानसिकता के साथ देश को अंधे कुए में ढकेलने पर आमादा है। चाहे कश्मीर में पत्थर फेंकने वाले हो या बैंगलुरु में गौभक्त की हत्या करने वाले, चाहे दादरी में अखलाक का झूठ परोसने वाले हों या शाहीन बाग को घेरने वाले, इन सब के तार मिले हुए हैं। आज देश समझ रहा है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम ने किस कमजोर नस पर हाथ रखा है। आज साफ दिखाई दे रहा है, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की आहट से घबराहट क्यों है? दुर्योग कहें या षड्यंत्र, इसका खुलासा पक्के तौर पर अभी होना शेष है पर भारत भी इस बीच वैश्विक महामारी की चपेट में है। आज जब देश के विकसित देशों के राष्ट्राध्यक्ष राष्ट्रीय प्रसारण में हाथ जोड़ कर मांफी मांग रहे हैं, भारत का प्रधानमंत्री न केवल देश के लिए अपितु विश्व के लिए एक आश्वस्ति का रूप लेकर सामने आया है। वह इस संघर्ष में देश के 130 करोड़ भारतवासियों को भी भागीदार बनाना चाह रहा है। इसी कड़ी में पहले उन्होंने 22 मार्च को ताली, थाली बजवाकर एक शंखनाद किया। कल का आव्हान और वैज्ञानिक है, आध्यात्मिक है। कोरोना के अंधकार का उत्तर 'आत्म दीपो भवÓ ही है। नौ मिनिट तक दीप जलाने का संकल्प कोई कर्मकांड नहीं है, न ही यह मदारीगिरी है। पर दुर्भाग्य देखिए आज इस पर भी सवाल है, निरर्थक प्रलाप है। यह अलग बात है कि देश अब उन पर कान नहीं दे रहा है। श्री नरेन्द्र मोदी का यद्यपि यह प्रयास था कि देश के 130 करोड़ नागरिकों में शामिल इन चंद अक्ल के अंधों को भी सामूहिक शक्ति का जागरण कराया जाए, एक विराट स्वरूप का दर्शन करवाया जाए, पर धृतराष्ट्र आज भी जीवित हैं।
धृतराष्ट्र की गति एक ही है। पर इस बीच पीड़ा यह है कि ये धृतराष्ट्र आज कहीं न कहीं न केवल थूकने वालों के साथ, नग्न नाच करने वालों के साथ, पत्थर फेंकने वालों के साथ न केवल खड़े हैं, अपितु उनकी थूक को चाट भी रहे हैं। आज तमाम वामी, आपी और बुद्धि विलास करने वाले पाखंडी या तो चुप हैं या एक गली तलाश रहे हैं कि इन्हें किस प्रकार सुरक्षित रास्ता मिले, यह जानते हुए कि यह देश के साथ एक अक्षम्य अपराध है। पर देश संकल्प ले चुका है, कल रात 9 बजे नौ मिनिट तक वह प्रकाश पर्व मनाएगा और यह कोरोना के साथ-साथ इस अंधेरे को भी समूल मिटाएंगे। हम तैयार है, और आप भी। आइए घर की देहरी पर चलें।
शुभकानाओं सहित