विक्रम और बेताल की कथा अब आधी अधूरी दोहराई जा रही है। इस कथा में अब विक्रम तो है नहीं मात्र बेताल है जो अब विपन्न और विस्थापित कांग्रेस के कंधों पर सवार है। बेताल और कोई नहीं वामपंथ है जिसने बौद्धिक, वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से कांग्रेस को खोखला कर दिया है। भाजपा के नारे कांग्रेस मुक्त भारत पर मैंने एक पुस्तक लिखी थी "कांग्रेस मुक्त भारत की अवधारणा," इस पुस्तक को मैंने कांग्रेस की आलोचना में नहीं अपितु कांग्रेस के प्रति चिंतित होकर लिखा था। कांग्रेस के प्रति अब उतना चिंतित नहीं रहना चाहिए। कांग्रेस आत्मघात के परम मूड में है। विशेषतः अब कन्हैया कुमार के कांग्रेस में उत्सवपूर्वक स्वागत व प्रवेश के बाद तो यह स्पष्ट हो गया है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने अबतक की सबसे बड़ी वर्जना को तोड़ा है, एक युग पार कर लिया है। भारत की आजादी में भूमिका निभाने वाली कांग्रेस अब "हम लेकर रहेंगे आजादी भारत से" का नारा लगाने वालों के साथ ही नहीं बल्कि ऐसे देशद्रोही तत्वों की दया, कृपा, संबल, के साथ खड़ी दिख रही है। उन्होंने कांग्रेस प्रवेश के समय जो कहा वह तो निःस्संदेह कांग्रेसियों के लिए लाज-लज्जा से डूब मरने वाली बात है; कन्हैया ने कहा - यदि देश की सबसे बड़ी विपक्षी दल को नहीं बचाया गया तो देश डूब जाएगा। अर्थात, कांग्रेस डूब रही है और कांग्रेस को डूबने से बचाने के लिए कन्हैया का कांग्रेस प्रवेश ही एकमात्र उपाय है अब। आश्चर्य है कि पूरे देश में चल रहा यह चुटकुला राहुल गांधी की कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा है। तो, कन्हैया नाम का बेताल अब कांग्रेस के कंधों पर बैठकर एक नई पैशाचिक कहानी लिखेगा। कुछ और अधिक विषैले, विभाजक, वितृष्णा भरे नारे लिखे जाएंगे और अब उनके साथ गांधी टोपी वाले भी नारे लगाते दिखेंगे। कांग्रेस के इतिहास में ऐसे सैकड़ों लज्जाजनक, खेदजनक दिन होंगे पर इससे बुरा दिन संभवतः आपातकाल लगाने के दिन जैसा एकाध ही दिखेगा।
कम्युनिज्म के प्रणेता व पुरोधा कार्ल मार्क्स थे। वही कार्ल मार्क्स, जिन्होंने अपनी मृत्यु समय में प्रसन्नतापूर्वक कहा था- अच्छा हुआ मैं मार्क्सिस्ट न हुआ। कांग्रेस का वामपंथ व मार्क्सिज्म से स्वातंत्र्योत्तर समय के प्रारंभ से गहरा नाता रहा है। कांग्रेस के पास कोई वैचारिक आधार, आर्थिक विचार, विकास की अवधारणा, सामाजिक अवधारणा तो थी ही नहीं। एकमात्र गांधीजी थे वे दुर्योग से चले गए। इस वैचारिक विपन्नता में नेहरूजी का अंग्रेजपरस्त मानस कांग्रेस की पूँजी बना। कांग्रेस का इतिहास कांग्रेस के पहले और अंतिम प्रधानमंत्री के व्यक्तव्यों के बीच का दुखद इतिहास बनकर रह गया। कांग्रेस के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा "मैं दुर्घटनावश हिंदू हूं" और कांग्रेस के अंतिम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा- " इस देश के संसाधनों पर प्रथम अधिकार अल्पसंख्यकों का है।" संक्षेप में अबतक की कांग्रेसी वैचारिक यात्रा का सार इन दो व्यक्त्वयों में ही है। और अब, कन्हैया कुमार के नारों की दुर्गंध भरी टोकनी अपने सर पर रखी हुई कांग्रेस हमारे सामने है।
कांग्रेस में वामपंथ का दैहिक व मानसिक प्रवेश कोई पहली बार नहीं हुआ है। ऐसी निर्लज्जता कांग्रेस ने कई बार दिखाई है। वामपंथियों का प्रभाव कांग्रेस पर नेहरूकाल से लेकर राहुलकाल तक बड़ा भारी रहा है, या यूं कहें कि कांग्रेस को बड़ा भारी पड़ा है। कांग्रेस के स्वतन्त्रतापूर्व के समूचे वैचारिक आधार को आमूलचूल समाप्त करके कम्युनिस्टों ने कांग्रेस को हिंदू विरोधी, संस्कृति विरोधी, भारत के मूल इतिहास की विरोधी और न जाने क्या क्या बना दिया है। ये कम्युनिस्ट ही थे जिन्होंने नेहरू के सिर पर चढ़कर स्वतंत्र भारत में गैर हिंदू होने का ऐसा पैशाचिक पाठ पढ़ाया कि भारत में एक बड़ा वर्ग स्वयं को हिंदू कहने में लज्जा का आभास करने लगा। बाद में इसी कम्युनिज्म के रंग में रंगी कांग्रेस के एक बड़े नेता ने "भगवा आंतकवाद" जैसा विद्रूप शब्द भी गढ़ा और इस शब्द को स्थापित करने में तो जैसे समूची कांग्रेस ही लग गई थी। कांग्रेस की नीति, रीति, चाल चलन, हाव भाव, अभिव्यक्ति सभी कुछ पर कम्युनिस्टों ने बड़ी चतुराई से अपना कब्जा जमा लिया। कम्युनिस्टों ने कांग्रेस का डीएनए ही बदल दिया। कन्हैया कुमार के कांग्रेस में आने के बाद अब यह डीएनए पुनः बदलेगा। बदलाव राजनैतिक रूप से रुचिकर किंतु सामरिक रूप से चुनौतीपूर्ण होगा। यह भारतीय राजनीति का एक अतीव अशुभ अध्याय कहलायेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)