भारतीय राजनीति में भविष्य की क्या धारा रहने वाली है, इसके दो बड़े संकेत बीते 24 घंटे में सामने आ गए हैं। एक तरफ देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं जो खुद की अर्थात अपने दल में आए विकार की भी शल्य चिकित्सा करने का साहस रखते हैं। प्रधानमंत्री के संदेश का देश में व्यापक सकारात्मक संदेश गया है। वहीं देश के सर्वाधिक पुराने राजनीतिक दल के मुखिया राहुल गांधी ने फिर एक बार देश को निराश किया है। श्री गांधी का त्यागपत्र ऐसा लगता है कि वह आम चुनाव के भाषण की एक प्रतिलिपि है जिसमें उन्होंने एक बार फिर भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही अनर्गल आरोपों के साथ कोसा है। यह श्री गांधी का राजनीतिक हक है कि वह अपने वैचारिक विरोधी राजनीतिक दल की आलोचना करें, पर अच्छा होता श्री गांधी अपने दल के खिसकते जनाधार पर कुछ सार्थक प्रकाश डालते तो यह कांग्रेस के लिए बेहतर होता। पर राहुल गांधी फिर एक बार चूक गए।
उल्लेखनीय है कि 23 मई को आए जनादेश ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश ने कांग्रेस को बुरी तरह से ठुकरा दिया। 18 राज्यों में कांंग्रेस का एक भी सांसद जीत कर न आना, स्पष्ट संकेत है कि कांग्रेस में देश की जनता अपना भविष्य नहीं देखती। स्वयं राहुल गांधी अपने राजनीतिक नाभि केन्द्र अमेठी से हार गए। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान जिन राज्यों में कांग्रेस ने विधानसभा में शानदार प्रदर्शन किया था, लोकसभा में साफ हो गई। पंजाब में आज कांग्रेस है तो कैप्टन अमरिंदर सिंह की बदौलत या अकाली दल के प्रति नाराजगी के चलते। उड़ीसा, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस की वापसी आज एक स्वप्न है। पूर्वोत्तर में वह जमीन खो चुकी है। दक्षिण में कर्नाटक की बैसाखी से अपने वजूद को बचाने की जद्दोजहद में कांग्रेस आज अपने संध्याकाल में है, यह स्पष्ट है। और यह इसलिए कि वह ऊंचाई पर है। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी के वक्तव्य पर प्रधानमंत्री मोदी की टिप्पणी सामयिक है कि कांग्रेस इतनी ऊपर चली गई है कि जमीन से कट गई है। लेकिन अफसोस राहुल गांधी ने इन 40 दिनों में भी जमीन पर देखने का काम नहीं किया। किया होता तो वह भाजपा पर अभिव्यक्ति पर हमले का आरोप नहीं लगाते। पहले वह आपातकाल याद करते। वह भाजपा पर न्यायपालिका का अपमान करने का आरोप नहीं लगाते। अगर वह शाहबानो प्रकरण के बाद उनके पिताश्री और देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने क्या किया था याद कर लेते। या याद करते की इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद उनकी दादी ने किस प्रकार देश की आत्मा को कुचल दिया था।
वह आज फिर भाजपा पर हिंसा या घृणा का आरोप लगाने की गलती न करते। अगर उनके मन में 1984 के सिख नरसंहार की कसक होती, वह यह भी न कहते कि भाजपा आज विपक्ष को दबा रही है। अगर वह याद करते की ३५६ का दुरुपयोग कांग्रेस ने कितनी बार किया। वह देश को कमजोर करने का आरोप भी आज न लगाते अगर वह कश्मीर का सौदा किसने किया इस पर विचार करते।
श्री राहुल गांधी की सबसे बड़ी विडम्बना ही यही है कि वह आज भी देश की आवाज को न सुन पा रहे हैं और न ही देश को समझने की दृष्टि विकसित कर पा रहे हैं और वस्तुत: यह दोष उनका भी नहीं है। कांग्रेस को यह समझना ही होगा कि जिस छल के आधार पर उन्होंने दशकों तक देश का नेतृत्व किया अब नहीं चलने वाला है।
2014 का चुनाव देश की आशा के उदय का जनादेश था। 2019 देश की सामूहिक राष्ट्रीय अभिव्यक्ति का जनादेश है।
दुख की बात यह है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सक्षम विपक्ष भी आवश्यक है। कांग्रेस ने देश के नेतृत्व काल में ऐतिहासिक भूलें कीं , परिणाम आज देश भुगत रहा है। एक अवसर था, वह सजग विपक्ष बनकर अपनी भूमिका निभाता। पर राहुल गांधी यह अवसर भी चूक रहे हैं।
देश अब वयोवृद्ध मोतीलाल वोरा से क्या अपेक्षा करे? राहुल जी आपने इस्तीफा दिया ही क्यों?