पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे विशेषकर उत्तर भारत या यूं कहें भाजपा शासित तीन राज्यों के चुनाव नतीजे अभूतपूर्व हैं। छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान ने चौंकाया है तो मध्यप्रदेश को लेकर प्रदेश का मतदाता स्वयं एक अनिर्णय की मन:स्थिति में रहा, यह परिणाम से प्रदर्शित होता है। पर जनादेश की इबारत एकदम साफ है। कांग्रेस ने शानदार वापसी की है, उसका अभिनंदन। पर यह सच है कि नतीजे भाजपा की हार है। कतिपय भाजपा नेताओं के अहंकार, को देख न केवल प्रदेश की जनता ने अपितु उन्होंने भी जो भाजपा के अपने हैं, बेहद दुखी होकर नकारने का मन बनाया है, ऐसा दिखाई देता है। भाजपा का श्रेष्ठि नेतृत्व हार पर सिर्फ शाब्दिक नहीं अपितु मन से मंथन करेगा, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए अन्यथा 2019 की राह आसान नहीं है।
पहले बात इन्हीं तीन राज्यों की यानि छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश। राजस्थान को हटा दें तो दोनों ही स्थानों पर भाजपा विगत 15 वर्ष से शासन में थी। राजस्थान में हर बार परिवर्तन होता है, अत: 5 साल का शासन काल। तीनों ही राज्यों की चुनावी परिस्थितियां अलग-अलग थी, आकलन भी अलग-अलग थे। पर इन तीनों ही राज्यों में भाजपा एक रोग से ग्रस्त हो चुकी है, यह विगत लंबे समय से महसूस किया जा रहा है। भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और अपने-अपने चहेतों के लिए किसी भी कीमत पर जाकर संगठन को हाशिए पर रखने का मद सिर चढक़र बोल रहा था। संगठन, सत्ता के पीछे मातहत की तरह खड़ा दिखाई देता रहा। कार्यकर्ता से संवाद टूटता गया। इसके परिणाम उप चुनावों के नतीजे भी दे रहे थे। पर पार्टी ने समय रहते इस पर कार्रवाई करना तो दूर कान देना भी जरूरी नहीं समझा। बेशक राजस्थान में पार्टी ने आखिरी दौर में अपने प्रदर्शन को सुधारा, पर वहां आक्रोश जबरदस्त था। छत्तीसगढ़ के नतीजे भी चौंकाते हैं, कारण वहां अंडर करंट है, ऐसा माना तो जा रहा था पर वह पार्टी को सन्निपात की स्थिति में ला देगा, इसकी कल्पना नहीं थी। मध्यप्रदेश, भारतीय जनता पार्टी की संगठन की एक प्रयोगशाला है। जनसंघ से लेकर आज की भाजपा तक कई तपोनिष्ठ नेताओं ने अपने परिश्रम से इसको खड़ा किया है। यहां भी भाजपा विगत 15 साल से सरकार में थी। राह आसान नहीं थी, यह साफ दिखाई दे रहा था। कारण सत्ता की विकृतियों ने अवसरवादिता का कोढ़ पैदा कर दिया था। स्थानीय स्तर पर संगठन लगभग समाप्त हो गया था। ऐसे विषम वातावरण में टिकट वितरण एक कठिन परीक्षा थी। पर यहां भी ऐसी कई गलतियां की गई, जिस पर कार्यकर्ता हतप्रभ था। वह जान रहा था केन्द्र सरकार के कार्यकाल पर भी कई गंभीर प्रश्न हैं, जिनके जवाब जनता मांगेगी, वहीं 15 साल का शासन तो है ही। ऐसे में स्वच्छ योग्य एवं सक्षम कार्यकर्ता ही जीत की गारंटी हो सकता था। पर ये सावधानी नहीं बरती गई। परिणाम सामने है। भारतीय जनता पार्टी किनारे पर आते आते पराजित हुई। वोट प्रतिशत बढ़ा। सत्ता के खिलाफ कोई लहर नहीं थी। पर भाजपा स्वयं की गलतियों से हिट विकेट हुई। जनादेश कांग्रेस की विजय के लिए नहीं है पर भाजपा की हार के लिए अवश्य है और वह भी बेमन से, वरना आंकड़ा जादुई आंकड़े से छह कदम नहीं साठ कदम की दूरी पर होता। नि: संदेह चुनावी नतीजे कांगे्रस मुक्त भारत की बात करने वालों के लिए भी एक संदेश है। लोकतंत्र में विपक्ष हमेशा आदरणीय होता है और आवश्यक भी। प्रशंसा करनी होगी श्री राहुल गांधी की कि उन्होंने अपनी पत्रकारवार्ता में यह कहा कि वह भाजपा को हराएंगे, पर देश से मिटाएंगे नहीं। यद्यपि आपातकाल जिस पार्टी के इतिहास में हो, वह भविष्य में क्या करेगी, यह एक प्रश्न है। पर कांगे्रस बेहद सधे हुए अंदाज में आगे बढ़ रही है, यह एक सच्चाई है। गुजरात में उसने अपना प्रदर्शन सुधारकर कर्नाटक में वापसी की। इन तीन राज्यों ने उसे संजीवनी दी है। मिजोरम उसके हाथ से फिसला है और तेलंगाना में वह गलती कर बैठे। पर इन तीन राज्यों की जीत की गूंज भारी है। भाजपा को इसे सुनना चाहिए।
देश ने 2014 में एक समग्र परिवर्तन के लिए एक बड़ा जनादेश दिया था। 2013 के विधानसभा नतीजों में 2014 के लिए भी एक पूर्व संदेश था। 2018 में आते-आते एक अव्यक्त सी निराशा सी है, पर एक उम्मीद भी है, विश्वास भी। यह आवश्यक नहीं विधानसभा के नतीजे लोकसभा में भी दोहराए जाएं। इतिहास इस को प्रमाणित भी करता है। पर नि:संदेह एक अच्छी सरकार देने के प्रयास के बाद यह जनादेश भाजपा नेतृत्व के लिए एक आत्म मंथन का अवसर तो देता ही है कि आखिर वह मिशन 2003 से मिशन 2018 तक अपने इस मिशन में कहीं अपना मूल मिशन तो नहीं भूल गई? वह ईमानदारी से ऐसा सोचेगी, तो यह उसके लिए भी श्रेयष्कर है और देश के लिए भी।