जनजातीय गौरव दिवस : एक सार्थक पहल

Update: 2021-11-14 09:45 GMT

वेबडेस्क। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद द्वारा स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव में एक महत्वपूर्ण निर्णय, जिसके लिए वे और उनकी सरकार बधाई की पात्र है, भगवान बिरसा मुंडा के जन्म दिवस 15 नवंबर को "जनजातीय गौरव दिवस" घोषित किया है। मध्यप्रदेश के लिए यह विशेष उपलब्धि की बात है क्योंकि जनजातीय गौरव दिवस की संकल्पना को मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने मूर्तरूप दिया था, उसे प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्रव्यापी स्वरूप प्रदान किया।

जनजाति समाज में जन्मे भगवान बिरसा मुंडा सहित जनजाति समाज के अनेक वीरों के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि है, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। देश के सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों एवं जंगलों में फैली हमारे देश में 2011 की जनगणना के अनुसार 10.43 करोड़ की जनसंख्या जनजाति समाज की है जो कुल जनसंख्या का 8.6% है। जनजाति समाज में भी अपनी परंपराएं एवं पृथक पहचान के कारण वें एक दूसरे से भिन्न है। इस आधार पर लगभग 705 से अधिक जनजाति समूह है जो देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं। इनमें से लगभग 75 समूह ऐसें हैं जो PVTG में आते हैं। जो देश की मुख्यधारा से आज भी अलग हैं। यह जनजातियाँ अपनी हस्तकला, परंपरागत काष्ठ कला आदि के माध्यम से देश की आर्थिक प्रगति में अपना योगदान दे रहीं हैं। श्रम साध्य जीवन शैली, शस्त्र एवं धनुर्विद्या में निष्णांत होने के कारण खेलों में जनजाति के योगदान को भुलाना संभव नहीं है।6 बार की चैंपियन मुक्केबाज मैरीकॉम, राजनीतिक नेता स्वर्गीय जयपाल सिंह मुंडा, धनुर्विद्या में तज्ञ कोमालिका बारी, हॉकी खिलाड़ी श्री दिलीप तिर्की जैसी महान विभूतियों पर भारत के प्रत्येक नागरिक को गर्व है।

जनजाति समाज सदियों से सनातन हिंदू परंपरा का अंग रहा है। प्रकृति का उपासक जनजाति वर्ग अपने को कभी हिंदू समाज से अलग नहीं मानता था। सनातन हिंदू परंपरा में भी वृक्षों, जल एवं प्रकृति की पूजा आज भी होती है। वटवृक्ष, तुलसी, नदी, समुद्र आदि की पूजा देश के संपूर्ण भागों एवंप्रत्येक वर्गों में आज भीप्रचलित है। देश की अनेक जनजातियाँ अपना संबंध भगवान श्री राम के साथ, छत्तीसगढ़ में माँ कौशल्या के साथ, उत्तर पूर्वांचल में भगवान श्री कृष्ण एवं उनकी पत्नी रुक्मणी के साथ जोड़ती है। देहरादून (उत्तराखंड) में आज भी लाखामंडल ( लाक्षागृह) एवं जौनसार में प्रचलित बहुपति प्रथा को पांडवों के साथ जोड़कर देखा जाता है। मणिपुर के लोग रुक्मणी को अपना मानते हैं। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश सहित भारत और नेपाल के तराई भागों में फैली थारू जनजाति महाराणा प्रताप का वंशज मानने में गौरव का अनुभव करती है। थारू जनजाति के प्रत्येक परिवार केपूजा स्थान में हल्दीघाटी की पवित्र मिट्टी आज भी विद्यमान है। अलाउद्दीन खिलजी के धार (मध्य प्रदेश)पर आक्रमण के कारण वहां के राज परिवार से संबंधित राजा जगत देव अपनी आराध्य देवी बाल सुंदरी का विग्रह लेकर आज के उत्तराखंड में आए थे। जो बुक्सा जनजाति के नाम से जाने जाते हैं। उनके द्वारा स्थापित सम्पूर्ण समाज द्वारा काशीपुर (उत्तराखंड) में बाल सुंदरी की देवी स्वरूप उपासना वर्तमान में भी होती है।

अंग्रेजों के विरुद्ध चलने वाले स्वतंत्रता संग्राम में जनजाति समाज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के भगवान बिरसा मुंडा इन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे।उन्होंने 13 अक्टूबर 1894 को लगान (कर) माफी के लिए आंदोलन किया। तीर कमान लेकर सभी मुंडा नौजवान अंग्रेजो के खिलाफ खड़े हो गए। इसके दंड स्वरूप बिरसा मुंडा को 2 वर्ष हजारीबागकी जेल में कारावास भोगना पड़ा। अकाल पीड़ितों की सहायता करने के कारण लोगों ने उनको "धरती बाबा" की उपाधि एवं भगवान मानना प्रारंभ किया।

भगवान बिरसा मुंडा के साथ-साथ तिलकामांझी, नागा रानी गाइदिन्ल्यू , ताना भगत, सुरेंद्र साए सहित अल्लूरी सीताराम राजू के योगदान को भुलाना इन महापुरुषों के प्रति अन्याय ही माना जाएगा। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संथाल विद्रोह 1855, खासी विद्रोह असम,फूकन एवं बरुआ विद्रोह, नगा संग्राम नागालैंड, भूटिया लेप्चा विद्रोह बंगाल, पलामू विद्रोह, खरवाड़ विद्रोह, संथाल क्रांति,टटया मामा विद्रोह मध्य प्रदेश, केरल के आदिवासी किसानों की क्रांति आदि अनेक ऐसे आन्दोलन है, जिन्होंने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी। उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम कोई क्षेत्र एवं जनजाति ऐसी नहीं है, जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान न हो।

जनजाति समाज की इस सनातन परंपरा, धर्मभक्ति एवं स्वतंत्रता के प्रति समर्पण के साथ वीरत्व भाव को देखकर साम्राज्यवादी शक्तियों ने शेष समाज से काटने के लिए उनके बीच में अलगाव के बीज बोने प्रारंभ किए। सनातन भारतीय परंपरा से अलग करने का एक सुनियोजित एवं व्यापक षड्यंत्र 18 वीं शताब्दी से ही प्रारंभ हो गयाथा। ईस्ट इंडिया कंपनी,इंग्लैंड प्रेरित विद्वान एवं चर्च मिशनरीज तीनों ने मिलकर ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ़ करने के लिए कार्य का विभाजन किया। इस कार्य विभाजन में मिशनरीज के पास तथाकथित अस्पृश्य एवं जनजाति समाज (आदिवासी)को भारतीय सनातन परंपरा से अलग करने का काम आया था। अलगाव, मिथ्या एवं भ्रामक प्रचार के 13 सूत्री एजेंडे का यह 12वां बिंदु था। प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक "भारत में ईसाई धर्म प्रचार तंत्र"में इसका विषद् वर्णन किया है। स्वतंत्रता के पश्चात मिशनरीज के इस अभियान में वामपंथी संगठन, तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी लेखक एवं पत्रकार भी जुड़ गए। जनजाति समाजमें छोटी छोटी पहचान को प्रचारित करके अलगाव के माध्यम से यह षड्यंत्र आज तक भी जारी है।

चर्च प्रेरित इस षड्यंत्र को सफल करने का माध्यम शिक्षा, चिकित्सा एवं सेवा का अपनाया गया । लेकिन इस सेवा के पीछे भावना अलगाव की ही थी। इसका परिणाम निकला कि वनवासी समाज अपनी परंपरा एवं महापुरुषों से कटता गया, एवं ईसाई धर्म में धर्मान्तरित होता गया। जिसके परिणाम स्वरूप नए-नए आतंकी संगठन एवं अलगाव के आंदोलन खड़े होते गए। आज भी उत्तर पूर्वांचल के अनेक राज्यों सहित छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा जैसे जनजाति प्रभाव वाले राज्यों में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं।

ईसाइयत एवं साम्राज्यवादी विस्तार के उद्देश्य से यूरोपीय आक्रमणकारी अनेक देशों में गए। वहां जाकर उन्होंने वहां की रहने वाली मूल जातियों के साथ अत्याचार किए एवं नृशंस हत्या की। इसके परिणाम स्वरुप भयभीत होकर यह सभी मूलनिवासी जंगलों में चले गए। प्रारंभ काल से उनके वहां रहने के कारण उनको आदिवासी कहा गया। ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, अमेरिका, न्यूजीलैंड सहित दुनिया के अनेक देशों में इतिहास इन घटनाओं से भरा पड़ा है। 9 अगस्त "विश्व आदिवासी दिवस" मनाना उनका प्रायश्चित प्रयास मात्र ही है ।

भारत में पश्चिमी देशों के समान कोई हिंसा एवं जनजाति समाज को अपने स्थान से उखाड़ने अथवा भगाने की घटना नहीं हुई, क्योंकि भारत में जनजाति समाज भी शेष ग्राम, नगरीय समाज के समान ही सम्पूर्ण समाज का अंग माना जाता रहा है। इस कारण संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित "विश्व मूलनिवासी" दिवस 9 अगस्त को भारत में मनाने की आवश्यकता नहीं थी। भारत में कोई बाहर से नहीं आया वरन् सभी यहां के मूल निवासी ही है। सुदूर पहाड़ों एवं जंगलों में फैले जनजाति समाज की संस्कृति, गौरवपूर्ण परंपरा को देश के सम्मुख लाने के लिए "जनजातीय गौरव दिवस" मील का पत्थर साबित होगा। भगवान बिरसा मुंडा का जन्म दिवस 15 नवंबर इसके लिए सर्वथा उपयुक्त है। देश एवं जनजाति समाज का गौरव बढ़ाने वाले हुतात्माओं के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है, इस शुभ दिवस पर हम मोदी सरकार को धन्यवाद देते हुए जनजाति समाज के सहयोग एवं अलगाववादी शक्तियों को पराजित करने का संकल्प लें।

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