भोपाल: पत्रकार विजय मनोहर तिवारी कैसे बने माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलगुरु, इस पत्र से हुआ खुलासा...
भोपाल। 11 फ़रवरी का वो दिन था जब माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय को नए कुलगुरु मिले। ख्याति प्राप्त पत्रकारिता विश्विद्यालय के कुलगुरु का नाम सबको चौंकाने वाला था। यह नाम था वरिष्ठ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी का। यह नाम सामने आने के बाद सभी के मन में कई सवाल उठे थे कि, आखिर पत्रकार विजय मनोहर तिवारी को ही क्यों इस पद के लिए नियुक्त किया गया। इसका जवाब रविवार को एक पत्र के माध्यम से मिल गया हैं। आइये जानते हैं क्यों पत्रकार विजय मनोहर तिवारी को पत्रकारिता विश्विद्यालय का कुलगुरु नियुक्त किया गया...।
दरअसल, वरिष्ठ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी रविवार को अपने आधिकारिक फेसबुक हैंडल से एक पत्र साझा किया है। इस पत्र में उन्होंने अपने पत्रकारिता अनुभव के साथ अपनी पत्रकार से लेकर कुलगुरु बनने तक की यात्रा को बताया है। उन्होंने बताया कि, कैसे वें मुंबई जाने के विचार को दरकिनार कर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय के कुलगुरु बनें।
आइये अब पढ़ते हैं वरिष्ठ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी का वो पत्र...
"बीते 15 माह से गाँव में था। अपने "यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमरूद' में। रिवर्स माइग्रेशन की एक पहल। शहरों से गाँव लौटकर मिलजुलकर कुछ नया करने का प्रयास। तीस साल शहरों में बिताने के बाद गाँव का यह अनुभव एक अलग किताब का विषय है। बागवानी का प्रयोग अब पटरी पर आ गया है और एक छोटी सी टीम बन गई है। ढाई हजार पौधे अपने पूरे आकार में उभरकर लंबी कतारों में किसी अनुशासित सेना की तरह लहरा रहे हैं। मेरी पूज्य मां के सबसे प्रिय खेत में, जिसे हमने उन्हीं के नाम पर समर्पित किया है-"सावित्री वृक्ष मंदिर।'
मार्च से काम पर वापस लौटने का विचार था और मीडिया के कुछ विकल्प भी थे। एक प्रिंट और दूसरा टीवी का। मुझे 15 फरवरी तक तय करना था कि भोपाल में रहूं या मुंबई का रास्ता लूँ। किंतु जिंदगी अक्सर चौंकाती भी है। मेरे जीवन में ऐसा अनेक बार हुआ है।
मैं गाँव से अपना बोरिया बिस्तर समेटने में ही लगा था और कुछ सामान लेने भोपाल आया था कि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के ऑफिस से बुलावा आया। हम आधे घंटे मिले। उन्हें मीडिया में मेरी भूमिका के विषय में विस्तार से पता था। कुछ विषयों पर केवल औपचारिक बात करते रहे। वे पढ़ने के शौकीन हैं और इतिहास में गहरी रुचि रखते हैं तो इतिहास के विषयों पर ही बात हुई। अधिकतर मध्यप्रदेश के संदर्भ में। मैं समझा नहीं कि अचानक इस चर्चा का कारण क्या है। स्वादिष्ट ग्रीन टी की चुस्कियों के बीच यह एक सामान्य सौजन्य भेंट सी थी। यह देर शाम की बात है।
मैं गाड़ी ड्राइव करके घर लौटा और गाड़ी से उतरा भी नहीं था कि फोन बजना शुरू हो गया। रजिस्ट्रार अविनाश वाजपेयी ने बधाई देते हुए बताया कि आदेश हो गया है। मैं सोशल मीडिया के संदर्भ में सतर्क रहता हूं। इंटरनेट पर कोई भी किसी भी प्रकार का आदेश जारी कर सकता है। अक्सर खबरों में आता है कि फलाँ नेताजी को पार्टी की राष्ट्रीय इकाई में बड़ा पद मिल गया है। महासचिव के हस्ताक्षर से आदेश प्रसारित हो गया। मिठाई बट गई। पोस्टर लग गए। जुलूस निकल गए। बाद में पता चला कि वह आदेश यूं ही किसी की शरारत था। वाजपेयी ने आश्वस्त किया कि आपके मैटर में ऐसा नहीं है। आप बधाई ले सकते हैं। मैंने उनकी गारंटी पर लगातार आ रहे फोन काल्स लिए। जितने लिए, उससे अधिक अब तक कॉल बैक कर रहा हूँ।
मीडिया की सेवाओं के दौरान पहली बाइलाइन, पहली पीटूसी, पहला लाइव कवरेज, पहली किताब, पहली समीक्षा, पहला पुरस्कार, पहला सम्मान, पहली विदेश यात्रा इत्यादि ऐसे अवसर हैं, जो हरसूद पर लिखी किताब के बाद झड़ी से लगे रहे हैं। भारत यात्राओं के वृत्तांत को छोड़कर मैंने कभी अपनी किसी पुस्तक का विमोचन नहीं किया। लिख दी है, बात खत्म। अब क्या विमोचन और क्या चर्चा-गोष्ठी करना। दम होगी तो किताब अपना पाठक खुद खोज लेगी। हम हट जाएँ।
मध्यप्रदेश को ही मैंने अपनी पत्रकारिता का गर्भगृह बनाया था और यहीं से पूरे भारत की आठ-दस परिक्रमाएँ करने का पुण्य प्राप्त किया। पहले भोपाल, फिर इंदौर, फिर भोपाल और फिर इंदौर होकर फिर भोपाल। दीवार पर टंगे कैलेंडर 1994 से 2018 तक आ गए। फिर मीडिया से विदा लेकर एक नई भूमिका में गाँव चला गया।
लेकिन बीती 11 फरवरी की शाम अवर सचिव कैलाश बुंदेला के हस्ताक्षर से जारी ए-फोर साइज के एक आदेश ने जितना भावुक किया, शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। 1993 में जिस माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय संस्थान में पढ़ने आया था, वह दूसरा बैच था और शासन का यह आदेश बता रहा था कि मुझे मध्यप्रदेश की माटी के एक महान सपूत दादा माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर स्थापित उसी विश्वविद्यालय में कुलगुरू के रूप में चुना गया है। त्रिलंगा परिसर की छोटी सी गुलाबी इमारत से बिशनखेड़ी में 50 एकड़ के भव्य परिसर तक की विश्वविद्यालय की महायात्रा 35 साल की है। मेरे अनेक पूर्ववर्ती महानिदेशकों, कुलपतियों और अब कुलगुरू ने इसे यहाँ तक पहुंचाया। जिसे जितना समय मिला, अपना सर्वश्रेष्ठ देकर ही गया।
मैं हैरान हूं। शायद ही देश का कोई न्यूज चैनल, कोई अखबार, कोई शहर हो जहाँ अपनी प्रतिभा और परिश्रम से अपना स्थान बना रहे विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थियों ने शुभकामनाएँ न दी हों। अधिकतर से मैं कभी मिला नहीं। जानता भी नहीं। किंतु वे मुक्त मन से प्रसन्न थे। यह विश्वविद्यालय की असल पूंजी है। जो भी जहाँ है, वह इस विश्वविद्यालय का ब्रांड एंबेसडर है।
पहले दिन परिसर में गाड़ी से उतर ही रहा था और मुंबई से हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती की पत्नी श्रद्धेय पुष्पा भारती का आशीर्वाद के लिए फोन कुछ अमूल्य सुझाव सहित आया। अयोध्या के आचार्य मिथिलेशनंदिनीशरण ने प्रयागराज के अपने शिविर से अपने संग मेरी एक तस्वीर लगाकर एक्स पर अपने आशीष प्रेषित किए।
परिसर के नए कार्यालय में मैंने त्रिलंगाकाल के दो सबसे सीनियर साथी नारायण और बाला को आमांत्रित करके उनसे कहा कि उन्हें मुझसे यह पूछने का अधिकार है कि मैं किस हैसियत से कुलगुरू के आसन पर विराजमान होने चला आया हूं? मेरी क्या कमाई है, जो डिग्री लेकर निकलने के बाद अर्जित की। और अगर आपको लगता कि मैं चयनकर्ताओं का सही चुनाव नहीं हूं तो प्रवेश द्वार से लौटाने का अधिकार आपको है, आपने एक विद्यार्थी के रूप में हमें यहां आते और जाते देखा है और अब एक नई भूमिका में आते हुए देख रहे हैं। आप पूछ सकते हैं।
मैंने अपनी जमापूंजी के केवल तीन प्रमाण अपने झोले से निकालकर उनकी खंडपीठ में प्रस्तुत किए- पहला, अखबारी दुनिया पर लिखा गया उपन्यास "स्याह रातों के चमकीले ख्वाब', दूसरा अपनी स्वर्गीय मां पर केंद्रित अखबार "सावित्री समाचार' और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण 1993 की एक दुर्लभ डायरी, जिसमें डॉ. एनके त्रिखा, कमल दीक्षित, डॉ. श्रीकांत सिंह और ओम नागपाल की कक्षाओं के नोट्स अब तक सुरक्षित रखे थे। मैंने राहत की साँस ली कि नारायण और बाला ने कृतज्ञ भाव से मुझे स्वीकार किया। प्रभात प्रकाशन से छपी "स्याह रातों के चमकीले ख्वाब' विश्वविद्यालय से मीडिया के असीम आकाश में उड़ाने भरने वाले हजारों नवजात सपनों की कहानी है।
ग्वालियर से मेरे वरिष्ठ और अपने विचारों पर सदा अटल-अचल श्रीमान् राकेश अचल, वडोदरा में किडनी की तकलीफ से जूझ रहे राकेश दुबे ने फूलों का गुलदस्ता सप्रे संग्रहालय में सबके बीच भेजा, इंदौर में नाम के राणा और दिल के महाराणा श्रीमान् कीर्ति राणा, इंदौर के ही श्रीमान् मुकेश तिवारी, शब्दों के सफर में धरती-आकाश नाप रहे श्रीमान् अजित वडनेरकर, "द सूत्र' के आनंद पांडे ने शासन द्वारा की गई चार महत्वपूर्ण सर्वोच्च नियुक्तियों में इसे भी गिन लिया, हमारे अब तक के किए धरे पर निरंतर दृष्टि रखने वाले पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर और पद्मश्री डॉ. कपिल तिवारी, दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश मिश्रा, वाइल्ड लाइफ बोर्ड के सदस्य आदरणीय मोहन नागर और भारत भवन न्यास के अध्यक्ष प्रसिद्ध रंगकर्मी वामन केंद्रे, स्वदेश के समूह संपादक अतुल तारे, नईदुनिया के समय से मेरे सीनियर शिवकुमार विवेक और इन दोनों अखबारों के बीच अपनी लंबी पत्रकारीय यात्रा करने वाले गिरीश उपाध्याय, विद्यार्थी जीवन से लेकर अब तक जिनके किस्सों ने हमारे लिखने के सलीके सुधारे श्रीमान् कमलेश पारे, मंडी बामौरा के मेरे स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय के सहपाठियों तक कितने मित्रों की पोस्टें और टिप्पणियाँ हैं, किन-किनके नाम लूँ।
अंत में एक प्रेस नोट जारी हुआ, जिसमें मेरे "पदभार ग्रहण' की सदाबहार टाइप सूचना थी। तब मैंने एक संशोधन किया कि ये न पद है, न भार है, पदभार भी नहीं है। एक उत्तरदायित्व है, जो दिया गया है। एक विश्वास है, जो जताया गया है। न पाना सरल है, न निभाना। परमात्मा ने निमित्त बनाया। उसकी अपार अनुकंपा के आगे नतमस्तक हूं। सदा से। बस आज गए और अपना चिमटा-कमंडल रख आए…
कुलगुरू चयन समिति के सभी माननीय सदस्यों और मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को मेरे प्रति विश्वास जताने के लिए ह्दय से आभार।"