महिलाएं तभी बराबरी का दर्जा पा सकेंगी जब वल्दियत में उनका नाम हो
सेना में महिलाओं की भर्ती आत्मघाती कदम होगा
विजय कुमार गुप्ता
मथुरा। महिलाएं पुरुषों से बराबरी का दर्जा तभी प्राप्त कर सकेंगी जब वल्दियत में पिता की जगह माता का नाम लिखा जाय। यदि दोनों का नाम लिखा जाए तो भी चलेगा किंतु माता का नाम पहले होना चाहिए क्योंकि माता की तो प्रमाणिकता रहती है कि उसने जन्म दिया है लेकिन पिता की प्रमाणिकता नहीं रहती। उसकी तो डीएनए जांच से ही पुष्टि संभव है। जिस प्रकार राशन प्रणाली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महिला को परिवार का मुखिया माना है, ठीक उसी प्रकार माता की प्रधानता होनी चाहिए।
हर क्षेत्र में महिलाओं को नौकरी देकर यह मानना कि पुरुषों के बराबर का दर्जा प्राप्त हो गया, यह सोच गलत है। बल्कि सेना में महिलाओं की नौकरी तो एक प्रकार से आत्मघाती कदम होगा। इससे तो अप्रत्यक्ष रूप से दुश्मन देशों की मदद ही होगी। कल्पना करके देखिए कि जोरदार लड़ाई चल रही है और चारों ओर गोलियां और बमों के धमाके हो रहे हैं। टैंकों की दहाड़, राकेट लांचरों की मारामार चरम पर हो, उस समय महिला सैनिकों की क्या दशा होगी? कोई माहवारी से होगी किसी को गर्भ ठहरा हुआ होगा या फिर किसी की डिलीवरी का टाइम निकट होगा।
परिणाम सभी समझ रहे होंगे कि गर्भवतियों के गर्भ गिर जाएंगे। डिलीवरी के टाइम वालियों की एक-दो माह पहले ही लड़ाई के मैदान में ही डिलीवरी हो जाएगी तथा जिनका मासिक टाइम होगा वह भी कितनी परेशानी में पड़ जाएंगी। यह सब बातें हंसी में लेने की नहीं हैं। ये सब तो हमें सोचना चाहिए। इस संबंध में सरकार को सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका दाखिल करनी चाहिए और इससे भी बात न बने तो कानून ऐसा बनाना चाहिए कि देश की रक्षा से संबंन्धित संवेदनशील मामलों में न्यायालय का हस्तक्षेप न हो। इस समय तो सरकार के पास दो तिहाई बहुमत है। कोई दिक्कत वाली बात ही नहीं है।
दूसरी बात यह है कि सेना में जब महिला और पुरुष एक साथ मोर्चे पर दुश्मन से लड़ेंगे तो क्या स्थिति बनेगी? यह भी विचारणीय प्रश्न है। आग और फूस का मेल तो न कभी रहा है और ना ही कभी रहेगा। यह मेल फीमेल सैनिकों का ध्यान दुश्मनों से लड़ने में रहेगा या अपसी मेल मिलाप में? शायद आपसी मेल मिलाप में। अभी तो सेना में महिलाओं की ऊपरी तौर पर भर्ती की शुरुआत हुई है और आगे मोर्चे पर लड़ने वालों में भी होगी। इस बात के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। पहले हर क्षेत्र में महिलाओं को नौकरी, फिर प्रशासन और पुलिस में और अब तो बची खुची कसर यह भी पूरी हो गई कि सेना में भी इन्हें बराबरी का दर्जा देकर आगे आने वाले समय में मोर्चे पर लड़ने भेजा जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो देश की आजादी के साथ खिलवाड़ तो नहीं होगा? यह हमें सोचना होगा।
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात एक और यह है कि माता, बहन और बेटी की तो कभी बराबरी हो ही नहीं सकती। हमारे धर्म शास्त्रों में इनका स्थान तो हमेशा से ऊंचा रहता आया है, किंतु सोचने की बात तो यह है कि जैसी इनकी शारीरिक संरचना है और जैसी इनकी स्थिति है (गर्भधारण प्रजनन और बच्चों का लालन-पालन) उसको देखते हुए इन्हें हर जगह नौकरी में घसीटना क्या इनके साथ अन्याय नहीं है? पहले दहेज का उत्पीड़न सहो, फिर बच्चे पैदा करो, उन्हें पालो पोसो और फिर घर का सब काम भी संभालो तथा ऊपर से पैसा भी कमा कर लाओ। जरा सोचो उन नवजातों की क्या गति होती होगी? क्या नवजात शिशुओं के अधिकार नहीं होते? न नवजातों पर यह ध्यान दे पातीं हैं और ना ही बड़े होने के समय इनकी पूरी परवरिश ढंग से कर पातीं हैं। एक गलत बात यह भी है कि किसी के परिवार में बेटी, बहू, पत्नी तथा अन्य सभी नौकरी कर रहे हैं। दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जिनके सर पर पूरे परिवार के लालन पालन की जिम्मेदारी है और वह बेचारे काम धंधे की तलाश में मारे मारे फिर रहे हैं।
महिलाओं को हर क्षेत्र में दनादन नौकरी कराकर देश में बेरोजगारी को बढ़ावा दिया जा रहा है। यदि कहीं प्रतिकूल परिस्थितियां हो वहां तो महिलाओं की नौकरी जायज है लेकिन एक ओर तो पूरा का पूरा कुनबा नौकरी करके मजे ले रहा है और दूसरी ओर जरूरतमंद लाचार होकर आत्महत्या या लूटपाट और चोरी डकैती आदि अन्य अपराधों के लिए मजबूर हो रहे हैं। यह कौन सी अच्छी बात है? राजा महाराजाओं के पुराने जमाने से यह पृथा चली आ रही है कि औरतों का कार्यक्षेत्र गृहस्थी चलाना है। इसीलिए उन्हें घरवाली कहा जाता है और मर्दों का काम कमाई करके लाना है।
घोड़े पर सवार होकर आएंगी और दूल्हे को ब्याह ले जाएंगी
यदि यही स्थिति बनीं रही तो वह दिन दूर नहीं जब दुल्हनें घोड़े पर सवार होकर बारात लेकर दूल्हे के द्वार जाएंगी और उसे ब्याह कर अपने साथ ले आयेंगी।
क्योंकि महिलाओं को पुरुषों की भांति बराबरी दिए जाने का जो जुमला उछाला जा रहा है और पुरुषों के हर क्षेत्र में इन्हें उतारा जा रहा है उससे तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है।
ऐसा भी लगता है हम ईश्वर द्वारा निर्धारित इंसानी कायदे कानून का उल्लंघन कर रहे हैं। महिलाओं की शारीरिक संरचना के हिसाब से बनाऐ गए जो कार्य क्षेत्र हैं, उनसे भयंकर छेड़छाड़ हो रही है और इस सब जुमलेबाजी की सोच के पीछे सिर्फ महिलाओं के वोट हड़पने की चाल और चोंचले बाजी है।
सोचिए कि यदि पैर कहे कि मैं हाथों से किसी मायने में कम नहीं हूं। मुझे भी इनके समकक्ष का दर्जा दो। तो फिर क्या चलने का काम हाथ करेंगे? या पैरों को काटकर सर्जरी करके हाथों की जगह फिट किया जाएगा? और पैरों की जगह हाथ लगाए जाएंगे? यही स्थिति हमारे समाज की हो रही है। जो विकृति की ओर दिन दूनी और रात चैगुनी गति से बढ़ती चली जा रही है। अंत में एक बात और यह कि जब यह कहा जाता है कि महिलाएं ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे वह नहीं कर सकती हैं, तो ऐसा कहने वालों से पूछा जाए कि क्या महिला पिता बनने का कार्य कर सकती हैं। अतः जिसका जो कार्य है, वह उसी को शोभा देता है।