मथुरा/विजय कुमार गुप्ता। नोटबंदी और जीएसटी ने तो अधमरा ही किया था किंतु कोरोना के कहर ने तो अब लोगों को बिल्कुल ही मार डाला है। अकेलेपन का आतंक कोरोना के कहर से भी अधिक भयंकर है। घरों में कैद लोग मानसिक तनाव से चिड़चड़े हो रहे हैं तथा घरेलू हिंसा बढ़ रही है और चारों ओर त्राहिमाम-त्राहिमाम ही हो रही है।
एक कहावत है कि होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय। जाको राखे सांईयां मार सके ना कोई। यह बात तो सही है कि हम सभी को अपनी सुरक्षा के लिये सावधानी बरतनी चाहिए किन्तु घरों में कैद होने से तो मामला और बिगड़ता जा रहा है।
ऐसा न हो कि लाॅकडाउन के बाद जब लोग खुले में आए तब उनमें ज्यादातर पागल होकर निकलें। यदि यही स्थिति रही तो समझदारों से ज्यादा पागलों की संख्या हो जाएगी जो बड़ी खतरनाक बात होगी और मामला संभाले नहीं संभलेगा।
खैर होना वही है जो ईश्वर ने पहले से ही तय कर रखा है। लोगों का कहना है कि शासन को इस बात पर विचार करना चाहिए कि लाॅकडाउन में आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी का समय बढ़ाया जाए क्योंकि कम समय होने पर भीड़ एक साथ टूटती है और आपस में एक दूसरे से भिड़ कर चलना मजबूरी हो जाता है।
लाॅकडाउन के नियमों के पालन के चक्कर में दिखावा और चैचलेबाजी भी बहुत हो रही है। कुछ लोग खाने की वस्तुएं बांटने के नाम पर दिखावा अधिक कर रहे हैं। किसी को कुछ दिया, मोबाइल से फोटो खींची और फेसबुक पर डाल दी और अखबारों में छपवा दी। इससे ऐसा लगता है कि गरीब की मजाक उड़ाई जा रही है।
यह बीमारी धनपतियों में ज्यादा दिखाई दे रही है। एक कहावत है कि ऐरन की चोरी करें और करें सुइन के दान, ऊपर चढ़के देखते कितनी दूर विमान। यह कहावत इन लोगों पर सटीक बैठती है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो प्रसार-प्रचार से दूर रहकर अतुलनीय सेवा कर रहे हैं, वह धन्य है और सही मायने में देखा जाए तो वही सच्चे समाजसेवी हैं, उनके लिए साधुवाद। जब हम पैदा हुए जग हंसा हम रोऐ, ऐसी करनी कर चलौ हम हंसैं जग रोऐ।