केरल में आई प्राकृतिक आपदा को लेकर कोई कुछ भी कहे, किंतु यह प्रकृति की नाराजगी से ज्यादा इंसान द्वारा खुद के लिए बुलाई आफत अधिक है, क्योंकि जिस तरह से इस राज्य में पिछले कई वर्षों से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने की बजाय शोषण किया जा रहा है, उसके बाद इतना तो तय ही हो गया था कि आज नहीं तो कल केरल पर भारी प्राकृतिक आपदा जरूर आएगी। वस्तुतः ऐसा इसलिए भी है कि केरल में आवश्यकता से अधिक बारिश होने का यह पहला अवसर नहीं है, इसके पूर्व भी कई बार यहां मानसून के दौरान भारी बारिश होती रही है इस बार भी सामान्य से अधिक बारिश हुई है किंतु हर बार अधिक बारिश होने पर पानी किसी न किसी तरह से नदियों और समुद्र में मिल जाता था लेकिन इस प्रकार की तरह तबाही कभी नहीं मची। इस संबंध में यदि वैज्ञानिकों की समय-समय पर दी गई चेतावनी पर ध्यान दिया जाता तो संभव है यह दुखद दिन देखना ही पड़ते। यहां पर्यावरण मंत्रालय द्वारा निर्धारित किए गए प्राकृतिक नियमों का पालन न तो राज्य सरकार द्वारा किया गया और न ही इस राज्य की जनता, जो सीधे तौर पर प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर लाभ से जुड़ी है उसने इस बारे में कभी गंभीरता से सोचा कि कहीं प्रकृति का हमारे द्वारा किया जा रहा शोषण हमारे लिए ही अभिशाप न बन जाए।
केरल में आई विनाशकारी बाढ़ से ठीक एक माह पूर्व भी केंद्रीय स्तर पर एक सरकारी रिपोर्ट जारी की गई थी, जिसमें साफ चेतावनी दी गई थी कि यह राज्य जल संसाधनों के प्रबंधन के मामले में दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में सबसे निचले स्तरों में से है। रिपोर्ट में 42 अंकों के साथ उसे 12 वां स्थान दिया गया था । हालांकि इस सूची में केरल से भी नीचे भी चार गैर-हिमालयी, हिमालयी और चार पूर्वोत्तर राज्य हैं, किंतु इसमें जो आशंका व्यक्त की गई देखते ही देखते वह हकीकत में हमारे सामने आ गई । इस साल की शुरुआत में केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक आकलन में केरल को भविष्य में बाढ़ आने के खतरे को लेकर सबसे असुरक्षित 10 राज्यों में रखा गया था।
इसी प्रकार की एक रपट 2010 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इस बात को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए लाई गई थी कि देश के 6 राज्य पारिस्थितिकी के अनुसार ज्यादा संवेदनशील है, जहां पर मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एक सीमा में मर्यादा के साथ ही किया जाए तो ही इस प्रदेश के लोगों के लिए सही होगा । यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो इसका नुकसान बड़े स्तर पर इन राज्यों में रहने वाले लोगों को भुगतना पड़ सकता है। प्राकृतिक आपदा के रूप में जो कठिनाई इसके कारण सामने उपस्थित होगी, उस से भविष्य में निपटना मुश्किल होगा । किंतु भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट को लेकर लगता यही है कि फाइलों के नीचे दबाकर भुला दिया गया था । देखते ही देखते आठ साल बीत गए लेकिन आज केरल की आई आपदा ने फिर से इस रिपोर्ट की याद दिला दी है।
मौसम विभाग आने वाले दिनों में भी और अधिक तेज बारिश होनी की आशंका जता रहा है तो पर्यावरणविदों का मानना है कि केरल में काफी तेजी से हो रही पेड़ों की कटाई इस आपदा के लिए जिम्मेदार है। तथ्य यह भी है कि केरल में पहले 13 हजार वर्ग किलोमीटर संवेदनशील क्षेत्र स्वयं सरकार द्वारा रेखांकित किया गया था किंतु लाभ के लिए सरकार ने ही आगे चलकर इसका क्षेत्रफल घटा दिया और इसे 9 हजार 993 किलोमीटर पर ही समेट दिया। इसी के साथ सरकार ने अत्यधिक लाभ को देखते हुए पत्थरों की खुदाई को लेकर बड़े स्तर पर लाइसेंस देना जारी रखा जिसके कारण यहां का वन क्षेत्र कमजोर हुआ और जमीन का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ा। पेड़ों की भारी कटाई ने प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को व्यापक स्तर पर क्षति पहुंचाई।
यही वे बड़े कारण हैं जिसके चलते केरल इस बार पानी के बहाव को सह नहीं सका । इस आपदा की भयावहता का अंदाजा इससे भी लगता है कि राहत शिविरों में 90 हजार से अधिक लोग शरणार्थी बने हुए हैं और राज्य सरकार का अनुमान है कि पूरी प्राकृतिक आपदा में उसे तकरीबन 19 हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ है। हालांकि समूचे देश से केरलवासियों की मदद के लिए हाथ खड़े हुए हैं, केंद्र सरकार ने केरल की बाढ़ को गंभीर आपदा घोषित किया है। यहां के लोगों के बीच हरसंभव मदद पहुंचाई जा रही है और हालात में कुछ सुधार होने पर कोच्चि नौसेना एयरवेज से सोमवार को छोटे विमानों ने परिचालन शुरू किया गया है।
वस्तुत: समय के साथ पर्यावरण के क्षेत्र में कार्य कर रही स्वयंसेवी संस्थाओं और पर्यावरण मंत्रालय की आई विविध रिपोर्ट्स ने साफ तौर पर संकेत दे दिया है कि यदि हम अभी भी नहीं सुधरे और केवल लाभ के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग करते रहे तो केरल जैसी बाढ़ एवं आपदाएं देश के अन्य राज्यों में भी दोहराई जा सकती हैं। हमारे धर्मशास्त्रों में और वेदों में इस बात को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है कि हमें प्रकृति का दोहन करना चाहिए ना कि शोषण। जब मनुष्य अत्यधिक स्वार्थपूर्ति की कामना से प्रकृति का शोषण करने लगता है तो इस प्रकार की आपदाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो जाती है। अभी केरल में जो घट रहा है या घटा, कह सकते हैं कि वह हम मनुष्यों की लालची प्रवृत्ति का ही परिणाम है। इसलिए हमें पुनर्विचार करना चाहिए कि आखिर विकास की अवधारणा के बीच प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग तथा उनका दोहन आखिर किस सीमा तक किया जाना उचित रहेगा । हम यदि केरल की आपदा से सबक नहीं लेते तो इस बात को मान लेना चाहिए कि मनुष्य के लिए आने वाला भविष्य केरल जैसी बाढ़ से भी कई गुना अधिक खतरे की घंटी बजा रहा है।
(लेखक पत्रकार एवं फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य हैं)