संघ स्वयं के दायित्व बोध से अवगत है। वह यह देख रहा है, समझ रहा है कि वैश्विक स्तर पर आज भारतीय संस्कृति की महक है, विश्व कातर दृष्टि से भारत की बड़ी भूमिका को लेकर उत्सुक है, पर ठीक इसी समय भारत को भारत की आभा से, भारत के प्राणतत्व से दूर करने का भी एक बड़ा षड्यंत्र देश में चल रहा है। संघ को स्वयं की सीमाओं का भी बोध है साथ ही वह यह भी अनुभव कर रहा है कि देश की एक बड़ी सज्जन शक्ति ऐसी है, जो अपने-अपने स्तर पर सकारात्मक कार्य में रत हैं, पर यह शक्ति बिखरी हुई है, इनमें आपस में कदमताल एक दिशा में नहीं है। 'राष्ट्र सर्वोपरि' यह भाव भी कहीं-कहीं वरीयता के क्रम में नहीं है। साथ ही अराष्ट्रीय शक्तियां जो भारत में रह कर ही भारत को उसकी मिट्टी से, उसके मूल्यों से, उसके मान बिन्दुओं से, उसके आदर्श प्रतिमानों से काटने का जो राष्ट्रघाती उपक्रम कर रही हैं यही नहीं संघ को भी योजनाबद्ध तरीके से एक अधिनायकवादी, विभाजनकारी, साम्प्रदायिक, कट्टर और यहां तक कि आतंकी संगठन ठहराने का दुष्चक्र जारी है और यह दुष्चक्र इतने कोलाहल के साथ है कि 100 बार कहा झूठ शायद एक बार सच साबित हो जाए। संघ को स्वयं के लिए कुछ भी अपेक्षा नहीं है, पर आज इस षड्यंत्र के चलते 'परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्' का जो लक्ष्य है, वह दूर हो रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक स्व. श्री बाला साहेब देवरस ने अपने अपने सार्वजनिक उद्बोधन में एक बार कहा था कि हम सोए हुए लोगों को जगाएंगे पर जो लोग सोने का नाटक किए हुए हैं, हम अपनी ऊर्जा उन पर नष्ट नहीं करेंगे। संघ का तीन दिवसीय आयोजन भविष्य का भारत, संघ दृष्टि, सोए हुए समाज को जगाने का ही एक उपक्रम है, प्रयास है। संघ की यह पहल अभिनंदनीय है और आज के परिप्रेक्ष्य में यह उससे अपेक्षित ही था और यही उसका युगानुकूल कर्तव्य भी है। संघ स्वयं सजग है, स्वयं के दायित्वों को लेकर वह जानता है, ठीक 7 साल बाद वह अपने यशस्वी जीवन के 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है। वह यह भी जानता है कि तेजी से वैश्विक पटल पर जो घटनाक्रम बदल रहे हैं, उसमें भारत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने वाली है। भारत रत्न प. मदन मोहन मालवीय के शब्दों में, मैं भारत की चिंता करता हूं क्यों क्योंकि मुझे विश्व की चिंता है कारण मैं यह जानता हूं विश्व कल्याण का मार्ग भारत से ही निकलेगा।
अत: संघ का यह अद्भुत आयोजन शास्त्रार्थ की, विमर्श की एक ऐसी सुंदर पहल है, जिसका स्वागत होना चाहिए। संघ, इस आयोजन से स्वयं के लिए कुछ भी नहीं चाहता, वह तो तेरा वैभव अमर रहे मां हम दिन चार रहे न रहे का मंत्र रोज जपता है। इसीलिए पहले ही दिन पूजनीय सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत ने स्पष्ट कर दिया था कि देश में सूर्योदय देश की सामूहिक शक्ति से ही होना चाहिए। आपने कहा कि हम ऐसा इतिहास लिखवाना भी नहीं चाहेंगे कि देश में सकारात्मक परिवर्तन संघ शक्ति के कारण हुआ क्योंकि ऐसा अगर हुआ तो यह संघ का पराभव होगा, पराजय होगी। विश्व में कौनसा ऐसा संगठन है जो कर्ता की अहमन्यता से इतना मुक्त हो? देश के ही नहीं, विश्व के समाजशास्त्रियों शोध करना चाहिए। वे ऐसा करेंगे तो पाएंगे कि वाकई संघ की तुलना संघ से ही संभव है। आखिर श्रीमद्भगवत गीता में निष्काम कर्म योग और क्या है, इसे साक्षात आज देखना है तो संघ पर ही नजर ठहरती है। कारण यही ऐसा संगठन है, वह राष्ट्रहित में स्वयं को विलीन करने का, गला देने का साहस बिना किसी अपेक्षा के करने का दम रखता है। आपातकाल के समय जब देश का लोकतंत्र खतरे में था, उस समय संघ की भूमिका इस दावे का प्रमाण है।
आखिर इस अद्भुत अनोखी कार्यपद्धति का शक्तिपुंज कहां हैं? संघ के सरकार्यवाह माननीय भैय्याजी जोशी के शब्दों में यह हमारी दैनंदिन शाखा है। वे कहते हैं, विश्व के ज्ञात इतिहास में ऐसा दिव्य प्रयोग आज तक कहीं नहीं हुआ। हां स्वामी विवेकानन्द ने अवश्य एक बार कहा था कि समाज जागरण के छोटे-छोटे केन्द्र होने चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि ' मैं देख रहा हूं कि देश के मध्य भाग से इसका प्रारंभ होगा।' स्वामी विवेकानन्द की दिव्य वाणी सार्थक हुई और 1925 में नागपुर में वैचारिक अधिष्ठान के बीज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में पड़े।
आज 2018 है। 93 वर्ष की यह अनथक अहर्निश यशस्वी यात्रा आज हम सबके सामने है। स्वामी विवेकानन्द को हम आधुनिक भारत का शंकराचार्य कह सकते हैं इसलिए कि 7वीं सदी में जब देश का स्वाभिमान टूट रहा था, रूढ़ी संस्कृति को दीमक की तरह चाट रही थी, शंकर ने अपने तपोबल से राष्ट्रभाव का जागरण किया। लगभग यही कार्य 1893 में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में विदेशी जमीन पर किया। आज 2018 है। शिकागो में संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का उद्बोधन और तीन दिवसीय यह व्याख्यान सत्र क्या शंकर की उस परंपरा का सातत्य नहीं है, विचार करें।
जैसा कि मैंने पहले निवेदन किया कि संघ स्वयं के दायित्व बोध से अवगत है। वह यह देख रहा है, समझ रहा है कि वैश्विक स्तर पर आज भारतीय संस्कृति की महक है, विश्व कातर दृष्टि से भारत की बड़ी भूमिका को लेकर उत्सुक है, पर ठीक इसी समय भारत को भारत की आभा से, भारत के प्राणतत्व से दूर करने का भी एक बड़ा षड्यंत्र देश में चल रहा है। संघ को स्वयं की सीमाओं का भी बोध है साथ ही वह यह भी अनुभव कर रहा है कि देश की एक बड़ी सज्जन शक्ति ऐसी है, जो अपने-अपने स्तर पर सकारात्मक कार्य में रत हैं, पर यह शक्ति बिखरी हुई है, इनमें आपस में कदमताल एक दिशा में नहीं है। 'राष्ट्र सर्वोपरि' यह भाव भी कहीं-कहीं वरीयता के क्रम में नहीं है। साथ ही अराष्ट्रीय शक्तियां जो भारत में रह कर ही भारत को उसकी मिट्टी से, उसके मूल्यों से, उसके मान बिन्दुओं से, उसके आदर्श प्रतिमानों से काटने का जो राष्ट्रघाती उपक्रम कर रही है यही नहीं संघ को भी योजनाबद्ध तरीके से एक अधिनायकवादी, विभाजनकारी, साम्प्रदायिक, कट्टर और यहां तक कि आतंकी संगठन ठहराने का दुष्चक्र जारी है और यह दुष्चक्र इतने कोलाहल के साथ है कि 100 बार कहा झूठ शायद एक बार सच साबित हो जाए। संघ को स्वयं के लिए कुछ भी अपेक्षा नहीं है। पर आज इस षड्यंत्र के चलते 'परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्Ó का जो लक्ष्य है, वह दूर हो रहा है। कारण समय कम है। निर्णायक संघर्ष की वेला में मायावी आसुरी शक्तियां प्रबल हुई तो दशकों की साधना, तपस्या निरर्थक हो सकती है। अत: तीन दिन के इस सत्र से संघ ने एक साथ दो लक्ष्यों का संधान करने का प्रयास किया है और वह उसमें सफल भी रहा है। एक संघ को लेकर जितने भी प्रश्न है, आशंकाएं हैं, संघ सरसंघचालक ने स्वयं एक-एक का प्रामाणिक उत्तर देकर अपनी भूमिका स्पष्ट की संघ की है। दूसरा देश की सज्जन शक्तियों को खुला निमंत्रण दिया है कि वे आएं नजदीक आएं। नदी के किनारे बैठकर नदी की गहराई नांपने का निष्फल प्रयास न करें। वे कहते हैं आने का कोई शुल्क नहीं, न ही बाहर जाने का रास्ता बंद है। पर संघ को समझे बिना, संघ को जाने बिना संघ को लेकर राय न बनाइए। साथ ही डॉ. भागवत का यह आव्हान भी महत्वपूर्ण है अगर आप संघ में नहीं भी आना चाहते न आइए पर निष्क्रिय मत रहिए। जहां हैं, वहां राष्ट्रहित को सर्वोपरि रख कर कार्य करें, संघ के सम्पर्क में रहें, हम आपके साथ हैं।
यह एक ऐसी भावुक एवं प्रेरक आश्वस्ति है जो एक ऋषि के मुख से ही संभव है। पर यहां भी देखिए डॉ. भागवत क्या कहते हैं, वे कहते हैं कि वे जो कह रहे हैं वह मंच पर बैठा कोई भी स्वयंसेवक या कोई अन्य स्वयंसेवक भी कह सकता है। मैं जो कह रहा हूं वह संघ का सामूहिक स्वर है। स्वयं के अहम को इतना विलीन करना संघ को जानने वालों के लिए सहज एवं सामान्य हो सकता है, क्योंकि वे सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी को सुनते हैं, जो कहते हैं कि प्रचारक को होना चाहिए, दिखना नहीं चाहिए। ठीक उसी तरह करंट तार में होता है, पर दिखता नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जिसको लेकर रोज कई तरह के आरोप गढ़े जाते है, अपने स्वाभाविक, सहज एवं परंपरागत आचरण से सहिष्णुता का, वैचारिक स्वतंत्रता का, औदार्य का एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है।
प्रसन्नता का विषय है कि देश के एक बड़े वर्ग ने संघ के इस आमंत्रण को समर्थन दिया एवं अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। नि:संदेह आने वाले निकट भविष्य में ही इसके सकारात्मक चमत्कारिक परिणाम सामने आएंगें। संघ का यह आयोजन बेशक अपने तरह का यह पहला आयोजन है पर संघ की कार्यपद्धति पर जो बारीकी से नजर रखते हैं, वे जानते हैं कि संघ यह अपने स्थापनाकाल से ही करता आया है। 'आज का विरोधी, कल हमारा स्वयंसेवक है।' यह प.पू. गुरुजी ने कहा था और यही बात डॉ. भागवत जी कहते हैं कि हमारे लिए कोई भी पराया नहीं, वे भी नहीं जो हमारे विरोधी हैं। हम बस इतनी चिंता अवश्य करते हैं कि उनके विरोध से हमारा नुकसान न हो।शेष आज नहीं तो कल हमें सम्पूर्ण समाज का ही संगठन करना है न कि समाज के अंदर किसी एक संगठन का। विख्यात विचारक, पत्रकार श्री मा.गो. वैद्य के शब्दों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सम्पूर्ण समाज का (of the society) संगठन है न कि समाज के भीतर (within society) कोई एक और संगठन है।
यह संगठन ऐसा क्यों है इसका उत्तर भी स्वयं डॉ. भागवत जी ने दिया कि संघ का उद्देश्य राष्ट्र का परमवैभव है और राष्ट्र का परमवैभव भी इसलिए कि हम विश्व कल्याण के हामी है। हमारी चेतना का मूल हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व क्या है, इसकी भी आपने सुन्दर परिभाषा दी। राष्ट्रभक्ति पूर्व गौरव एवं संस्कृति के प्रति अभिमान ही हिन्दुत्व का आधार है। आपने स्पष्ट किया कि हिन्दुत्व या हिंदू राष्ट्र का अर्थ संघ की दृष्टि में क्या है। वे कहते हैं मुस्लिमों के बगैर हिन्दू राष्ट्र क्या हिन्दुत्व ही नहीं बचेगा। कारण हिंदुत्व ही एक ऐसा विचार है, ऐसा प्रवाह है, जिसमें हर एक को सम्मान के साथ सुरक्षित स्थान है। कौन नहीं जानता कि यहूदी जब दुनिया भर में सताए गए भारत में ही उन्हें आश्रय मिला। अत: हिन्दुत्व को मात्र एक सम्प्रदाय, एक पूजा पद्धति, एक जाति विशेष में बांध कर देखना या तो मानसिक रूप से दीवालिएपन का संकेत है या इरादतन षड्यंत्र।
अत: संघ के इस वैचारिक महायज्ञ की एक-एक समिधा से निकले प्रकाश को समझने का अनुभव में लेने का प्रयास देश को करना चाहिए। ऐसा निश्चित होगा भी। विश्व में आज हिन्दुत्व को लेकर स्वीकार्यता बढ़ी है, तो देश के अंदर भी एक बड़ा वर्ग ऐसा खड़ा हो रहा है, जो अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति सचेत है। संघ स्वयं कुछ भी नहीं करता, सिवाय व्यक्ति निर्माण के। पर संघ से प्रेरणा लेकर समाज के विविध क्षेत्रों में स्वयंसेवक दसों दिशाओं में गए हैं और उमड़ घुमड़ कर छा भी रहे हैं। यह संघ की ही दिव्य शक्ति का प्रमाण था कि कला, शिक्षा, फिल्म, उद्योग, व्यापार, खेल, राजनीति, प्रशासन, सेना सहित समाज के विविध क्षेत्रों में अपना प्रभाव रखने वाले विशष्टजन आयोजन में न केवल आएं अपितु अपने समयोचित प्रश्न रखकर अपनी सार्थक भागीदारी भी दर्ज की।
हां यह अवश्य यह है कि जो सोने का नाटक किए हुए हैं, वे इस आयोजन से न केवल दूर रहे, अपितु अपने विलाप से अपने खोखलेपन का परिचय देते रहे। पर देश यह समझ रहा था कि आतंकियों से बातचीत करने की पैरवी करने वाले पत्थरबाजों से सहानुभूति रखने वाले, विश्व विद्यालय परिसर में भारत तेरे टुकड़े होंगे के नारे लगाने वाले, देश में नक्सलवाद का जहर बोने वाले और देश में जाति, भाषा के नाम पर फसाद करने वाले और संघ के इस आयोजन से दूरी रखने वाले चेहरे एक ही कैसे हैं? विभाजन रेखा खीचीं जा चुकी है। कुरुक्षेत्र का मैदान आज पूरा देश है, आप किस तरफ है, यह आपको तय करना है।