भाजपा तब और अब : पहले मंत्री पद 'फुटबॉल', आज टिकिट ही 'सर्वोपरि'
आदरणीय ध्येनिष्ठ व्यक्तित्व स्व. श्री माधवशंकर इंदापुरकर की जयंती पर एक संस्मरण
- अतुल तारे
आज भारतीय जनता पार्टी के अत्यंत आदरणीय ध्येनिष्ठ व्यक्तित्व स्व. श्री माधवशंकर इंदापुरकर की जयंती है। चुनावों की घोषणा हो चुकी है। पार्टी के लिए, पार्टी के हित के लिए क्या श्रेयस्कर है। यह वह जीवन के आखिरी समय तक हमेशा सोचते रहे। आज अगर वह हमारे बीच होते तो टिकट वितरण को लेकर हो रहे अप्रिय प्रसंगों पर क्या विचार करते?
यह प्रश्न मन में कौंध ही रहा था कि भाजपा के वरिष्ठ नेता धीर सिंह तोमर से सहज भेंट हो गई। श्री तोमर भाजपा के ही नहीं, जनसंघ के काल से पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता हैं। पार्टी के लिए हर दम हमेशा सक्रिय। पार्टी ने उन्हें क्या दिया, इसका हिसाब वह रखते भी नहीं और हिसाब रखने लायक कुछ है भी नहीं। पर उन्हें इसका मलाल नहीं है। वह कहते हैं, हमने मंचों पर भले ही पार्टी को मां कम कहा हो पर दिल से माना है।
सहज बातचीत चल पड़ी। चूंकि आज स्व. इंदापुरकर की जयंती है तो उन्होंने एक भावुक संस्मरण सुनाया। बात 1977 की है। प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी। लश्कर से स्व. शीतला सहाय मंत्री बने। ग्वालियर से स्व. जगदीश गुप्ता। स्व. श्री गुप्ता चूंकि श्रम आंदोलनों में सक्रिय रहे थे। अत: मंत्री भी श्रम विभाग के बने। पर एक विधायक मंत्री बनकर भी खुश नहीं है। वह कहते हैं, यह अन्याय है। मेरे से अधिक योग्य मेरे बड़े भाई मधु भैया हैं। वह स्व. श्री शेजवलकर के पास जाते हैं, मधु भैया के पास जाते हैं। मैं मंत्री नहीं बनूंगा। इधर बड़े भैया यानि मधु भैया कोप भवन में नहीं है, न ही वे इस्तीफे की धमकी दे रहे हैं, वे खुशी से अपने छोटे भाई को मिठाई खिलाते हैं और कहते हैं तत्कालीन हालात में यही निर्णय उपयुक्त है और तब जगदीश गुप्त मंत्री बनना स्वीकार करते हैं। यह रामायण काल की घटना नहीं है। चार दशक पुरानी ही है। चार दशक में पार्टी देश की नहीं विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। कई राज्यों में सरकार है। केंद्र में है, फिर आने की तैयारी है, तब मंत्री पद ठुकराया जाता था, तब मंत्री बनने के लिए दबाव नहीं बनाया जाता था। आज टिकिट के लिए मारामारी है। तब कृष्ण कृपा से ही टिकिट तय हो जाते थे। अर्थात ग्वालियर के नेता ही टिकिट तय कर देते थे। प्रदेश व केंद्र को सूचना होती थी। आज केंद्रीय समिति को पसीने आ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि आज ऐसे व्यक्तित्व नहीं है, पर संचार साधन बढऩे के बावजूद संवाद टूटा है। दूरियां बढ़ी हैं। गणेश परिक्रमा नये अर्थों में हो भी रही है और पुरस्कृत भी। ग्वालियर से ही चलते हैं। श्री वेदप्रकाश शर्मा। उच्च शिक्षित, निष्ठावान, उत्कृष्ट वक्ता एवं जमीनी नेता। पार्टी ने जब जो जवाबदारी दी, जिले से लेकर प्रदेश तक निष्ठा से निभाई। पर आज टिकिट की दौड़ में कहीं नहीं हैं। पैनल से आगे बात बढ़ती ही नहीं है। दस साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहने के बावजूद पार्टी आज तक वेदप्रकाश शर्मा को यह सम्मान नहीं दे पाई, जिसके वह हकदार हैं। ग्वालियर में ही बांदिल परिवार को लें। स्व. गंगाराम बांदिल ने पार्टी को अपने पसीने से सींचा। आज उनके बेटे पार्टी में कहां है? विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है।
भिंड में आज पार्टी में कौन है और कल कहां होंगे, कहना मुश्किल है? अवसर देख दलबदल करने वाले मजे में हैं। पर अत्यंत निष्ठावान, समर्पित जिलाध्यक्ष रहे अवधेश सिंह कुशवाह का क्या पार्टी नेतृत्व उपयोग कर पाया? उन्हें इसकी शिकायत रही या नहीं। इसका उन्होंने कभी सार्वजनिक रुप से प्रगटीकरण नहीं किया। पर क्या पार्टी नेतृत्व ने उनकी पीड़ा सुनने के लिए समय निकाला।
चंबल से मालवा के प्रवेश द्वार गुना अशोकनगर चलें तो यहां डाक्टर जयकिशन गर्ग आज भी अपने चिकित्सालय में मिल जाएंगे। मोदी प्रधानमंत्री बनें यह वह हर मरीज से कह रहे हैं। पार्टी के हर छोटे बड़े आंदोलन में शरीक रहे। आज कहां है? अशोकनगर में अभिभाषक ओमप्रकाश चौधरी आज किस गिनती में हैं? संघर्ष के दिनों में पार्टी के लिए डंडे भी उन्होंने खाये। यह नाम सिर्फ प्रतीक है। ग्वालियर से लेकर गुना तक, भिंड से लेकर मुरैना तक और पूरे प्रदेश में खोजेंगे तो यह सूची और लंबी होगी। मेरा उद्देश्य अभी सिर्फ नाम गिनाना नहीं है। कारण सच यह है कि यह नाम इतने है कि हम चाह कर भी पूरे दे नहीं सकते। अस्तु ऐसे सभी अनाम रहे व्यक्तित्वों को नमन करके पूर्ण विराम लेना ही उचित है। यह ध्यान रखना होगा कि पार्टी का यही आधार है, यही विचार शक्ति है। पार्टी नेतृत्व को चाहिए कि वह ऐसे कार्यकर्ताओं की पहचान करे। वह देखें कि कौन है जो पार्टी को अपने कंधे पर लेकर आज भी चल रहे हैं और वे कौन हैं जो पार्टी के कंधे पर सवार होकर अपना कद बढ़ा रहे हैं। मिशन 2019 का सफल होना तय है, पर साथ में इसके लिए भी नेतृत्व समय निकालें तो बेहतर।