यह अच्छी बात है कि देश में विद्यालय खुलने शुरू हो गए हैं और भौतिक रूप से छात्रों की उपस्थिति बढ़ने लगी है। यदि अक्टूबर में कोरोना की तीसरी लहर का प्रकोप नहीं आता है तो सभी शालेय कक्षाएं सामान्य रूप में चलने लगेंगी। इससे अर्थव्यवस्था को भी गति मिलेगी और निजी विद्यालयों के बेरोजगारी का दंश झेल रहे शिक्षक भी रोजगार से लग जाएंगे। हालांकि देश में ऑनलाइन पढ़ाई का सिलसिला चल रहा था, लेकिन इसका लाभ आर्थिक रूप से संपन्न अभिभावकों के बच्चे ही उठा पा रहे थे। इस डिजिटल बंटवारे के परिणामस्वरूप ऑनलाइन शिक्षा असमानता का कारण तो बनी ही, जो छात्र ऑनलाइन शिक्षा ले रहे थे, उनमें सीखने की क्षमता भी घट गई। यह हकीकत यूनीसेफ और कुछ स्वयंसेवी संगठन सर्वेक्षण से सामने आई है।
1400 घरों में किए सर्वे से खुलासा हुआ है कि शहरी क्षेत्रों में नियमित ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले छात्र महज 24 फीसदी हैं। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या घटकर मात्र 8 फीसदी रह गई है। केवल तीन चौथाई शहरी छात्रों और 50 फीसदी ग्रामीण छात्रों के पास ही स्मार्ट मोबाइल फोन हैं। इंटरनेट कनेक्टविटी और रिचार्ज कराने के लिए पैसे का अभाव भी रहा। गोया, इस असमानता के चलते करोड़ों बच्चे शिक्षा में पिछड़ गए। इसकी भरपाई विद्यालय अतिरिक्त कक्षाएं लगाकर करें तो बेहतर होगा।
कोरोना महामारी के दौरान अधिकांश विद्यालयों में ऑनलाइन कक्षाएं चल रही हैं, परंतु इससे 80 प्रतिशत बच्चों में सीखने की क्षमता घट गई है। सबसे ज्यादा 4 से 18 साल के बच्चे व किशोर प्रभावित हुए हैं। बच्चों में नई चीजों को सीखने की जिज्ञासा और उत्साह भी कम हुआ है। जबकि यही उम्र सीखने और सीखे हुए को स्मृति में रखने की दृष्टि से सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है। देश के छह राज्यों में यूनीसेफ ने इन कक्षाओं पर सर्वे किया है। इस रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि पांच से 13 वर्ष आयु समूह के छात्रों के 73 फीसदी माता-पिता, 14 से 18 वर्ष के 80 फीसदी किशोरों के माता-पिता और 67 प्रतिशत शिक्षकों का कहना है कि बच्चे विद्यालय जाने की तुलना में कम सीख रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार 8 प्रतिशत शिक्षकों के पास स्मार्टफोन या लैपटॉप नहीं हैं और 33 प्रतिशत शिक्षकों का कहना है कि इन आभासी कक्षाओं से विद्यार्थियों को कोई फायदा नहीं है। इन कक्षाओं में 30 से 40 फीसदी शहरी छात्र शिक्षकों के संपर्क में ही नहीं आए। ग्रामीण क्षेत्रों में यह स्थिति और बदतर रही।
ऑनलाइन यानी, डिजिटल शिक्षा का हश्र सिर मुड़ाते ओले पड़ने की शक्ल में दिखाई देने लगा है। लॉकडाउन के बीच शुरू हुई ऑनलाइन पढ़ाई का चलन स्कूली बच्चों पर भारी पड़ रहा है। नतीजतन उन्हें कई-कई घंटे कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल उपकरणों पर आंखें गड़ानी पड़ती और दिमाग पर ज्यादा जोर डालना पड़ रहा है। इससे विद्यार्थी अनावश्यक रूप से एकांगी और चिंतित दिखाई देने लगे हैं। अपने बच्चों में अचानक आए इन लक्षणों की बड़ी संख्या में शिकायत अभिभावकों ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केंद्रीय विद्यालय संगठन से भी की हैं।
बिना विचार किए डिजिटल माध्यम से विवश किए बच्चों को इस मानसिक तनाव से उबारने के लिए अब मंत्रालय ने इस परिप्रेक्ष्य में मानक क्रियाशील प्रक्रिया (स्टेंडर्ड ऑपरेटिव प्रोसीजर) अपनाने का निर्णय लिया है। संक्षिप्त में एसओपी नाम से जाने, जाने वाले इस मंत्र का इस्तेमाल कंपनियों में विफलता को कम करते हुए दक्षता, गुणवत्ता, प्रदर्शन और उत्पादन में वृद्धि व एकरूपता लाने के लिए किया जाता है। अब पहली बात तो यह कि बच्चों का मस्तिष्क कोई कारखाने की भट्टी नहीं है कि आप संख्या में वस्तु का उत्पादन बढ़ाने का काम कर रहे हों ? जबकि विवेकानंद ने शिक्षा को जीवन के विकास का मंत्र बताते हुए कहा था कि मात्र सूचना प्राप्त करना, पुस्तकों से सीखना या इच्छाओं पर बलपूर्वक रोक लगाकर यांत्रिक बना देना शिक्षा नहीं है। शिक्षा वह है, जो मनुष्य को साहसी और चरित्रवान बनाती है।
देश में शिक्षा और शिक्षण पद्धति को लेकर एक विचित्र विरोधाभास और दुविधा की स्थिति बनी हुई है। एक आदर्श और गुणकारी शिक्षा व्यवस्था में कौन से तत्व शामिल होने चाहिए इस संदर्भ में पिछले 74 साल में भी कोई एक निश्चित धारणा नहीं बन पाई है। फलतः इस अनिश्चितता का दंड हर नई पीढ़ी भोगती है। ऑनलाइन शिक्षा वर्तमान पीढ़ी को दंड के रूप में मानसिक प्रताड़ना झेलने का सबब बन रही है।
मानव संसाधन मंत्रालय को अभिभावकों को जो थोक में शिकायतें मिली हैं, उनमें कहा है कि 'बच्चों को विद्यालयों की ओर से घंटों ऑनलाइल पढ़ाया जा रहा है। होमवर्क भी उसी अनुपात में दिया जा रहा है। परिणामस्वरूप बच्चे दिन-दिन भर कंप्युटर, लैपटॉप और मोबाइल से चिपके रहते हैं। इस अनावश्यक व्यस्तता के चलते उनका व्यवहार बदल रहा है। सीखने की क्षमता घट गई है और उनमें चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है। वे हठी और गुस्सैल भी हो रहे हैं। मानसिक बोझिलता से जुड़ा यह एकांगीपन निकट भविष्य में उनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक हो सकता है। वे मानसिक अवसाद में आकर उल्टा-सीधा या कोई भयानक कदम उठा सकते हैं। कई बच्चे अश्लील कहानी पढ़ते, सुनते या देखते भी अभिभावकों ने पकड़े हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब दिल्ली में 27 किशोर-किशोरी मित्र छात्र-छात्राएं इंस्टाग्राम पर समूह बनाकर पोर्न फिल्में देखते हुए अपनी सहपाठी छात्राओं से दुष्कर्म की षड्यंत्रकारी योजना बनाते हुए पकड़े गए थे। शायद ऐसे ही मामलों की निगाह में उच्च न्यायालय, दिल्ली के न्यायाधीश डीएन पटेल और हरिशंकर ने कहा है कि ऑनलाइन शिक्षा कोई बच्चों का खेल नहीं है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट ने भी कमोबेश यही जताया गया है।
दरअसल शैक्षणिक उपकरण कंप्युटर, लैपटॉप और मोबाइल निर्माता व इंटरनेट प्रदाता कंपनियां कोरोना विपत्ति काल को व्यापारिक लाभ की दृष्टि से देख रही हैं। इसलिए प्रसार-प्रचार माध्यमों के जरिए ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि शालेय और उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन में कोरोना के चलते जो खलल पड़ा है, उसकी भरपाई तकनीकी माध्यमों से आसानी से की जा सकती है ? इस लिहाज से यह नारा भी गढ़ लिया कि 'धीरे-धीरे चलो स्कूल से, पढ़ो ऑनलाइन से।' हालांकि कंपनियों ने इस दिशा में पहल बहुत पहले से ही कर दी है। नतीजतन कई ऑनलाइन प्रारूपों में ई-लर्निंग सामग्री बाजार में उपलब्ध है। वह भारत ही है, जिसमें सबसे विशाल 'के-12 शिक्षा पद्धति एक दशक के पहले विकसित कर ली है।' इसे किंगर गार्डन और 12 वर्षीय बेसिक शिक्षा के नाम से जाना जाता है। यह सामग्री सीडी, एप और सीबीएसई पाठयक्रम की बेवसाइटों पर उपलब्ध है। लेकिन अभी इसका प्रयोग सीमित है। लेकिन इसका कोई खास लाभ नहीं हुआ है। दरअसल ऑफलाइन शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी की बुद्धि की परख का परीक्षा का जो तरीका इसमें है, वही इस के-12 शिक्षा प्रणाली में है। महज पुस्तकों के पाठ्यक्रमों को डिजिटल प्रारूप में बदल दिया है। इसलिए यह प्रणाली भी विद्यार्थी के मनोविज्ञान व मन:स्थिति को समझने में सक्षम नहीं है। दरअसल, प्रत्येक विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता और रुचियां भिन्न-भिन्न होती हैं, इसलिए पढ़ाई का एक पाठ्यक्रम और एक जैसा तरीका हरेक छात्र पर कारगर साबित नहीं होता।
दरअसल भारत में ही नहीं दुनिया में छात्र को पूर्व से सुनिश्चित कर दिए गए अध्ययन-अध्यापन तक ही सीमित रखा जाता है। आज का शिक्षक हो या फिर प्राध्यापक वह भी विविधतापूर्ण अध्ययनशीलता से दूर है। इसलिए शिक्षक और छात्र निर्धारित शिक्षा से आगे की बात सोच ही नहीं पाते। कमोबेश यही मानसिकता अभिभावकों की है। वे भी अपनी संतान को चिकित्सा, अभियंता, सरकारी अधिकारी, कर्मचारी या फिर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी पा लेने का लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं। जबकि देश के लिए किसान, सैनिक, लेखक-पत्रकार और आदर्श मूल्यों के प्रवचनकर्ता भी सामाजिक ताने-बाने के लिए आवश्यक होते हैं। करीब सात दशक बीतने के बाद यह वास्तविकता एक बार फिर से मुखर होकर स्थापित हुई है कि कोरोना संकट काल में अर्थव्यवस्था को आधार केवल खेती-किसानी के बूते मिला हुआ है। जबकि बीते 70 सालों में सबसे ज्यादा तिरस्कार व अवमूल्यन इसी व्यवसाय का हुआ है। आज अपने बालक को अन्नदाता बनाने की बात शिक्षक और अभिभावक में से कोई नहीं करता।
शिक्षा के क्षेत्र में ऑनलाइन द्वार खोलने की बड़ी तैयारी है। लेकिन न तो इसकी विषमताओं को समझने की कोशिश हो रही है और न ही यह कोशिश हो रही है कि इस माध्यम से स्थापित कर दी गईं संकीर्ण शिक्षा की दीवारें टूटना संभव है ? गुरु से दूर एक कोने में मोबाइन स्क्रीन के सामने बैठे शिष्य के मन-मस्तिष्क में क्या है ? यह जब ठीक से आज का शिक्षक नहीं समझ पा रहा तो तकनीक कैसे समझेगी ? क्योंकि तकनीकी शिक्षा में न तो मौलिकता है और न ही पहले से ही लोड कर दिए पाठों से इतर या आगे जाने की क्षमता ? गोया, कृत्रिम तरीके से दी गई शिक्षा, नैसर्गिक या जिज्ञासु प्रतिभा का स्थान ले पाएगी ? या फिर नैसर्गिक शिक्षा को कुंठित करने का काम करेगी ? दरअसल किसी उपकरण में भर दिए गए ज्ञान की एक सीमा होती है और वह तय कर दिए गए प्रोग्रामिंग के अनुसार चलती है। उसमें कोई लचीलापन नहीं होता। जबकि विद्यार्थी की बुद्धि के विकास का क्रम कोई एक सीधी रेखा में नहीं चलता। ज्ञान नदी की धारा की तरह प्रवाहमान है। उसमें नए-नए रूप लेते हुए, जीवन-मूल्यों को देखते हुए, वैचारिक बदलाव आता है। नई सोच विकसित होती है। यह बदलाव प्रतिभा के नैसर्गिक विकास का मूल आधार है, क्योंकि किसी उपकरण में सोच या विचार पनपाने की उर्वरा शक्ति नहीं होती है।
उपरोक्त कथन के सत्यापन के लिए दुनिया के अत्यंत सफल और आविष्कारक व्यक्ति बिल गेट्स की जीवनी पर दृष्टि डालते हैं। हम सब जानते हैं कि आज बिल गेट्स दुनिया के अमीर लोगों में से एक हैं। बिल गेट्स ने उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज में प्रवेश तो लिया था, लेकिन शिक्षा पूरी नहीं कर पाए थे। वे कॉलेज से आकर अपने घर के गैरेज में घुस जाते थे और कोरे कागजों पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचकर किसी दार्शनिक के लहजे में धीर-गंभीर वैचारिक तल्लीनता में खो जाते थे। उनकी परेशान मां कभी स्कूल के कपड़े बदलने को आवाज लगातीं, तो कभी भोजन के लिए पुकारतीं। लेकिन धुनि बिल अपनी ही धुन में रमा रहता। अंत में गैरेज की दहलीज पर आकर डपटते हुए पूछतीं, 'आखिर तू कर क्या रहा है ?' बिल कहता, सोच रहा हूं मां।' वात्सल्मयी मां सहम गईं। अनुभव किया, बेटा अवसाद में आ रहा है, कहीं पगला न जाए ? सो, मनोचिकित्सक को दिखाया। लेकिन अस्वस्थ होता, तब न कोई बीमारी निकलती ?
बहरहाल, मां हार गई और बेटा आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने में लगा रहा। इस गैरेज में कंप्यूटर नहीं था, लेकिन जिज्ञासा थी, सोच थी। आखिरकार बिल की सोच ने आकार लिया और कंप्यूटर की बुद्धि अर्थात सॉफ्टवेयर का आविष्कार कर डाला। मतलब वास्तविक बुद्धि ने कृत्रिम बुद्धि की सजीव रचना कर दी। लेकिन हम हैं कि ऑनलाइन शिक्षा के बहाने नैसर्गिक बुद्धि पर अंकुश लगाने के उपाय तलाश रहे हैं ? डिजिटल शिक्षा से जुड़ा यह एक बड़ा प्रश्न है, जो विचारनीय है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)