पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की कड़ी में मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव एक असाधारण चुनाव हैं। बेशक चुनाव प्रदेश के हैं। बेशक मतदाता स्थानीय जन प्रतिनिधि कौन होगा, इसके लिए अपने मत का प्रयोग करेंगे। यह भी सही है जनादेश प्रदेश में सरकार किसकी होगी, इसके लिए आएगा। पर यह परिवर्तन समग्र परिवर्तन का एक अंश है। मतदाताओं के लिए यह चुनाव असाधारण चुनाव हैं। घड़ी एक कठिन परीक्षा की है। एक भी चूक, जरा सी उदासीनता या क्षणिक दिशाहीन निर्णय की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। अत: यह चुनाव राजनीतिक दलों के लिए तो परीक्षा है ही, मतदाता की स्वयं की भी परीक्षा है कि वह देश के निर्णायक काल में अपनी भूमिका किस प्रकार निभाएगा।
अवसर विलक्षण है। बेशक एक चुनाव के नतीजे देश का भाग्य तय कर देते हैं, ऐसा नहीं है, पर हां दिशा तो तय करते ही हैं। अत: पांच राज्यों के चुनाव के क्रम में मध्यप्रदेश की 230 विधानसभा सीटों का चुनाव एक बड़ा प्रश्न है। प्रश्न कठिन है, उत्तर सोच समझकर ही देना है। कहीं कोई लहर नहीं है। भावनाओं का ज्वार नहीं है। न तो सत्ता के पक्ष में जबरदस्त बयार का अनुभव है न ही सत्ता के खिलाफ कोई बड़ा आक्रोश है। विकल्प के तौर पर दिखाई दे रहा विपक्ष मन को और उदास कर रहा है। वह अपना हिसाब अपना एजेंडा नहीं बता रहा, वह गुस्से में है सिर्फ यह कह रहा है। गुस्सा भी पहले सामूहिक करेंगे ऐसा तय था, पर अब वह स्वर भी बटे हैं, बिखरे हैं।
जाहिर है, मतदाता विकल्प के प्रश्न पर स्वयं को बेहद ठगा हुआ पा रहा है। वह बीते 15 सालों का भी कड़ाई से मूल्यांकन कर रहा है। करता है तो पाता है कि स्वर्णिम और समृद्ध ठीक वैसा नहीं है, जैसा बहुरंगी विज्ञापनों में है पर वह यह भी समझ रहा है कि 15 साल में इतना तो हुआ है कि बताया जा सके। क्योंकि अब बिजली के तारों में करंट है। सड़कें अमेरिका जैसी बेशक न हों पर शानदार हैं। सिंचाई की सुविधा दूरस्थ गांवों तक पहुंची है। सम्बल का एक कम्बल भी है। सरकार अपनी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी योजनाओं से संवेदनशील दिखाई भी दी है। यह सच है वल्लभ भवन से निकली योजना गांव की चौपाल तक पहुंचते पहुंचते कई बार ठीक वैसी भी हुई है, जैसे गंगोत्री में गंगा और गंगा सागर में गंगा पर गंगा, पर चौपाल तक आई अवश्य है, जो वह आज से 15 साल पहले देखने को ही तरस गई थी। मतदाता यह भी विचार कर रहा है कि वह बेशक चुनाव प्रदेश की सरकार का रहा है पर उसका आज का निर्णय देश के निर्णय को भी प्रभावित करने वाला है। वह जानता है कि 2014 के आम चुनाव में उसने एक इतिहास रचा था। बेशक इस इतिहास को गढऩे में कुल 39 फीसदी मतदाताओं का ही साहस था पर शेष 61 फीसदी सत्ता में आने के लिए साम दाम दण्ड भेद अपनाने को तैयार हैं। मतदाता यह विचार भी कर रहा है कि उसका क्षणिक आक्रोश उसकी स्थानीय या प्रादेशिक प्राथमिकताएं देश की प्राथमिकताओं को प्रभावित न कर पाएं। अत: यह चुनाव वाकई एक कठिन चुनाव है। राजनीतिक दल भी ठंड में पसीना-पसीना हैं, पर कहीं भी संकेत की कोई ठंडी हवा नहीं है। यह चुप्पी एक अंडर करंट है। यह करंट इतना जबरदस्त है कि चुनाव की आहट से ठीक पहले जातिवाद का जहर प्रायोजित तरीके से फैल रहा था, आज सौभाग्य से नहीं है। वह दल जो इस विषाक्त हुए वातावरण में अपने लिए संजीवनी ढंूढ रहे थे, बिलों में हैं। यह एक शुभ संकेत है। नोटा की टोंटी से निकली धार भी अब कुंद ही नहीं है, बंद है। मतदाता समझ रहा है, न चुनने का जो नारा बुलंद किया जा रहा था, वह भी एक षड्यंत्र ही था। ताकि वह शीर्ष पर आ जाए, जिसे वह स्वयं नहीं चाह रहा था और यूं भी निर्णायक युद्ध में तटस्थ रहने की कीमत देश ने कब कब कैसी चुकाई है, यह इतिहास वह पढ़ रहा है।
जाहिर है मतदाता के लिए यह चुनाव एक बेहद कठिन परीक्षा की घड़ी है। लहर हो, आंधी हो, भावनाओं का ज्वार हो तब निर्णय स्वत: ही परिस्थितियां करा देती हैं। विवेक को अवसर नहीं मिलता । पर आज अवसर विवेक के लिए ही है। यह विवेक ही कहीं न कहीं 'अंडर करंटÓ का एहसास करा रहा है। नि:संदेह देश का मतदाता हर बार ऐसे अवसरों पर और परिपक्वता से अपना निर्णय देता आया है और इस बार भी देगा।
अत: प्रदेश के मतदाताओं से विनम्र आग्रह है कि वह लोकतंत्र के इस अनूठे यज्ञ में अपने वोट की आहुति देने अवश्य निकले। वोट देना और श्रेष्ठ को चुनना यह आपका अधिकार भी है और कर्तव्य भी।
अत: परिणाम क्या होंगे यह 11 दिसम्बर को ही पता चलेगा। पर अब जब वह मतदान करने की तैयारी में ही है तो बटन दबाने से ठीक पहले यह सब तथ्य उसके जेहन में हैं ही कि वह अपने एक निर्णय से प्रदेश और देश के भाग्य को दिशा देने जा रहा है।