हिन्दी के प्रति सोच का दायरा बढ़ाएं दक्षिणी राज्य

Update: 2019-09-22 09:39 GMT

देश में जब भी हिन्दी के समर्थन में स्वर मुखरित होते हैं, तब भारत के दक्षिणी राज्यों से विरोध के स्वर सुनाई देने लगते हैं। हिन्दी भाषा के प्रति इस प्रकार के संकुचन का भाव देशप्रेम का परिचायक नहीं कहा जा सकता। इसके अंतर्गत अलगाव की भावना पैदा करने वाला भाव ही निहित रहता है। जहां तक राष्ट्रीय भाव के संचरण की बात है तो यह स्वाभाविक ही है कि हमारे देश की वैश्विक पहचान के रुप में हिन्दी है। यह सार्वजनिक सत्य है, लेकिन जब हम संकुचित भाव के साथ हित-अनहित देखते हैं, तब कहीं न कहीं हम राष्ट्रीय भाव को विलोपित करने की ओर ही अग्रसर होते हैं।

यह भारत की वास्तविकता है कि अगर देश की एक संपर्क भाषा के रुप में किसी भाषा की चर्चा होती है तो उसमें हिन्दी का स्थान सबसे ऊपर रहता है। इसका मूल कारण यही है कि हिन्दी देश के ज्यादातर राज्यों में बोली और समझी जाती है। दूसरी कोई भाषा नहीं है, जो भारत में इतने बड़े स्तर पर स्वीकार की जाती हो। प्राय: देखा जाता है कि दक्षिण के कुछ राज्यों में हिन्दीभाषी नागरिक के साथ असामान्य व्यवहार किया जाता है, जबकि उत्तर भारत के राज्यों में दक्षिण के राज्यों के नागरिकों के साथ ऐसा नहीं होता।

इस पर बहस इसलिए शुरू हो गई कि हिन्दी दिवस के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि 'देश में एक संपर्क भाषा का होना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिए वह हिन्दी को ही सर्वथा उपयुक्त भाषा मानते हैं।' नतीजा यह रहा कि दक्षिण के राज्य इसके विरोध में लामबंद हो गए। उन्हें लगा कि केंद्र सरकार उन पर हिन्दी थोपने जा रही है। यह सही है कि जब हम एक देश के रुप में पहचान स्थापित करने की बात करते हैं तो स्वाभाविक रुप से यह भी स्वीकार करना होगा कि देश में एक संपर्क भाषा होनी ही चाहिए। विचित्र बात यह है कि देश में हिन्दी की स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसे पंजाबी, गुजराती और मराठी भाषा की है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कई संस्थाओं ने अभियान भी चलाए, लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला।

हिन्दी भारत माता के भाल को सुशोभित करने वाली बिन्दी है, तो क्षेत्रीय भाषाएं उसका अनुपम अलंकार हैं। इसलिए किसी भी भाषा को तिरस्कृत करना भारत के स्वरुप को बिगाड़ने जैसा ही प्रयास कहा जाएगा। आज हिन्दी का विरोध करने वाली संस्थाएं और राजनेता वास्तव में भारत के स्वरुप को बिगाड़ने जैसा कृत्य कर रहे हैं। दक्षिण के राज्य हिन्दी के नाम पर भड़क जाते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए हो सकता है कि इसके सहारे राज्य की राजनीति की जाती रही है। लेकिन इसके दुष्परिणाम क्या होंगे, इस पर किसी का भी ध्यान नहीं जाता। हम एक देश होने के बाद भी भाषा के रुप में अलग पहचान बनाने का प्रयास क्यों करते हैं। यह बड़ा सवाल है जो भारत की एकता के भाव में अलगाव पैदा करने का काम कर रहा है।

कुछ दिनों पहले नई शिक्षा नीति में तीन भाषा सूत्र की कल्पना प्रस्तुत की गई थी। उसमें दक्षिण के राज्यों की अधिकारिक भाषा को प्रथम, हिन्दी को द्वितीय और अंग्रेजी को तृतीय भाषा के रुप में स्वीकार किए जाने की बात थी। लेकिन तमिलनाडु की ओर से ऐसा प्रतिकार किया गया, जैसे केन्द्र सरकार हिन्दी को थोपना चाहती है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी विरोधी रवैया अपनाया। यहां तक कि भाजपा शासित राज्य कर्नाटक के मुख्यमंत्री को भी हिन्दी को नकारने वाले अंदाज में सफाई देनी पड़ी। जबकि, यह स्पष्ट था कि किसी भी राज्य में उसकी भाषा ही प्रथम होगी। केन्द्र की ओर से राज्य की भाषा को हिन्दी से ज्यादा सम्मान दिया, फिर भी विरोध किया गया। यह न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। पहले पूरे प्रारुप का अध्ययन किया जाता तो शायद असली भाव समझ में आ सकता था।

इस सबको देखकर यही कहा जा सकता है कि दक्षिणी राज्यों में हिन्दी का विरोध राजनीतिक ज्यादा है। जनता की ओर से इस प्रकार का विरोध उतना दिखाई नहीं देता, जितना राजनीतिक दलों द्वारा प्रचारित किया जाता है। एक विशाल देश में अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं की मौजूदगी में एक संपर्क भाषा ही संचार की समस्या का हल निकालती है। अगर हिन्दी को देश की संपर्क भाषा के रुप में स्थापित किया जाता है तो इससे उत्तर भारत के राज्यों को भले ही लाभ नहीं मिले, परन्तु दक्षिण के राज्यों को जरूर लाभ मिल जाएगा। इसको एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। लगभग बीस साल पहले की बात है। एक मलयालम भाषी मध्यप्रदेश के रीवा में एक दुकान पर सामान लेने आया था। वह अपनी भाषा में वस्तु मांग रहा था। लेकिन दुकानदार उसकी भाषा को नहीं समझ पाया और उसे उसकी इच्छित वस्तु नहीं मिली। लगभग एक घंटे बाद उसे वह वस्तु इसलिए मिल सकी, क्योंकि उसने हिन्दी बोलने का प्रयास किया। इससे यह समझा जा सकता है कि हिन्दी को देश की संपर्क भाषा बनाया जाना चाहिए। 

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