महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की तैयारियों के बीच कांग्रेस में कलह से भूचाल मचा हुआ है। यह इस बात को इंगित कर रहा है कि कांग्रेस में दलीय निष्ठाएं पूरी तरह से हाशिये पर होती जा रही हैं। हैरत है कि लोकसभा के दो चुनावों में करारी पराजय झेलने के बावजूद कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व इस पर मंथन करने को तैयार नहीं है कि शर्मनाक पराजय के कारण क्या थे? कांग्रेस के जो नेता शिखर की राजनीति कर रहे हैं, उनके अपने-अपने समूह (गुट) बने हुए हैं। विचारणीय यह कि नेता इन समूहों से बाहर निकलने का प्रयास भी नहीं करते। वे अपने-अपने गुटों को बढ़ावा देने की फिराक में लगे रहते हैं। भले ही इससे पार्टी का बंटाधार क्यों न हो जाए। सच कहा जाए तो कांग्रेस के अंदर ही कई कांग्रेस चल रही है। यही कारण है कि कांग्रेस के नेता जनता से दूर होते जा रहे हैं। यही कांग्रेस की दुर्गति का बड़ा कारण माना जा रहा है।
हरियाणा के चुनावी मैदान में भाजपा और कांग्रेस में सीधी लड़ाई मानी जा रही है। महाराष्ट्र में भी दोनों राजनीतिक दल अपने-अपने सहयोगी दलों के साथ चुनाव जीतने की जुगत कर रहे हैं। इन दोनों राज्यों में चुनाव से पहले की जो तस्वीर उभर रही है, उससे यही लगता है कि कांग्रेस में दलीय निष्ठाओं का अभाव होने लगा है। उसके नेता अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पार्टी को नुकसान पहुंचाने की दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं। बड़े नेताओं को केवल अपने राजनीतिक अस्तित्व की ही चिंता है। इसी अहंकार के कारण कई स्थानों पर कांग्रेस नेताओं ने बगावत कर दी है। महाराष्ट्र को ही देखिये, वहां संजय निरुपम ने सोनिया के नेतृत्व को खुली चुनौती दे रखी है। उधर, हरियाणा में पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर ने तो पार्टी में राहुल गांधी समर्थकों को समाप्त करने का आरोप लगाते हुए पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा भी दे दिया है। चुनाव से पूर्व की यह स्थिति निश्चित ही कांग्रेस के लिए दुखदायी है। इसलिए यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि कांग्रेस को कांग्रेस ही पराजित करती है।
कांग्रेस की स्थिति का आंकलन किया जाए तो यह सहज ही प्रदर्शित हो जाता है कि वहां दलीय निष्ठाएं चकनाचूर होती जा रही हैं। राजनेता अपने आपको पार्टी से बड़ा समझने लगे और वैसा ही व्यवहार करने लगे। सबने देखा कि हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा चुनाव से पूर्व खुलकर कांग्रेस आलाकमान के विरोध में आ चुके थे। अंततः पार्टी को न चाहते हुए भी उनको मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना पड़ा। यहीं से हरियाणा कांग्रेस में बगावत की चिनगारी भड़की। इससे यह भी प्रकट होता है कि जब इतना बड़ा नेता अपने आपको पार्टी से बड़ा समझने लगे, तब स्वाभाविक रुप से यही सवाल उठता है कि कांग्रेस में केवल नेता ही बचे हैं, कार्यकर्ता तो है ही नहीं। किसी पार्टी को चलाने के लिए कार्यकर्ताओं का होना जरूरी है। कार्यकर्ता जमीन से जुड़े होते हैं। लेकिन कांग्रेस भी अब पुरानी वाली नहीं रही। यह इसलिए भी लग रहा है कि आज कांग्रेस में केवल एक परिवार को ही आलाकमान माना जा रहा है। कांग्रेस एक परिवार से दूर नहीं हो पा रही है। हालांकि लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद राहुल गांधी ने जब अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा दिया, तब यही कहा गया था कि गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष बनाया जाए। लेकिन लम्बी कवायद के बाद भी परिणाम कुछ नहीं निकला। पार्टी ने अध्यक्ष के रुप में सोनिया गांधी को स्वीकार कर लिया। इस बात ने कांग्रेस के प्रति पैदा हुए अविश्वसनीयता के वातावरण में और वृद्धि ही की है। दूसरी बात यह सामने आ रही है कि ऊपरी स्तर पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सोच में भी जमीन-आसमान का अंतर दिखाई दे रहा है। कांग्रेस में सोनिया गांधी का समर्थन करने वाली टीम अलग है तो राहुल गांधी की टीम अलग है। यही कारण है कि जो किसी भी टीम में नहीं हैं, वे सभी नेता अपने आपको खुद ही पार्टी समझने लगे हैं।
अगर अशोक तंवर और संजय निरुपम के आरोपों में दम है तो यह मान लेना चाहिए कि हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी की बिलकुल भी नहीं चली है। इसलिए अभी तक जिन नेताओं के सिर पर राहुल गांधी का वरदहस्त था, उन सभी को किनारे किया जा रहा है।
वर्तमान में जिस प्रकार से इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के स्थापित नेताओं द्वारा व्यवहार किया जा रहा है, उसे कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी माना जा रहा है। खतरे की घंटी इसलिए भी है, क्योंकि यह सभी राजनेता अपने-अपने राज्यों में प्रभावी ताकत रखते हैं। जो कांग्रेस के सपने को तोड़ने का दम रखते हैं। ये कांग्रेस को जिता सकने वाली भूमिका में भले ही न हों, लेकिन इतना अवश्य है कि वह कांग्रेस को पराजित जरूर करवा सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी ही पार्टी को हराने का प्रयास करता है, उसकी दलीय निष्ठाएं क्या होंगी, समझा जा सकता है। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के बड़े नेताओं के विरोधात्मक रवैये के कारण निश्चित ही कांग्रेस इसकी भरपाई नहीं कर पाएगी। इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस अपने पैरों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मारने का काम कर रही है।