ऐसे उदार हिंदुत्व को सांप्रदायिक बता कर मूल सांप्रदायिक विचारों को सेक्युलर नाम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास हमारे देश में पिछले कई दशकों से खुले आम चल रहा है। कुछ समय पूर्व एक परिचित कार्यकर्ता की सुविज्ञ, युवा बहन से मुलाकात में हमारी भारत के विषय पर गहराई से चर्चा हुई। लेखक के नाते काम करने की उसकी इच्छा के चलते मैंने उसे हमारी चर्चा पर अपने विचार लिखने को कहा। उसने जो लिखा वह इस सेक्युलरवाद के दुष्परिणाम पर सीधा प्रकाश डालता है। वह शब्दश: निम्नानुसार है।
मैं भारतीय हूं, कुछ दिनों पहले तक मेरे लिए इसका अर्थ केवल इतना ही था कि मैं भारत से हूं। मुझे लगता था कि यह एक भौतिक, भौगोलिक और शायद सांस्कृतिक वास्तविकता भर है। मैं हिंदू भी हूं। किन्तु मुझे ऐसा लगता था कि मेरी आस्था - जो मेरे लिए नितांत व्यक्तिगत है, इसका मेरी राष्ट्रीय पहचान से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ रोज पहले तक मैंने कभी भी अपनी आस्था और अपनी राष्ट्रीय पहचान को मिलाने-एक करने के बारे में नहीं सोचा। मैं मानती थी कि ये दोनों एक नहीं हैं। वास्तव में, थोड़ा समय पहले तक मेरा साफ तौर पर यह मानना था कि इन दोनों को मिलाना नहीं चाहिए।
हम जैसे, शहरी, आधुनिक, प्रगतिशील भारतीयों को अपनी धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान को गड्डमड्ड न करने की घुट्टी पिलाई जाती है। यही सिखाया जाता है कि देशभक्त होना अच्छा है मगर कार्यस्थल या सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपनी हिन्दू पहचान को किनारे रखा जाए क्योंकि इससे किसी अन्य भारतीय मत-पंथ को ठेस लग सकती है। माना जाता है कि हिंदू होना और भारतीय होना दो अलग बातें हैं, और उन्हें अलग-अलग ही रखा जाना चाहिए। इन दोनों को मिलाने वाले को अन्य मत-पन्थ के लोगों को हाशिए पर रखने वाले, साम्प्रदायिक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। भारत हर मत-पंथ का, बराबर है, यह हमें पढ़ाया जाता है। भारत विविध संस्कृतियों का देश है, हमें यह सिखाया जाता है।
कुछ दिनों पहले, इस विषय पर मेरी चर्चा संघ के पदाधिकारी डॉ. वैद्य से हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा संगठन है जो भारत को हिंदू राष्ट्र मानता है, जो दृढ़ता से हिंदुत्व के विचार के प्रसार में विश्वास करता है। एक ऐसा संगठन जो भारत में सभी को भगवा दृष्टिकोण से देखता है। ऐसा है, या फिर कम से कम मुझे इस बातचीत के कुछ दिन पहले तक ऐसा ही लगता था।
सच्चे सेक्युलरवाद के लिए उपासना पंथों का विरोध (being anti-national or non-religious & irreligious) आवश्यक नहीं है। सही मायने में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति सेक्युलर हो ही नहीं सकता। यदि कोई ऐसा दावा कर रहा है तो वह या तो झूठ बोल रहा है या दम्भ कर रहा है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कोई न कोई आध्यात्मिक अवधारणा माने रिलिजन होना स्वाभाविक ही है। वह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, जैन, बौद्ध, सिख, वैष्णव, शैव, देवी-उपासक, प्रकृति-पूजक या निरीश्वरवादी (athiest) कुछ भी हो सकता है। अपनी-अपनी समझ और मान्यताओं के अनुसार जीवन जीने का उसे अधिकार और स्वातंत्र्य है। इससे सेक्युलरवाद को बाधा नहीं पहुँचती। सेक्युलरवाद की अपेक्षा है कि सभी रिलिजन के लोगों को समान दृष्टि से देखें। पर आप यदि सभी उपासना मार्गों को केवल समान दृष्टि से देखना ही नहीं, उन सभी को स्वीकार भी करते हो (acceptance) तो आप हिन्दू ही हो। आचार्य विनोबा भावे ने हिन्दू होने की बहुत सरल व्याख्या की है। वे कहते हैं- इस मार्ग से ही मुक्ति - यह अहिन्दू विचार है, और इस मार्ग से भी मुक्ति- यह हिन्दू विचार है। (salvation through this way only-non hindu ; salvation through this way also- hindu)).
मेरा मानना है कि न व्यक्ति का सेक्युलर होना संभव है और न ही उसकी आवश्यकता है। राज्य का 'सेक्युलर' होना अपेक्षित है। जैसे किसी राज्य की परिवहन व्यवस्था सेक्युलर होनी चाहिए, इसके लिए उस परिवहन व्यवस्था के अध्यक्ष का सेक्युलर होना आवश्यक नहीं है। उसका सभी उपभोक्ताओं के साथ समान व्यवहार अपेक्षित है। किन्तु सबको समान व्यवस्था तब ही उपलब्ध होगी जब उसका बस-चालक या कंडक्टर सेक्युलर होगा ऐसा तर्क अतार्किक है। भारत में अधिकांश वाहन-चालक अक्सर सुबह अपना कार्य अपने इष्ट देवता को स्मरण कर और अपने वाहन को प्रणाम कर आरम्भ करते हैं। इसमें सेकुलरवाद को बाधा कहाँ आती है? परिवहन व्यवस्था सेक्युलर होना याने उस व्यवस्था का उपयोग सभी लोग समान रूप से कर सकेंगे, उसमें भेद-भाव नहीं होगा। कंडक्टर सभी से समान किराया लेगा। रिलिजन के आधार पर किराये में, बैठने के स्थान, इत्यादि में कोई भेद-भाव नहीं होगा। महिला, वृद्ध या अपंगत्व होने के आधार पर कुछ यात्रियों को विशेष सुविधाएँ मुहैया कराना समझ सकते हैं, परन्तु, सेक्युलर तंत्र या व्यवस्था में विशेष सुविधा या सहूलियत का आधार आपका मजहब तो नहीं हो सकता। राजकीय व्यवस्था के अंतर्गत सभी को समान सहूलियत देना सेक्युलर होना है, भले वह व्यवस्था सरकारी हो या निम-सरकारी।
हमारी चर्चा पर अपने विचारों का लेख उस युवती ने यूँ पूर्ण किया-कुछ दिनों पहले, इस विषय पर मेरी चर्चा संघ के पदाधिकारी डॉ. मनमोहन वैद्य से हुई। बातचीत के दौरान ही मुझे अनुभव हुआ कि इस विषय में मेरा ज्ञान, सच्चाई से कितना दूर था। पहली बार, मैंने सुना और समझा कि वास्तव में हिंदू होने का क्या अर्थ है और किस तरह यह इंडियन या भारतीय होने से जरा भी दूर नहीं है। वास्तव में, यह एक ही चीज हैं। हिंदुत्व (हिंदुइज्म इस शब्द का सटीक नहीं बल्कि कामचलाऊ अनुवाद है), एक जीवन शैली है। जब रिलिजन की अवधारणा भी नहीं थी तब भी दुनिया के इस हिस्से में जीवन था। लोगों के जीने के इस तरीके में निरंतर विस्तार होता रहा। इस देश को मजहब ने बहुत बाद में दो टुकड़ों में बांटा। चाहे पंथ-मजहब का जो भी हल्ला-गुल्ला आज दिखता हो आगे चलकर भी भारत में जीवन जीने का तरीका यही रहेगा।
इंडिया या कहिये भारत, इस जीवनशैली का केंद्र है। इस राष्ट्र की आत्मा इसकी धडक़न, इसका फलना-फूलना, इसी विविधता का उत्सव है। हिंदू होने का अर्थ इस विविधता का उत्सव और बाहरी भेदों के बावजूद अंतर्निहित एक तत्व की समझ है। भारत का विस्तार नक्शे पर खिंची चंद लकीरों से कहीं आगे है। यह समावेश और मानवता की एक अवधारणा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी होते हुए और एक के बाद दूसरा आक्रमण झेलते हुए भी आगे बढ़ी है। इसी तरह, हिंदू होने का अर्थ आप जिस भगवान की पूजा करते हैं, उससे आगे का है। यह उन विभिन्न मार्गों का महोत्सव है जो एक ही ईश्वर की ओर ले जाते हैं। इस हिंदुत्व में इस देश का समस्त सार निहित है। मैं एक हिंदू हूं, जो मुझे भारतीय बनाता है। मैं एक भारतीय हूं, जो मुझे हिंदू बनाता है, फिर मैं कहाँ हाथ जोड़ती हूं या पूजा में सिर झुकाती हूं बातचीत के दौरान ही मुझे अनुभव हुआ कि इस विषय में मेरा ज्ञान, सच्चाई से कितना दूर था।
आज के सजग भारत में साम्प्रदायिक राजनीति निष्क्रिय होती दिख रही है और देश-विभाजक योजनाएं विफल हो रही हैं इसीलिए ये सब तत्व संविधान खतरे में है क्योंकि सेक्युलरवाद खतरे में है चिल्ला रहे हैं। अपनी आँखों से भ्रम की पट्टी हटा कर देखें तो वास्तव में समाज में राष्ट्रीयता का जागरण हो रहा है। देश और संविधान पर से इस 'सेक्युलरवाद' का खतरा टल कर, भारत के परम्परागत बहुत्व (plurality), वैविध्य (diversity) और एकता (unity) अब सुरक्षित होते दिख रहे हैं। ऐसे खोखले और बनावटी सेक्युलरवाद से पीछा छुड़ा कर यदि राज्य सरकार सही मायने में सब के साथ समान व्यवहार करेगी तो देश की तरक्की होगी, एकता और अखंडता का सूत्र मजबूत होगा और देश विभाजन की दुकानदारी करने वालों की दुकानें भी बंद होंगी। यह देश के और सभी के- मुसलमान और ईसाइयों के भी - हित में है। तभी समाज में एकता, समरसता और बंधुत्व निर्माण हो सकेगा। इसलिए जिस वर्तमान 'छद्म-सेक्युलरवाद खतरे में है' ऐसा ये स्वार्थी, दाम्भिक और समाज-विरोधी लोग चिल्ला रहे हैं उस के जाने से देश इस 'छद्म-सेक्युलरवाद' के खतरे से मुक्त होगा। देश का स्वत्व प्रकट होगा। एकता, अखंडता और बंधुत्व का भाव अधिक मजबूत होगा।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह हैं)