पाथेय गीत ही था श्री भागवत का विजयादशमी उद्बोधन
सुप्रसिद्ध गायक ,पद्मश्री शंकर महादेवन ने आज नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विजयादशमी पर्व पर अपने उद्बोधन में एक बेहद सुंदर एवं सुरीली बात कही। वह कहते हैं कि भारत अगर एक गीत है तो संघ के स्वयंसेवक उस गीत की सरगम है। शंकर महादेवन ,शास्त्रीय संगीतज्ञ है। संगीत की साधारण समझ रखने वाला भी यह जानता है कि सरगम आधार है। सरगम के बिना गीत सिर्फ शब्द ही रह जाएंगे, गीत की अनुभूति असंभव है।
विजयादशमी पर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्थापना दिवस है। संघ, दो वर्ष बाद अपने जीवन के यशस्वी 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है। दस दशक की यह यात्रा, नि:संदेह देश के राष्ट्र को एक गीत का स्वर देने की यात्रा है। शंकर महादेवन ने अपने उद्बोधन में प्रसून जोशी के गीत को भी गाया। 'मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए।”गीत में पंक्ति है-'”मेरी नस-नस तार कर दो और बना दो एक सितार, राग भारत मुझ पे छेड़ो, झनझनाओं बार-बार।” शंकर महादेवन जब यह गा रहे थे तो हृदय रोमांचित हो रहा था। और जब संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने अपना उद्बोधन दिया तो मन गीला और आंखे नम हो रहीं थी। उनका संपूर्ण उद्बोधन भी एक गीत ही था और वह स्वयंसेवकों के समक्ष देश के समक्ष एक दृष्टा की तरह, भारत का स्वर्णिम भविष्य रखते हुए यह संकेत भी दे रहे थे, चेता भी रहे थे कि आज युगानुकूल हमारे कर्तव्य क्या हैं।उनका उद्बोधन स्वयम्सेवकों के लिए भी एक संकेत था कि वह देश के निर्माण के लिये स्वयं को “तार”याने सर्वस्व अर्पित करने के लिए तैयार रहें जिन्हें झनझनाया भी जायेगा ।
लगभग 55 मिनट के भाषण में श्री भागवत ने सबसे पहले जी-20 सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय पटल पर भारत की वैश्विक उपस्थिति की सराहना करते हुए कहा कि यह भारत के नेतृत्व की ही इच्छा शक्ति का ही परिणाम है कि जी-20 आज अब अर्थ केन्द्रित न होकर मानव केन्द्रित हो गया है। यही नहीं एशियाई खेलों में भारत की स्वर्णिम सफलता एवं चन्द्रयान की उपलब्धि भारत को ऐतिहासिक गौरव की अनुभूति कराने वाला क्षण है। श्री भागवत ने फिर एक बार “मन की अयोध्या”को सजाने का देशवासियों से आव्हान किया। “मन की अयोध्या”का संकल्प वह पहले भी दिला चुके हैं। राम मंदिर की संकल्पना जनवरी 2024 में साकार रूप ले रही है। यह साधना चार शताब्दियों के बलिदान की साधना है। श्री भागवत यहां यह कहना चाहते हैं कि राम मंदिर से राष्ट्र मंदिर का संकल्प सिर्फ अयोध्या में मंदिर निर्माण नहीं है बल्कि हम मन की अयोध्या बनाएं। अयोध्या से आशय जहां कोई द्वंद न हो, भेद न हो, विषमता न हो, दीनता न हो। देशवासियों के मन में स्वयं के प्रति आत्मविश्वास का बोध जागृत करना ही राम मंदिर निर्माण की पीछे मूल ध्येय है।
श्री भागवत अपने उद्बोधन में यह कैसे होगा, इसका 'रोड मैप”भी देते हैं। वह एक ओर भगवान महावीर का स्मरण भी करते हैं वहीं दूसरी ओर छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज के 350वें वर्ष के प्रसंग को भी याद दिलाते हैं। साथ ही गोंडवाना की वीर रानी दुर्गावती के बलिदान एवं छत्रपति शाहूजी महाराज का भी देश को स्मरण कराते हैं। इतना ही नहीं सुदूर, तमिलनाडु के संत श्रीमद् रामलिंग वल्लार के 'स्व”तंत्र का भी उल्लेख करते हैं। 'स्व” तंत्र के साथ-साथ समाज की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक जागृति में इन वंदनीय विभूतियों ने किस प्रकार भारत को भारत बनाए रखने के लिए अपना सर्वस्व दिया, यह वह याद दिलाते हैं कि आइए, हम इनसे प्रेरणा लें। श्री भागवत पहले गौरव की अनुभूति और फिर प्रेरणा की शक्ति देकर अब देशवासियों को आसन्न खतरों के प्रति सचेत करते हैं ।
यू तो संघ के सरसंघचालक जब भी कुछ कहते हैं तो वह गंभीर विषय ही होता है पर विजयादशमी पर्व का उद्बोधन एक दृष्टि पथ भी होता है। श्री भागवत ने हिमालय क्षेत्र पर मंडरा रहे खतरों के प्रति देश को, नीति निर्धारकों को सचेत किया। समूचे हिमखंड में एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाओं को आपने एक गंभीर संकट का पूर्वाभास बताते हुए कहा कि यह क्षेत्र सर्वथा रक्षणीय है। श्री भागवत ने अपने उद्बोधन में मणिपुर हिंसा का उल्लेख करते हुए सांस्कृतिक मार्क्सवाद के जरिए अकादमिक जगत मे हो रहे षडयंत्रों के प्रति आगाह करते हुए कहा कि देश के बौद्धित जगत को भी अपनी युगानुकूल भूमिका से परिचित्त होना होगा, अन्यथा यह षडयंत्र देश को बार-बार कमजोर करेंगे।
कूटनीति के मर्मज्ञ चाणक्य का स्मरण करते हुए आपने कहा कि बाण तो एक का ही वध करता है पर मंत्र विप्लव सर्वनाश को निमंत्रण देता है और इसका उत्तर समाज की एकता ही है। इसका उत्तर हमारी सर्वसमावेशक संस्कृति ही है। एकता के एक एक सूत्र का हमे पारायण करना होगा। राष्ट्र का सर्वागीण विकास तभी संभव है, कि हम अब अपनी 'स्वतंत्रता”के लिए यात्रा प्रारंभ करे। इसके लिए आपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वदेशी की संकल्पना पर जोर दिया। श्री भागवत ने अपने संबोधन को विराम अमरराष्ट्र के नवोत्थान का प्रयोजन बताते हुए कहा। उनके उद्बोधन से सहज ही महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के कथन का स्मरण हुआ। वह कहते थे कि '”हां मै भारत की चिंता करता हूँ।कारण मैं जानता हूँ, विश्व कल्याण का मार्ग भारत से होकर ही निकलेगा।”